जीने का नायाब तरीका
केरल के वायनाड का नाम चर्चा में तब आया था जब राहुल गांधी वहां से लोक सभा चुनाव लडऩे गए। इससे पहले मुझे वायनाड के बारे में कुछ पता नहीं था।
इत्तेफाक देखिए कि पिछला हफ्ता हम दोनों ने वायनाड की पहाडिय़ों पर बिताया। यूं तो दुनिया के तमाम देशों में यात्रा करने या छुट्टियां बिताने का मौका मिला है पर वायनाड का अनुभव बिल्कुल अनूठा था। खासकर इसलिए कि इस यात्रा ने जिंदगी जीने का नया तरीका दिखाया। वायनाड की अलौकिक खबसूरती की चर्चा बाद में करूंगा, पहले अपने इस नये अनुभव को साझा कर लूं।
दिल्ली के प्रतिष्ठित मॉडर्न स्कूल में मेरी जीवन साथी मीता नारायण की सहपाठी रहीं सुजाता गुप्ता और उनके कुछ साथियों ने वायनाड के पहाड़ पर अपने आशियाने बनाए हैं। इसका नाम ‘इलामाला एस्टेटÓ है। समुद्र तल से 3000 फूट ऊंचे पहाड़ पर सघन वन में रहने का यह अनूठा अंदाज हर किसी को आह्लादित करता है। सात मित्रों की सात कॉटेज बहुत कलात्मक रुचि से बनाई और सजाई गई हैं, जिनके हर ओर सुंदर फूल और घने वृक्ष हैं। किसी भी घर में भोजन नहीं पकता। केवल चाय-काफी बनाने की व्यवस्था है। सातों मित्रों ने पहाड़ की चोटी पर एक ‘लॉन्ग हाउसÓ बनाया है, जिसकी रसोई में पारंपरिक से लेकर आधुनिक तरीके से खाना पकाने की अनेक व्यवस्थाएं हैं।
इस रसोई में 10-12 जने एक साथ भोजन पका सकते हैं। वहां का नियम है कि हर दिन भोजन पकवाने और खिलवाने का जिम्मा एक साथी का होता है, जिसके निर्देशन में रोज तीनों वक्त नाश्ता और खाना बनाया जाता है। चूंकि ये सातों सदस्य अलग-अलग प्रांतों से हैं, इसलिए ‘इलामाला एस्टेटÓ के भोजन कक्ष में हर दिन विविध व्यंजनों का स्वाद मिलता है। जहां सातों कॉटेज के लोग दिन में तीन बार जमा होते हैं, और भोजन के साथ विविध विषयों पर गंभीर चर्चा या ‘इंडोर गेम्सÓ का आनंद लेते हैं। इस ‘लॉन्ग हाउसÓ की बालकनी से चारों तरफ जहां भी निगाह जाती है, 50-50 मील दूर तक घने जंगल और सुंदर पहाड़ हैं, जिनमें दिन भर बादल, बारिश, इंद्रधनुष अटखेलियां करते रहते हैं। यहां चंदन, रोजवुड, सुपारी, नारियल जैसे अनेक बहुमूल्य उत्पादों के हजारों वृक्ष हैं। यहां का वन्य जीवन भी कम रोमांचक नहीं। अक्सर हिरन आपके वरांडे में आकर खड़े हो जाते हैं। ङ्क्षहसक पशु, कोबरा और जंगली हाथी भी यदा-कदा चक्कर लगा लेते हैं, जिनसे सावधानी बरतनी होती है।
‘लॉन्ग हाउसÓ में परिवार के मित्रों के ठहरने के लिए चार आधुनिक कक्ष भी हैं, जिनकी साज-सज्जा ‘ताज रिजॉर्ट्सÓ से कम नहीं। पर यह व्यवस्था व्यावसायिक नहीं है, जहां किराया देकर ठहरा जा सके। सात दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा। प्रकृति के इतना निकट इस अलौकिक वातावरण में शेष दुनिया से संपर्क रखने की इच्छा ही नहीं होती। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए जीवन जीने का यह तरीका बहुत सुखद और अदभुत है। जब आप एक दूसरे के साथ अपना जीवन इस तरह साझा कर लेते हैं कि फिर किसी और की जरूरत ही नहीं होती। अनजाने प्रदेश, जहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा कोई न जानता हो और स्थानीय लोग अंग्रेजी भी टूटी-फूटी बोलते हों, में उत्तर भारतीयों का रहना कितना मुश्किल होगा? पर ऐसा नहीं है।
‘इलामाला एस्टेटÓ के सभी कर्मचारी बेहद शालीन और काम के प्रति समर्पित हैं। हां, केरल में व्याप्त कर्मचारी यूनियनों की संस्कृति के कारण कर्मचारियों से काम करवाने की शत्रे बिल्कुल साफ हैं। उनमें कोई ढील बर्दाश्त नहीं की जाती पर जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो यह कि पूरा केरल बेहद अनुशासित राज्य है। लोग नियम-कानूनों का पूरी जिम्मेदारी से पालन करते हैं। जैसे शेष भारत में आपको शायद ही कोई दुकान ऐसी मिले जिसका सामान दुकान के बाहर फुटपाथ या सड़क पर फैला न हो। जबकि केरल में कैसी भी दुकान क्यों न हो, सड़क पर आपको कुछ भी रखा नहीं मिलेगा। सब कुछ दुकान के शटर के अंदर सीमित रहता है। इसी तरह सड़क पर आप देख कर हैरान रह जाएंगे कि लोगों के घरों के बाहर सड़क के किनारे एलपीजी के लाल सिलेंडर 24 घंटे पड़े रहते हैं, और कोई उनकी चोरी नहीं करता। गैस की आपूर्ति वाली गाड़ी भरा सिलेंडर रख जाती है, और खाली सिलेंडर उठा कर ले जाती है। इसी तरह दूध के बड़े-बड़े कैन सड़क किनारे रखे रहते हैं, और दूधिया उन्हें उठा कर घर-घर दूध बांट कर फिर सड़क पर रख देता है, और दूध की गाड़ी खाली कैन उठा लेती है, और भरे छोड़ देती है।
अड़ोस-पड़ोस के बीच विश्वास का रिश्ता इस कदर है कि दो घरों के बीच कोई बाउंड्री वल नहीं बनती। हर घर के चारों तरफ सुपारी या नारियल आदि के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं। केरल में ज्यादातर सड़कें घुमावदार हैं, और केवल दो लेन की ही होती हैं। एक जाने की और एक आने की। पर उत्तर भारत की तरह कभी ट्रैफिक जाम की समस्या नहीं होती क्योंकि सभी वाहन चालक सीधी कतार में चलते हैं। कोई भी जल्दीबाजी में ओवरटेक करके सामने से आ रहे वाहनों का रास्ता नहीं रोकता। वायनाड में ङ्क्षहदुओं की आबादी आधी है, शेष मुसलमान और ईसाई हैं। सभी हिल-मिल कर रहते हैं। इसलिए ‘इलामाला एस्टेटÓ के हमारे इन मित्रों को अपने इलाके से 2000 मील दूर रहकर भी कोई दिक्कत नहीं होती।
वायनाड में बाणासुर बांध, प्रागऐतिहासिक गुफाएं, पहाड़ों पर सुंदर जल प्रपात, प्राचीन मंदिर और वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी जैसे अनेक पर्यटक स्थल हैं। सबसे बड़ा आकर्षण है यहां होने वाली चाय, कॉफी और मसालों की खेती। जहां तक निगाह जाती है वहां तक हरा-भरा दृश्य दिखाई देता है। बागानों में काम करने के लिए श्रमिक बिहार, बंगाल और असम से बड़ी तादाद में आते हैं। दक्षिणी केरल की तरह यहां गर्मी और मच्छरों का प्रकोप नहीं है, बल्कि पहाड़ी जिला होने के कारण अप्रैल-मई छोड़ कर मौसम सुहावना ही रहता है। पर वायनाड में पर्यटकों का आना सीमित मात्रा में ही होता है क्योंकि इस जिले का विकास पर्यटन की दृष्टि से नहीं किया गया है। ऐसी जगह में वरिष्ठ नागरिकों का रहना और सामूहिक जीवन जीने के प्रयोग रोमांचक ही नहीं सुखद हैं। शेष भारत में भी जहां वरिष्ठ नागरिकों को अकेलापन लगता हो या उनके बच्चे उनका ध्यान रखने के लिए हर समय उपलब्ध न हों वहां भी मिल जुलकर साथ रहने के प्रयोग किए जाने चाहिए, जिससे बुढ़ापा आनंद से कट सके।