April 20, 2024

प्रतिरोध के बिना कैसा लोकतंत्र!



असहमति और प्रतिरोध, ये दो चीजें लोकतंत्र की बुनियादी पहचान और केंद्रीय व मूलभूत विशेषताएं हैं। इनके बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। दुनिया के जिन देशों में नियमित चुनाव होने के बावजूद असहमति की अभिव्यक्ति और प्रतिरोध के प्रदर्शन की इजाजत नहीं होती है उन्हें लोकतंत्र नहीं माना जाता है। राम मनोहर लोहिया की ये पंक्तियां बहुत बार दोहराई जा चुकी हैं लेकिन आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक हैं इसलिए कहना जरूरी है कि ‘सडक़ें सूनी हो जाएंगी तोसद आवारा हो जाएगी’। एक जीवंत लोकतंत्र और जाग्रत संसदीय व्यवस्था की पहचान है कि उसकी सडक़ें आंदोलनों से आबाद रहें। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकारों में निरकुंश होने की स्वाभाविक प्रवृति होती है। यह किसी व्यक्ति का मामला नहीं है, बल्कि सत्ता और शक्ति का मामला है। यह भी बहुत दोहराया जा चुका उद्धरण है कि ‘सत्ता भ्रष्ट बनाती है और असीमित सत्ता असीमित रूप से भ्रष्ट बनाती है’। लेकिन असीमित सत्ता सिर्फ भ्रष्ट नहीं बनाती है, निरंकुश भी बनाती है। कोई भी सत्ता निरंकुश न हो, इसके लिए जरूरी होता है कि असहमति की सार्वजनिक अभिव्यक्ति होती रहे और प्रतिरोध के आंदोलन चलते रहें।
दो मौजूदा प्रसंगों की वजह से देश में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर सवाल उठ रहे हैं। पहला प्रसंग पैगंबर मोहम्मद पर भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता द्वारा की गई अपमानजनक टिप्पणी का है। टिप्पणी नि:संदेह अपमानजनक थी तभी भाजपा ने खुद अपने दोनों प्रवक्ताओं के खिलाफ कार्रवाई की और उन्हें पार्टी से निकाला। लेकिन इसके विरोध में सडक़ पर उतर कर प्रदर्शन करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की बजाय भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलवा रही है। किसी भी प्रदर्शन या आंदोलन में तोड़-फोड़ या हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन उसी तरह किसी प्रदर्शन में शामिल राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं के घर पर बुलडोजर चलवाना भी सही नहीं ठहराया जा सकता है। इस मामले में प्रदर्शनकारियों से ज्यादा जिम्मेदारी सरकारों की बनती है। प्रदर्शनकारियों की तरह सरकारें कानून अपने हाथ में नहीं ले सकती हैं।
दूसरी अहम बात यह है कि बुलडोजर चला कर प्रदर्शनकारियों को सजा देने से पहले पार्टियों को, जिसमें भाजपा भी शामिल है, देश की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गए प्रतिरोध के तरीके को बदलना होगा। भाजपा की सरकारें जिस तरह के प्रतिरोध और आंदोलन के खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं, उसी तरह के आंदोलनों से भाजपा का निर्माण हुआ है। मंडल आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ आरक्षण विरोधी आंदोलन हो या अयोध्या में मंदिर का आंदोलन हो, भाजपा ने वहीं तरीका अपनाया था, जिस तरीके का इस्तेमाल करने पर आज वह बुलडोजर चला रही है। आज भी भाजपा जिन राज्यों में विपक्ष में है वहां वह उसी तरह से आंदोलन कर रही है, जिस तरह का आंदोलन करने पर उसकी सरकारें विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर लाठियां बरसा रही हैं। लोकतांत्रिक तरीके से विरोध और असहमति जताने पर भाजपा का यह दोहरा रवैया है।
दूसरा प्रसंग राहुल गांधी से ईडी की पूछताछ के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कांग्रेस नेताओं पर हो रही पुलिस कार्रवाई का है। पुलिस सिर्फ आम कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर ही लाठी नहीं चला रही है, बल्कि सांसदों के ऊपर भी पुलिस ऐसी सख्ती दिख रही है, जैसे वे सांसद न हों कोई आतंकवादी हों। पुलिस कांग्रेस सांसदों को उनके घरों में घेर रही है ताकि वे बाहर निकल कर प्रदर्शन न कर सकें। जो सांसद किसी तरह से बाहर निकल गए उनको पकड़ कर, घसीट कर गाडिय़ों में बैठाया जा रहा है और थानों में बंद किया जा रहा है। इनमें महिला सांसद भी शामिल हैं। यह अभूतपूर्व घटना थी कि पुलिस और अर्धसैनिक बलों का एक दस्ता नई दिल्ली में 24, अकबर रोड के कांग्रेस मुख्यालय में घुसा और वहां से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को घसीट कर बाहर निकाला। इस कार्रवाई को सही बताते हुए पुलिस ने कहा कि संबंधित कार्यकर्ता कानून का उल्लंघन करके अंदर चला गया था इसलिए पुलिस भी अंदर गई। जानते हैं किस कानून का उल्लंघन करके कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी मुख्यालय में घुसा था- धारा 144 का!
क्या भाजपा में कोई नेता ऐसा होगा, जिसके खिलाफ धारा 144 के उल्लंघन का मामला न हो? धारा 144 का उल्लंघन किए बिना इस देश में कोई नेता नहीं हो सकता है। यह राजनीति की पाठशाला का पहला सबक है। लेकिन इसी से जुड़ा सवाल है कि भाजपा के कितने नेता हैं, जिनको धारा 144 के उल्लंघन के लिए लाठियां खानी पड़ी हो या लातों-घूंसों से पिटाई हुई हो या सडक़ों पर घसीटा गया हो? भाजपा से यह सवाल इसलिए है क्योंकि देश की कम्युनिस्ट और समाजवादी पार्टियों के साथ साथ भाजपा ही वह पार्टी है, जो सबसे लंबे समय तक विपक्ष में रही है। भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी का ज्यादातर समय विपक्ष में ही बीता है। कम्युनिस्ट और समाजवादी पार्टियों की तरह उसका भी आंदोलन करने, विरोध-प्रदर्शन करने और असहमति जताने का लंबा इतिहास है। तभी उससे इस न्यूनतम शिष्टाचार की उम्मीद रहती है कि वह सत्ता में है तो विपक्षी पार्टियों के साथ कम से कम वैसा बरताव करे, जैसा उसके साथ विपक्ष में रहते हुआ है। अगर उससे बेहतर बरताव नहीं कर सकती है तो कम से कम वैसा जरूर करे।
अफसोस की बात है कि भाजपा की सरकारें विपक्ष के साथ विपक्ष की तरह नहीं, बल्कि जानी दुश्मन की तरह बरताव कर रही हैं। उसकी पुलिस असहमति और प्रतिरोध को कुचल देने के अंदाज में काम कर रही है। उसकी एजेंसियां समूचे विपक्ष की साख बिगाडऩे के लिए काम कर रही हैं। इससे पहले केंद्रीय एजेंसियों का ऐसा बरताव कभी देखने को नहीं मिला। यह अघोषित नियम हो गया है कि जो विपक्ष में है वह भ्रष्ट है और जैसे ही वह सत्तापक्ष में शामिल होता है उसके भ्रष्टाचार के दाग धुल जाते हैं। इसकी अनेक मिसालें दी जा सकती हैं। लेकिन इस समय चिंता का मुद्दा वह नहीं है। चिंता का मुद्दा सत्ता के निरंकुश होते जाने का है। चिंता का मुद्दा असहमति जाहिर करने और सरकार की किसी नीति या उसके किसी कदम के विरोध में आंदोलन करने की मान्य लोकतांत्रिक परंपरा को समाप्त करने के प्रयास का है। चिंता का मुद्दा विपक्ष को दुश्मन मानने की सोच का है। चिंता का मुद्दा बहुमत और सत्ता के दम पर विपक्ष की आवाज को दबाने के प्रयास का है। ध्यान रहे इससे सिर्फ विपक्ष या राजनीतिक विरोधी कमजोर नहीं होंगे, इससे लोकतंत्र कमजोर होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था कमजोर होगी और अंतत: नागरिक कमजोर होंगे। लोगों को भी किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। दुनिया की कोई भी सरकार जनता के लिए काम नहीं करती है। तभी यह विपक्ष और नागरिक समाज की जिम्मेदारी होती है कि वह सरकारों को जवाबदेह बनाए। दुर्भाग्य से भारत में नागरिकों का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो अज्ञानवश अपने हितों की संकीर्ण परिभाषा के दायरे में बंध गया है और देश, समाज व खुद के व्यापक हित के प्रति आंखें मूंदे हुए है।