घाटी में हिंदू रहें तो कैसे?
35 वर्षीय राहुल भट्ट की हत्या के बाद घाटी में जो हुआ है, उसका वहां रहने वाले पंडितों के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा है। तैंतीस साल पहले उन्हें अपनी मातृभूमि छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था, लेकिन अब वे खुद अपनी मातृभूमि छोडऩा चाहते हैं। उनकी जोरदार मांग है, ‘हमें घाटी से बाहर निकालो’। ऐसा पहली बार हो रहा है।ज्कश्मीर में असली बदलाव तभी संभव है, जब झूठ की राजनीति और त्रासदी व नफरत पर राजनीति बंद हो और दृढ निश्चय से जमीनी सत्य का सामना हो!
घाटी में गुस्सा है। लोग शोकाकुल और चिंता में हैं। हल्ला कर रहे हैं, बहुत हुआ। यह गुस्सा, मुसलमानों में नहीं है, जैसा कि हम अक्सर सुनते और पढ़ते आए हैं, बल्कि कश्मीरी हिंदुओं और पंडितों में है, जो अब भी कश्मीर घाटी में रह रहे हैं, जिन्होंने जीवन और अस्तित्व पर खतरे के भय और भविष्य की अनिश्चितताओं के बावजूद वहां वापस जाना पसंद किया था। वे हिंदू, कश्मीरी पंडित अब क्षुब्ध, गुस्से से भरे हुए हैं। और यह स्वभाविक है। 35 वर्षीय राहुल भट्ट की हत्या के बाद घाटी में जो हुआ है, उसका वहां रहने वाले पंडितों के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा है। तैंतीस साल पहले उन्हें अपनी मातृभूमि छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था, लेकिन अब वे खुद अपनी मातृभूमि छोडऩा चाहते हैं। उनकी जोरदार मांग है, ‘हमें घाटी से बाहर निकालो’।
ऐसा पहली बार हो रहा है। आतंकवाद और हिंदुओं की लक्षित हत्याओं के कारण घाटी एक बार फिर मुश्किल में है। वहां लक्ष्य कर हिंदुओं की हत्याएं हैं, इसलिए भय फैला हुआ है और सरकार-प्रशासन की नाकामी और असहायता पर गुस्सा है। सवाल है क्या क्या गलत जो यह नौबत? ‘नए कश्मीर’ से पंडितों के बाहर निकलने का आंदोलन क्यों है?
सबसे पहले एक तथ्य ध्यान रहे। 1990 के दशक में सभी पंडितों और हिंदुओं ने घाटी नहीं छोड़ी थी। ज्यादातर ने घर बार छोड़ दिया था, लेकिन मु_ी भर लोगों ने खतरे में रहने और दरवाजे पर टंगे खतरे से लडऩे का फैसला किया। लेकिन दुर्भाग्य से, उन हिंदुओं और पंडितों की नैरिटव में चर्चा नहीं थी। उनकी चिंता नहीं हुई। उन्हें हालातों और कोशिशों की बातचीत से अलग रखा गया। उनके जीवन, उनकी समस्याएं, उनकी चिंताओं, अनिश्चितताओं की बार-बार अनदेखी की गई। उनके बारे में बाहर के लोगों को बहुत कुछ पता नहीं था, न ही गुजरे 33 वर्षों में उनके बारे में बहुत कुछ बताया, लिखा या रिपोर्ट किया गया है।
पंडितों को वापस घाटी में बसाने की बातें हुई हैं, उनसे बड़े लुभावने वादे किए गए हैं, लेकिन एक बार भी सरकारों- केंद्र या राज्य- और न ही स्थानीय प्रशासन ने पहले से घाटी में रह रहे, मौजूद हिंदुओं व पंडितों पर ध्यान दिया। तनाव और हिंसा से उनका दैनिक जीवन लगातार प्रभावित रहा है। खासकर, 2008 में अमरनाथ आंदोलन, 2010 में कश्मीर अशांति, 2014 में बाढ़, 2016 में आतंकवादी बुरहान वानी की हत्या, और फिर अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद वे बहुत तनावों में रहे। बावजूद इसके वे डटे रहे।
जब कभी राजनेताओं ने पंडितों को वापस लाने, उनके खाली-खोए हुए घर और जमीन वापस देने की बातें कीं तो वहां रह रहे पंडित चुपचाप खुश हो जाते थे, लेकिन शायद ही कभी अपनी समस्याओं और परेशानियों को उन्होंने खुद उठाया। अपने पर ध्यान बनवाया। घाटी के छोटे अस्थायी घरों में, विषम परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करने वाले हर हिंदू और पंडित कभी बड़े- भव्य घरों के मालिक थे। उनका जीवन शानदार था। अब उनके घर खराब हो गए हैं, खराब समय में वे बदहाली और दुर्दशा में हैं। पुरानी दीवारों को उजागर करने वाला पेंट उतर रहा है, बागीचों का रख-रखाव नहीं है, खिडक़ी के शीशे टूट गए हैं और लटक रहे हैं। दरवाजे पर शून्य वाट का पुराना बल्ब मद्धम रोशनी में टिमटिमाता होता है।
घाटी में हिंदुओं की इस गुमनाम, अंधेरी और अस्पष्ट जिंदगी का फैसला क्योंकि उनका अपना है तो वे अपने ही हाल में जीते आ रहे हैं। कहीं से कोई सहारा और ताकत या भरोसा नहीं है। अपनी ही भूमि में वे अनजाने हैं। ऐसे ही पीएम पुनर्वास कार्यक्रम के तहत वापस आने का फैसला करने वाले एक हजार पंडितों को छोटे घरों की किलेनुमा बस्तियों में ले जाया गया तो वे भी गुममानी में जीवन काटते हुए हैं। घरों में बेचैनी और दर्द की एक भयानक शांति बनी होती है। बक्सेनुमा छोटे फ्लैट में रहने के लिए मजबूर ये लोग, एक के ऊपर एक पैक किए गए हैं। उन्हें भरोसा दिया गया था कि कि वे घर जैसा महसूस करें। मगर बिना बुनियादी सुविधाओं के और चारों ओर अस्थिरता, आर्थिक तथा सामाजिक दिक्कतों के बीच।
विषम परिस्थितियों के बावजूद, हिंदू (और सिख) घाटी में बने रहे, जबकि पंडितों में कुछ ने, नौकरी के अवसर में वापस आने का फैसला किया। सबने सरकार की ताकत और वादों पर भरोसा किया जो मोदी सरकार के बनने के बाद निश्चित ही काफी बढ़ा हुआ था। 2019 में, जब अनुच्छेद 370 को खत्म किया गया, तब तो ऐसा होने के अविश्वास के साथ नई आशा और उत्साह का जबरदस्त जज्बा बना, खासकर घाटी के हिंदुओं और पंडितों में। वे अपने को प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता में अधिक सुरक्षित महसूस करने लगे। उन्हें यकीन था कि मोदी और शाह की ताकत घाटी में सामान्य स्थिति वापस लाएगी। पुराना सामान्य जीवन लौटेगा और परिवर्तन के
सामान्य जीवन लौटेगा और परिवर्तन के साथ समृद्धि भी आएगी। उन्हें इस बात का अहसास क्या सपनों में भी ख्याल नहीं था कि तीन साल बाद वे एक बार फिर 90 के दशक के पुराने खूनी समय में फंस जाएंगे। उनकी जान पर आ पड़ेगी और इस बार वे दो तरफ से फंसे हुए होंगे। दोहरे संकट में उनकी कहीं सुनवाई नहीं होगी।
राहुल भट्ट, सुपिन्दर कौर, दीपक चंद, माखन लाल बिन्द्रू, बिहारी प्रवासी, कृष्णा ढाबा के मालिक के बेटे को उनकी दुकान और आफिस में मारा गया। आतंकियों के निशाने में जो लक्षित हुए वे अपने कार्य स्थल पर ही मारे गए। सरकारी दफ्तर, सरकारी स्कूल, दुकान, सडक़ और रेस्तरां में। मतलब घाटी के अल्पसंख्यकों के लिए वापिस कोई भी जगह सुरक्षित नहीं है। इन मौतों ने अपनी शक्तिशाली सरकार पर से हिंदू और पंडितों का भरोसा चकनाचूर कर दिया है।
इतना ही नहीं, सबसे बड़ी हौसला तोडऩे वाली घटना यह है कि उनकी चिंता करता हुआ कोई नहीं। जहां सुरक्षा की सुरक्षा मशीनरी फेल है वहीं सरकार से यह भरोसा भी हिंदुओं को नहीं मिला कि हम हैं। जिस सरकार से सुरक्षा, संवेदना, सुनवाई, चिंता किए जाने की उम्मीद थी उससे पुलिस की ज्यादती का अनुभव हुआ। लाठी चली। उन्हें घेर कर बंद करने का अनुभव हुआ। कथित सुरक्षित ‘नए कश्मीर’ में एक तरफ लक्षित हत्याओं का आतंक तो दूसरी और प्रशासन-सरकार असंवेदनशील। छोटी जगह की जगह जिला स्तर पर तबादलों से भरोसे के सुझाव पर में भी देरी!
इसलिए कि नीचे प्रशासन तो वहीं है, जो पुराना चला आता हुआ है। हर कश्मीरी पुरुष या महिला, हिंदू या मुस्लिम की श्रीनगर में यह आम शिकायत होती है कि यहां सिर्फ फाइलें दबती हैं। समस्या स्थानीय प्रशासन और स्थानीय सरकार है। जमीन पर मौजूद लोगों और सत्ता में बैठे लोगों के बीच खाई है। सहानुभूति और करुणा का टोटा है। इसे अक्षमता या अज्ञानता कुछ भी मानें, असलियत है कि आज के कश्मीर, कथित ‘न्यू कश्मीर’ भी तहसील-जिला से राज्य मुखिया और गृह मंत्रालय तक, शीर्ष को गंभीर वास्तविकताएं सही ढंग से बताई नहीं जातीं। सही फीडबैक, जमीनी समाधानों के सुझाव ऊपर तक पहुंचते ही नहीं हैं।
ऐसे में कोई अर्थ नहीं है फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ के जरिए बने इस नैरेटिव का कि ‘हम जो नहीं जानते थे उसे अब जानते हैं।’ कश्मीर घाटी में अभी जो है, चंद हिंदुओं और पंडितों का जिस भय में वहां रहना है उसकी जानकारी कैसे बने? लक्षित हत्याओं की निरंतरता में हिंदुओं में यह भरोसा कैसे बने कि वे वहां रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे? उनकी यह मांग क्योंकर गलत मानी जाए कि हमें घाटी में नहीं रहना है?
‘कश्मीर फाइल्स’ के जरिए देश को एक काले अतीत से अवगत कराया गया था, लेकिन अतीत की याद दिलाते हुए, हर कोई वर्तमान के बारे में क्यों लापरवाह है? सरकार, उत्साही भक्तों, फिल्म के निर्माता और प्रचारक, मीडिया, नागरिक समाज सबने ‘कश्मीर फाइल्स’ से कश्मीर जाना। मगर क्या हर कोई उन हिंदुओं और पंडितों को लेकर भूला हुआ नहीं है, जो वहां रहते हैं।
राहुल भट्ट की हत्या के बाद की स्थितियों में उमर अब्दुल्ला ने ट्विट करके कहा था ‘कश्मीर आज सामान्य से बहुत दूर है’। लेकिन क्या कश्मीर कभी सामान्य था? डर हमेशा से कश्मीर यानी घाटी का अटूट अंग रहा है। आज हर कोने में अनिश्चितता है। घाटी में कोई भी वास्तव में सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ हद तक भय का अनुभव करता है- हिंदू, सिख, मुस्लिम, पुलिस, सरकारी कर्मचारी, एक शिक्षक, बिहारी प्रवासी, एक दुकान का मालिक आदि सब। आतंकवादियों का डर है, सरकार का डर है, स्थानीय नेताओं का डर है, अलगाव का डर है, भुला दिए जाने का डर है।
‘कुछ नहीं है कश्मीर में’ यह जुमला दरअसल हिंदू और मुसलमान सामूहिक रूप से कहते हैं। दरअसल कश्मीर- मनमोहन सिंह का नया हो या नरेंद्र मोदी का नया – उसमें कुछ भी नहीं है। कोई बुनियादी ढांचा नहीं है, आर्थिक संभावनाएं, सामाजिक स्थितियां नहीं हैं। हर मुसलमान जो खर्च उठा सकता है उसने अपने बच्चों को कश्मीर से बाहर भेज दिया है। कश्मीर में बने रहने का निर्णय करने वाले हर हिंदू परिवार ने भी अपने बच्चों को बाहर भेज रखा है। कश्मीर कभी खुश नहीं था, कभी सामान्य स्थिति नहीं थी, वह सामान्य स्थिति जानता ही नहीं है।
सवाल है घाटी से निकाले जाने की मांग करने वाले कश्मीरी हिंदुओं और पंडितों की दुर्दशा का समाधान क्या है?
वाकई सरकार के लिए घाटी में रहने वाले प्रत्येक हिंदू और पंडित को सुरक्षा प्रदान करना असंभव है, इसलिए शायद उन्हें उनकी मांग पूरी करनी चाहिए। क्योंकि इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि गलत उम्मीद और वादों की बौछार कभी नहीं रुकने वाली है। और यह कश्मीर में ही नहीं देश भर के पंडितों से की जाती रहेगी। नैरेटिव के ऊपर नैरेटिव का निर्माण जारी रहेगा और दिखाया जाएगा कि ‘नए कश्मीर’ में सब कुछ ठीक है, जबकि वास्तव में कुछ भी नहीं ठीक है और न होगा। लेकिन आप जानते हैं और उतना ही मैं भी जानती हूं कि उम्मीद होती है वक्त के साथ खत्म होने के लिए। लोग कश्मीर घाटी छोड़ रहे हैं, कई छोड़ देंगे फिर भी कुछ बने रहेंगे। वे खौफ के परिवेश और लैंडस्केप में कैसे रहेंगे, इसे हम-आप नहीं समझ सकते हैं। मगर उनसे ही घाटी में हिंदू पहचान की लौ बची होगी, दुर्दशा, भय और गुस्से के मध्य जैसे-तैसे सांस लेती संस्कृति होगी!
कश्मीर में असली बदलाव तभी संभव है जब झूठ की राजनीति और त्रासदी व नफरत पर राजनीति बंद हो और दृढ निश्चय से जमीनी सत्य का सामना हो!