चुनाव सुधारों का लाभ भाजपा को!
भारत में लंबे समय से चुनाव सुधार की जरूरत बताई जा रही है। कुछ सुधार जरूर हो रहे हैं लेकिन वे इतने छोटे हैं कि उनका प्रत्यक्ष असर बहुत कम दिखाई देता है या फिर सुधार ऐसे हैं, जिनका कोई प्रभाव मतदान की प्रक्रिया पर नहीं हुआ है। जैसे जेएम लिंगदोह के मुख्य चुनाव आयुक्त रहते यह प्रावधान किया गया था कि चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी नामांकन पत्र के साथ एक हलफनामा देंगे, जिसमें उनकी संपत्ति, उनकी शिक्षा और उनके आपराधिक मामलों का ब्योरा होगा। माना गया था कि लोग प्रत्याशियों की आपराधिक छवि के बारे में जानेंगे तो उनको वोट नहीं देंगे। लेकिन हुआ इसका उलटा। पिछले दो दशक में आपराधिक रिकार्ड वाले सांसदों की संख्या में बहुत बढ़ोतरी हो गई है। साथ की करोड़पति सांसदों-विधायकों की संख्या में भी रिकार्ड इजाफा हुआ है। तभी ऐसे प्रतीकात्मक चुनाव सुधार की जरूरत नहीं है।
पिछले कुछ दिनों से ऐसा कुछ चल रहा है, जिससे लग रहा है कि मतदान की प्रक्रिया में कुछ बड़े बदलाव होगा। यह कब होगा और कैसा होगा, यह नहीं कहा जा सकता है लेकिन चुनाव आयोग की ओर से उठाए जा रहे कदमों और केंद्र सरकार की ओर से दिए गए बयानों से इसे समझने की जरूरत है। इस लिहाज से दो बयान बहुत गौरतलब हैं। एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है और दूसरा उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू का है। दोनों ने नागरिकों से ज्यादा से ज्यादा संख्या में मतदान करने की अपील की है। यह अपील बहुत आम है और दूसरी पार्टियों के नेता भी करते हैं, लेकिन वेंकैया नायडू ने एक कदम आगे बढ़ कर कहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में 75 फीसदी मतदान होना चाहिए। ध्यान रहे पिछले चुनाव में 67 फीसदी से थोड़ा ज्यादा मतदान हुआ। सो, उप राष्ट्रपति ने पिछले चुनाव से आठ फीसदी ज्यादा और तीन-चौथाई मतदान की अपील की है।
यह संयोग है कि जिस समय उप राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने ज्यादा मतदान की अपील की उसी समय राष्ट्रीय मतदाता दिवस के मौके पर एक सर्वेक्षण जारी हुआ। एक पब्लिक ऐप के जरिए चार लाख लोगों का एक सैंपल सर्वे हुआ था, जिसमें 86 फीसदी लोगों ने कहा कि भारत में अनिवार्य मतदान होना चाहिए। उसके बाद से इस पर बहस चल रही है। इस बीच एक संसदीय समिति ने चुनाव आयोग से इस बात की पड़ताल करने को कहा है कि मतदान का प्रतिशत कम क्यों हुआ है। ध्यान रहे हाल में हुए पांच राज्यों के चुनाव में मणिपुर को छोड़ कर बाकी चारों राज्यों में मतदान प्रतिशत में कमी आई। पंजाब में तो मतदान 77 प्रतिशत से कम होकर 71 फीसदी पर आ गया। भाजपा नेता सुशील मोदी की अध्यक्षता वाले कानून व न्याय मंत्रालय की संसदीय समिति ने चुनाव आयोग से इसकी पड़ताल करने को कहा है। इससे जाहिर होता है कि भाजपा और केंद्र सरकार दोनों मतदान प्रतिशत को लेकर किसी न किसी तरह की उधेड़बुन में हैं। पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों के बाद यह चिंता बढ़ी है क्योंकि हिंदू मतदाताओं के जबरदस्त ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा वहां 38 फीसदी ही वोट हासिल कर पाई। भाजपा का ऐसा मानना है कि अल्पसंख्यक मतदाता ज्यादा मतदान करते हैं और उसके मुकाबले हिंदू मतदाता वोट डालने कम संख्या में निकलते हैं। अगर उनका मतदान प्रतिशत बढ़ेगा तो भाजपा को उसका फायदा हो सकता है।
अनिवार्य मतदान या मतदान प्रतिशत बढ़ाने के उपायों पर चर्चा के बीच केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने कहा है कि सरकार प्रवासी भारतीयों को ऑनलाइन मतदान की सुविधा देने पर विचार कर रही है। अगर ऐसा होता है तो यह बहुत बड़ा कदम होगा। ध्यान रहे अभी प्रवासी मतदाताओं को वोट डालने के लिए भारत आना पड़ता है। तभी बहुत कम प्रवासियों ने बतौर मतदाता खुद को भारत में पंजीकृत कराया है। दुनिया में दो करोड़ के करीब प्रवासी भारतीय हैं लेकिन मतदाताओं की संख्या सिर्फ एक लाख है। अगर सरकार ऑनलाइन मतदान का प्रावधान करे तो उनकी संख्या बहुत बढ़ेगी। ध्यान रहे अभी इलेक्ट्रोनिक पोस्टल बैलेट भेज कर चुनाव कराने का प्रस्ताव आया हुआ है। विपक्षी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। इलेक्ट्रोनिक पोस्टल बैलेट कलेक्ट करके भारत भेजने की जिम्मेदारी दूतावासों और उच्चायोगों को देने की बात है, जिसका उन्होंने भी विरोध किया है। उनका कहना है कि इसके लिए दूतावासों और उच्चायोगों का बुनियादी ढांचा सुधारना होगा और कर्मचारियों की संख्या बढ़ानी होगी। सोचें, अगर प्रवासियों को इलेक्ट्रोनिक बैलेट से या ऑनलाइन मतदान की सुविधा मिलती है तो उसका फायदा किसको होगा? कहने की जरूरत नहीं है कि प्रवासी भारतीयों के बीच भाजपा और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता किसी दूसरी पार्टी या नेता के मुकाबले बहुत ज्यादा है।
इसी तरह चुनाव आयोग पोस्टल बैलेट से मतदान और घर बैठे मतदान का दायरा बढ़ा रहा है। पहले सैनिकों और चुनाव प्रक्रिया में शामिल लोगों को ही पोस्टल बैलेट से मतदान की अनुमति थी। लेकिन अब बीमार और 80 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों को भी घर बैठे मतदान की सुविधा मिली है। आने वाले दिनों में इसमें कुछ और समूह जोड़े जा सकते हैं, जिनको घर बैठे मतदान की सुविधा मिलेगी। कई विपक्षी पार्टियां इस व्यवस्था को लेकर आशंकित हैं और उनको लग रहा है कि सत्तारूढ़ पार्टी इसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकती है। ध्यान रहे संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज में जैसा पूर्वाग्रह हाल के दिनों में देखने को मिला है उसे देखते हुए किसी किस्म के दुरुपयोग की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
एक और सुधार ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का प्रस्तावित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनेक बार इसके बारे में बात कर चुके हैं और संसद के चालू सत्र में पिछले हफ्ते राज्यसभा में यह मुद्दा उठा। भाजपा के सांसद डॉक्टर डीपी वत्स ने बजट सत्र के दौरान यह मुद्दा उठाया और कहा कि इस समय देश में ‘एक राष्ट्र, लगातार चुनाव’ की स्थिति हो गई। उन्होंने सभी दलों से एक साथ चुनाव पर सहमति बनाने की अपील की। चुनाव आयोग ने पूरे देश के लिए एक मतदाता सूची बनाने का ऐलान करके इस दिशा में एक ठोस पहल की है। लेकिन एक साथ पूरे देश में संसद, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव कराने का फैसला चुनाव आयोग नहीं कर सकता है और सिर्फ सत्तारूढ़ दल भी नहीं कर सकता है। इस पर सभी पार्टियों और राज्यों की सरकारों के साथ सहमति बनानी होगी। अभी जिस तरह से भारत में सारे चुनाव राष्ट्रपति मॉडल पर लड़े जा रहे हैं और गैर भाजपा दलों को हर चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लडऩा पड़ रहा है उसे देखते हुए लग रहा है कि अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव हुए तो उसका फायदा भी भाजपा को होगा। सो, कुल मिला कर अभी चुनाव सुधार के नाम पर जितने बदलाव प्रस्तावित हैं उन सबकी एकमात्र लाभार्थी भाजपा ही दिख रही है।