जातीय जनगणना और नीतीश कुमार की टेढ़ी चाल
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वो राज्य में जातीय जनगणना करवाएंगे। ऐसा करके उन्होंने अपनी ही सरकार की सहयोगी पार्टी बीजेपी को चुनौती दे दी है। गठबंधन में बीजेपी विधायकों की संख्या जदयू विधायकों से ज्यादा है लिहाजा, बीजेपी यहां खुद को बड़ा भाई के तौर पर देखती है लेकिन, कम विधायकों वाला जदयू बीजेपी को बड़ा भाई नहीं मानता। भाजपा नेता लगातार कहते रहे कि वो जातीय जनगणना नहीं होने देंगे। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बिहार में जातीय जनगणना करवाने से इनकार कर दिया है। बावजूद इसके नीतीश अड़े रहे। जाहिर है राजनीति में इस अडिय़ल रुख के सियासी मायने होते हैं।
12 फरवरी 1994 को पटना के गांधी मैदान में कुर्मी चेतना रैली को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने कहा था ‘अधिकार चाहिए सम्मान चाहिए।’ इस रैली से पहले यह हवा उड़ाई गई थी कि तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद कोइरी और कुर्मी जाति को ओबीसी से बाहर करने वाले हैं। इसके बाद राज्यभर में कोइरी और कुर्मी बिरादरी में गुस्सा भर गया था। इस अफवाह ने तब नीतीश कुमार को बड़ा मौका दिया और वो देखते ही देखते राज्य भर में लालू विरोध का सबसे बड़ा चेहरा बन गए।
जातिवादी मंच से जातिवादी राजनीति का बिगुल फूंक नेता बने नीतीश कुमार ने तब से अब तक बहुत ही करीने से जातीय समीकरण साधे और सत्ता की धुरी बने रहे। मौजूदा जातीय जनगणना की मांग उनकी उसी जातीय राजनीति का विस्तार है। नीतीश कुमार यह भली-भांति जानते हैं कि राज्य सरकार को जनगणना का कोई अधिकार नहीं है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत जनगणना संघ का विषय है। राज्य सरकार द्वारा करवाई गई ऐसी कोई भी गिनती कानूनी रूप से जनगणना नहीं मानी जाएगी। नीतीश कुमार ये भी जानते हैं कि उनके इस कथित जनगणना के आधार पर न तो सरकार कोई नीतिगत फैसले ले पाएगी और ना ही किसी जाति विशेष के लिए कोई योजना बना पाएगी।
मतलब साफ है कि ये कथित जनगणना सिर्फ जातिवादी राजनीति के काम आने वाली है। इसके जरिए हासिल किए गए आंकड़ों के बूते समाज को बांट-छांट कर राजनीत ही की जाएगी और कुछ नहीं किया जा सकेगा। लेकिन क्या नीतीश कुमार सिर्फ इतना ही चाहते हैं ऐसा नहीं लगता। दरअसल राज्य में ओबीसी राजनीत की धुरी बनती जा रही बीजेपी से नीतीश कुमार सशंकित हैं। नीतीश कुमार यह लगातार देख रहे हैं कि बीजेपी अब खुद को ओबीसी की पार्टी के तौर पर पूरी आक्रामकता के साथ पेश कर रही है। ऐसे में लगातार कमजोर होते जा रहे जदयू का आगे और बड़ा नुकसान संभव है। इसलिए अब नीतीश कुमार ने एक नया दांव चला है। इस दांव के जरिए वो अपने ही सहयोगी बीजेपी के आधार वोट बैंक को तोडऩे की कवायद में जुटे हैं। वो ये अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी इस मांग का विरोध भाजपा को छोडक़र दूसरा कोई दल नहीं करेगा। वो ये भी जानते हैं कि जो भी दल इसका विरोध करेगा उसको ओबीसी विरोधी राजनीतिक दल कह कर वो चुनाव से पहले भ्रम का माहौल खड़ा कर लेंगे। इसलिए यह जरूरी है कि नीतीश कुमार के इस सियासी दांव को ठीक से समझा जाए और उनकी चाल पर पैनी नजर रखी जाए।