सत्तापरस्त पुलिस पर घटता भरोसा
पुलिस के कामकाज पर पहली बार उंगलियां नहीं उठ रही हैं। आज़ादी मिलने के फ़ौरन बाद यह सिलसिला शुरू हो गया था। अंग्रेजों के शासन में पुलिस का चरित्र पूरी तरह सामंती और अलोकतांत्रिक था जो आज़ादी के बाद भी बदला नहीं जा सका। लेकिन हाल के वर्षों में पुलिस के प्रति भरोसे में लगातार जो कमी आई है वह हर लिहाज़ से चिंता की बात है। न्यायपालिका की परवाह किए बिना राजनेताओं के कहने पर चुनींदा लोगों को प्रताडि़त करना और उनको झूठे आरोपों में अभियुक्त बनाना पुलिस के कामकाज का हिस्सा बन चुका है। इस शैली ने एक गंभीर समस्या का रूप ले लिया है। कुछ ही दिन के भीतर कई ऐसी घटनाएं देखने में आई हैं, जिनमें पुलिस ने सत्ताधारियों के कहने पर बेक़सूर लोगों को अपराधी बना दिया और जो अपराधी थे उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। इससे जनता में न केवल क़ानून के शासन के प्रति भरोसे में भारी कमी आई है वरन यह सामाजिक और न्याय की दृष्टि से चिंता का कारण भी बना है। पिछले दिनों मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने भी इस विषय पर चिंता जताई थी।
हमने देखा कि गोरखपुर में सप्ताह भर पहले उत्तर प्रदेश पुलिस ने बेहद नृशंस काण्ड किया और फिर उस पर पर्दा डालने की कोशिश भी की। इस तरह का यह कारनामा पहला नहीं है और न आखिरी है। यह लखनऊ में विवेक तिवारी, बुलंदशहर में सुबोध कुमार सिंह, कानपुर के विकास दुबे या रात के अंधेरे में पेट्रोल डालकर फूंक दी गई हाथरस की दलित युवती के सिलसिले की ही एक कड़ी है। राज्य में ‘ठोको राजÓ चला रही पुलिस 2017 से अब तक 8472 कथित मुठभेड़ों में 146 नागरिकों को हमेशा के लिए सुला चुकी है और 3302 को विकलांग बना दिया है। साथ ही करीब 19 हजार लोगों को जेल भेजा जा चुका है। क़ानून-व्यवस्था के नाम पर इस आपराधिक कार्यशैली को नेता अपनी उपलब्धि बताते हैं और पुलिस अपनी ‘बहादुरीÓ मानकर शाबाशी की हकदार हो जाती है। इस सब के बावजूद सूबे में अपराध की दर में निरंतर बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। 2017 में राज्य में 3.10 लाख अपराध दर्ज हुए थे वहीं 2020 में उनकी तादाद 3.55 लाख पर पहुंच गई। यह तो तब है जब थाने में रिपोर्ट दर्ज कराना किसी एवरेस्ट विजय से कम नहीं है।
गोरखपुर के एक होटल में आधी रात को कानपुर के व्यापारी मनीष गुप्ता को नींद से जगाकर की गई पिटाई से मृत्यु के मामले में हत्या की प्राथमिकी दर्ज कर ली गई। लेकिन ऐसा कोई संकेत नहीं है कि ‘ठोको राजÓ की नीति पर चल रहा शासन शर्मिंदगी महसूस करके अपनी कार्यशैली में सुधार करेगा। ऐसा होता तो प्राथमिकी में तीन पुलिसकर्मियों को अज्ञात नहीं लिखा जाता। गोरखपुर मुख्यमंत्री का गृह जनपद होने के नाते यह कांड इस सच्चाई को बखूबी उजागर कर देता है कि वर्तमान शासन संविधान, कानून और अदालती व्यवस्था के प्रति जवाबदेही को लेकर कितना गम्भीर है। शासन के किसी फैसले से असहमति करने वालों को ‘राष्ट्रद्रोहÓ का मुकदमा लगाकर जेल में बंद करने के मामले इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 100 से ज्यादा ऐसे मामले सख्त टिप्पणियों के साथ ख़ारिज किए हैं।
इसी स्थिति पर टिप्पणी करते हुए मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने हाल में पुलिस की हिंसक प्रवृत्ति के प्रति चेताया था। उन्होंने कहा था कि आज भी मानवाधिकारों और शारीरिक उत्पीडऩ का सबसे ज़्यादा खतरा थानों और पुलिस हिरासत में बना हुआ है। मुख्य न्यायाधीश निरंतर यह रेखांकित करने का प्रयास कर रहे हैं कि देश की राजनीतिक, सामाजिक और संवैधानिक व्यवस्था अभी तक अपने नागरिकों को सुरक्षा के प्रति भी आश्वस्त नहीं कर सकी है। 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों में सुरक्षा आयोग, पुलिस बोर्ड और प्रतिवाद प्राधिकरण बनाने का निर्देश दिया था। जब चार साल बाद इन निर्देशों की टॉमस कमेटी से समीक्षा कराई गई तो रिपोर्ट में कहा—’पुलिस के कामकाज में सुधार के अदालत के निर्देशों के पालन में बरती गई बेपरवाही से बहुत निराशा हुई है। 17 राज्यों ने जो नियम बनाए हैं, वे भी अदालत की भावना के अनुकूल नहीं हैं।Ó
अफ़सोस की बात है कि पुलिस का सोच, व्यवहार और कामकाज वैसा ही सामंती और उपनिवेशवादी बना हुआ है जैसा अंग्रेजी शासन में था। अंग्रेजों को ऐसी पुलिस चाहिए थी जो जनता के प्रति गैर जवाबदेह बनी रहे और उचित, अनुचित निर्देशों का पालन कराने वाली हो। स्वतंत्र भारत में भी पुलिस का यही चरित्र स्थायी बन चुका है। इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में पुलिस में निरंकुशता, उद्दंडता, कानून की अवज्ञा और हिंसा की भूख बढ़ी है। खतरनाक बात है कि हिंसा की यह भूख शासकों ने बढ़ाई है। शासन के किसी फैसले से असहमति करने वालों को ‘राष्ट्रद्रोहÓ का मुकदमा लगाकर जेल में बंद करने के मामले इसका ज्वलंत उदाहरण हैं।
पिछले कुछ समय में शासकों ने एक और जो ज्यादा चिंताजनक नीति अपनाई है, जो आरोपी (अपराधी) के स्वयं निर्धारण की है। अपराध पर फैसला कानून करता है लेकिन ‘अपराधीÓ तय करने का जिम्मा अब शासकों ने सम्भाल लिया है। इस नीति का ही अवश्यंभावी नतीजा पुलिस की कानून विरोधी कार्यशैली में सामने आता है। वह सत्ताधारी दल के पक्ष को मजबूती देने के लिए किसी भी हद तक जाने को सहज ही तैयार रहती है। शासन के किसी फैसले से असहमति करने वालों को ‘राष्ट्रद्रोहÓ का मुकदमा लगाकर जेल में बंद करने के आए दिन होने वाले मामले इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 100 से ज्यादा ऐसे मामले सख्त टिप्पणियों के साथ ख़ारिज किए हैं।
लगातार आधुनिक तकनीकी की ओर बढ़ते देश और समाज के लिए पुलिस कौशल की बढ़ती जरूरतों पर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बदलते समाज में पुलिस के कामकाज को लेकर जमीनी सच्चाई मौजूदा कार्यशैली के एकदम विपरीत है। सामाजिक तकाजा यह है कि पुलिस के सामने लगातार नई चुनौतियां पेश हो रही हैं। इन चुनौतियों से निपटने का काम जुझारू, निष्पक्ष, तकनीकी रूप से सुप्रशिक्षित, ईमानदार और मुस्तैद पुलिस बल के बिना नहीं हो सकता है। लेकिन हमारी पुलिस इनमें से किसी भी गुण से सुसज्जित नहीं है। वह न निष्पक्ष है, न ईमानदार है, न मुस्तैद है, न सुप्रशिक्षित और जुझारू है। उसको तकनीकी तौर पर भी प्रशिक्षित करने के लिए कोई समुचित योजना नहीं है।
देखने की बात है कि उत्तर प्रदेश की नकल करते हुए असम के मुख्यमंत्री पुलिस को निर्देश देते हैं कि यदि कोई शख्स भागने की कोशिश करे तो उसे गोली मार दो। इसी तर्ज पर त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देव ने पुलिस से कह दिया कि अदालत की अवमानना से डरने की कोई जरूरत नहीं है। राज्य की बागडोर ‘मेरे पास है और मैं ऐसे मामलों से निपट लूंगा।Ó पुलिस को सत्तापरस्त बनाने का शासकों का यह रवैया आम नागरिकों की सुरक्षा और सहायता के रास्ते की बहुत बड़ी अड़चन बन चुका है। यदि इस प्रवृत्ति को जल्दी न रोका गया तो पुलिस पर से आम आदमी का रहा-सहा भरोसा भी खत्म होने में संदेह नहीं होना चाहिए।