March 28, 2024

लोकतंत्र के लिए घातक जुमलों की राजनीति



चुनाव तो देश के पांच राज्यों में हो रहे हैं, पर निगाहें सब की उत्तर प्रदेश पर हैं। सबसे बड़ा राज्य है यह प्रदेश। मतदान का सात चरणों में होना ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि दांव पर बहुत कुछ लगा है। इन चुनावों को आगामी आम चुनाव के ‘सेमीफाइनल’ के रूप में देखा जा रहा है और उत्तर प्रदेश के परिणाम आम चुनावों को काफी हद तक प्रभावित करेंगे। इसी को देखते हुए सभी राजनीतिक दल हर संभव प्रयास कर रहे हैं, पर भारतीय जनता पार्टी ने तो जैसे सारी ताकत ही झोंक दी है। प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिमंडल के लगभग सारे सदस्य उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं। वैसे भी, भाजपा पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनावों को पूरी गम्भीरता से लेती रही है, पर इस बार यह गम्भीरता कुछ ज़्यादा ही है। यूं तो पश्चिम बंगाल के चुनाव में भी भाजपा ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उत्तर प्रदेश में किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना उसे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण लग रहा है।
राज्य में चार चरणों का मतदान हो चुका है, तीन चरण बाकी हैं। इस दौरान चुनाव प्रचार में भाजपा ने हर चरण में अपनी रणनीति बदली है। जहां बाकी राजनीतिक दल महंगाई, बेरोजग़ारी, नारी-शक्ति जैसे बुनियादी मुद्दों को उछाल रहे हैं, भाजपा हर बार नये नारों के साथ मैदान में उतर रही है। मुख्य मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच है। यहां भी भाजपा लगातार नारे बदल रही है। ऊपरी तौर पर भले ही कानून-व्यवस्था और विकास को मुद्दा बताया जा रहा हो, पर हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, दिवाली-ईद के सहारे ध्रुवीकरण की कोई कोशिश छोड़ी नहीं जा रही है। ऐसी ही एक और कोशिश का अवसर आतंकवादियों के खिलाफ न्यायालय के एक निर्णय ने भाजपा को दे दिया है। आतंकवाद की हर स्तर पर भर्त्सना होनी ही चाहिए, पर जिस तरह स्वयं प्रधानमंत्री ने आतंकवाद को साइकिल से जोड़ा है उसे देख कर तो यही लगता है कि अब तक के उठाये मुद्दे भाजपा को कमज़ोर लगने लगे हैं। ज्ञातव्य है कि आतंकवाद से जुड़े जिस कांड को लेकर न्यायालय ने सबसे बड़ा निर्णय सुनाया है उसमें साइकिलों पर विस्फोटक रख कर धमाके किये गये थे। प्रधानमंत्री ने उन साइकिलों को समाजवादी पार्टी के चुनाव-चिह्न साइकिल से जोडक़र अखिलेश यादव की पार्टी पर हल्ला बोला है। आतंकवाद के कुछ आरोपियों के सपा से कथित रिश्तों को लेकर सवाल उठते रहे हैं, पर इसके आधार पर ‘साइकिल’ को ही आतंकवाद की पहचान बताना हास्यास्पद ही लगता है। ‘लालटोपी’ को खतरे की घंटी बताना भी वैसा ही जुमला है जैसे पश्चिम बंगाल में ‘दीदी, ओ दीदी’ वाला जुमला था।
इस तरह के प्रयास कहीं न कहीं यही संकेत देते हैं कि हमारे राजनेता गम्भीर मुद्दों से बचने की कोशिश करते हैं। महंगाई, बेरोजग़ारी, शिक्षा, चिकित्सा जैसे मुद्दे निश्चित रूप से गम्भीर हैं, और इन्हें किसी भी चुनाव का मुद्दा बनना ही चाहिए। गरीबी भी ऐसा ही एक मुद्दा है। यह सही है कि आज से पचास साल पहले की वह स्थिति नहीं है जब ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनाव जीता गया था, पर देश का आम आदमी आज भी गरीबी की मार झेल रहा है। कोरोना काल में देश के अस्सी करोड़ लोगों को सरकार ने मुफ्त अनाज़ देकर गरीबी का मुकाबला किया था। इस योजना को भले ही चुनावी उद्देश्यों से मार्च के महीने तक खींचा गया हो, पर यह एक ज़रूरी और प्रशंसनीय कार्रवाई थी। लेकिन, सवाल तो यह भी उठता ही है कि देश की अस्सी करोड़ जनता की आर्थिक स्थिति इतनी खराब कैसे हो गयी कि विकास के सारे दावों के बावजूद उसे खैरात का अनाज लेने की स्थिति में जीना पड़ रहा है? जहां आबादी के इतने बड़े हिस्से को ज़रूरत के लिए मुफ्त अनाज पहुंचाना एक प्रशंसनीय कार्रवाई है, वहीं इस आबादी का मुफ्त अनाज पर निर्भर रहने की स्थिति में होना विकास के हमारे दावों का खोखलापन ही उजागर करता है। यह गम्भीर स्थिति है और हमारे नेतृत्व को इस बारे में सोचना ही चाहिए। शानदार राज-मार्ग, ऊंची-ऊंची मूर्तियां, भव्य पूजा-स्थल आदि सब की अपनी महत्ता है, पर बुनियादी आवश्यकता 130 करोड़ जनता की भूख मिटाना है, उसे सही और उचित शिक्षा देनी है, उसके स्वास्थ्य की चिंता करनी है, युवाओं के समुचित रोजगार की व्यवस्था करनी है। विपक्ष का दायित्व है कि वह इस संदर्भ में सवाल उठाये और सत्ताधारी दलों को इन सवालों का माकूल जवाब देना होता है।
पांच राज्यों में हो रहे इन चुनावों में, खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में सत्ताधारी पक्ष इन सवालों से बचने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है। इसीलिए, उसके प्रचारक घूम-फिरकर जिन्ना, पाकिस्तान, आतंकवाद का सहारा लेने लगते हैं। आज़ादी के 75वें साल और ‘अमृत-काल’ में बुनियादी मुद्दों की बात होनी चाहिए थी, पर हम ‘साइकिल’ को आतंकवादी साबित करने में लगे हुए हैं। किसी का आतंकवाद के कार्यों में लिप्त होना निश्चित रूप से गम्भीर अपराध है, इसकी उचित सज़ा मिलनी ही चाहिए। लेकिन किसी आतंकवादी का पिता या भाई होना अपराध क्यों माना जा रहा है? सही है कि हम अपेक्षा करते हैं कि परिवार के वरिष्ठ जन युवाओं को गलत मार्ग पर चलने से रोकें, पर इस बारे में उनकी कथित विफलता अपराध कैसे हो सकती है?
जनतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक पवित्र अनुष्ठान होते हैं। नागरिक और राजनेता दोनों के लिए एक अवसर होते हैं अपने भीतर झांकने का। पर हमने चुनाव का मतलब एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना मात्र मान लिया है। ज़रूरी है कि चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दल और राजनेता अपना पक्ष मतदाता के सामने रखें। अपनी उपलब्धियां बतायें, अपनी योजनाएं प्रस्तुत करें। पर हमारे नेता क्या कर रहे हैं? हमारे नेता गन्ना बनाम जिन्ना में हमें उलझाने में लगे हैं। हां, गन्ना इस देश का मुद्दा है, पर जिन्ना नहीं। स्कूलों में हिजाब पहना जाये या नहीं, इस पर विचार-विमर्श हो सकता है, पर जब हिजाब के मुकाबले भगवा दुपट्टा खड़ा किया जाता है तो ऐसा करने वालों के उद्देश्य शक के घेरे में आते हैं। यह धर्म के नाम पर भारतीय समाज को बांटने की कोशिश ही हो सकती है। और खतरनाक है यह कोशिश।
इस खतरे को पहचानना-समझना ज़रूरी है। न इसकी अवहेलना हो सकती है और न ही इसका मज़ाक उड़ाया जा सकता है। धर्म और जाति के नाम पर समाज को बांट कर अपना स्वार्थ साधने की किसी भी कोशिश को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसी हर कोशिश की घोर भर्त्सना होनी चाहिए। जुमलों से चुनाव जीतने की कोशिश भी इतनी ही भर्त्सना-योग्य है। हमारे राजनेताओं को जुमले उछालने की आदत होती जा रही है। ये जुमले जनतंत्र के लिए खतरनाक होते हैं, यह बात हमारे नेताओं को भी समझनी है और मतदाता को भी।