सार्वजनिक खर्च बढऩे से ही आर्थिकी को गति
आखरीआंख
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन कहते हैं : ‘अर्थशास्त्र की किताबों में लिखा है कि सरकारों को देश में भारी बेरोजगारी के वक्त घाटे की अर्थव्यवस्था में बने रहना चाहिएÓ, उन्होंने जर्मनी की सरकार द्वारा अपने खर्च घटाने और मितव्ययिता अपनाने जैसे उपायों की आलोचना करते हुए कहा—’उसके द्वारा यह तरीका अपनाने से दक्षिण यूरोप के अन्य मुल्क भी नकल करने को मजबूर हुए हैं।Ó
दूसरे शब्दों में कहें तो मंदी के वक्त नीचे जा रही आर्थिकी को फिर से ऊपर लाने की राह में आर्थिक घाटे (कुल राजस्व और कुल खर्च का अंतर) को बढऩे देना चाहिए। तो क्या मोदी सरकार भी मितव्ययिता की यही गलती दोहराने जा रही है सरकार ने आर्थिक घाटे को कुल सकल उत्पादन के 3.3 प्रतिशत तक बनाए रखने को अपना सबसे बड़ा ध्येय बनाया था और इसको पाने की खातिर भारतीय रिजर्व बैंक के अतिरिक्त धन कोष से 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपया हासिल किया है। उसने यह कदम आधारभूत ढांचा विकसित करने, सामाजिक भलाई कार्यक्रमों और केंद्र प्रायोजित विकास योजनाओं पर और यादा खर्च करने के मकसद से उठाया है।
ऐसे वक्त में जब उपभोक्ता-मांग कम हो रही है और बेरोजगारी बढ़ रही है, तब सार्वजनिक खर्चों को कम करते हुए आर्थिक घाटे को किसी भी हीले-हवाले कम रखने की जो राह सरकार ने चुनी है, क्या वह सही रास्ता है शायद ऐसा करने के पीछे उसके ऊपर बने वह दबाव हैं, जिनमें एक है जीएसटी के तहत मिलने वाले कर की मात्रा का लक्ष्य से कम रहना और दूजा है विश्व की क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा सूची में भारत का स्थान नीचे ले जाना।
भारत के महालेखाकार की रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक वर्ष 2017-18 में कुल राजस्व प्राप्ति साल 2016-17 के मुकाबले 21.33 प्रतिशत से घटकर 5.80 प्रतिशत रह गई है। इन अंतरालों में जीएसटी से प्राप्त धन में भी 10 प्रतिशत की कमी आई है और इसके पीछे बड़ा कारण जीएसटी टैक्स की जमकर की गई चोरी है। जहां तक प्रत्यक्ष करों की बात है तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार अगस्त माह के मध्य तक प्राप्ति 4.69 प्रतिशत हो पाई है, जबकि इस वर्ष के लिए लक्ष्य 17.1 प्रतिशत का है।
उपभोक्ता-मांग को बढ़ाने के उपायों में सरकार और रिजर्व बैंक ने वही पुराना कोषीय टोटका अपनाया है, जिसमें रेपो दर में कमी की गई है, हालांकि, इस अंतर का लाभ अभी तक लघु एवं सूक्ष्म उद्योग क्षेत्र तक छनकर नहीं पहुंच पाया है। हाल ही में इस श्रेणी में आने वालों को अनेक राहतें दी गई हैं, लेकिन जिन अन्य क्षेत्रों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, उसमें कृषि और अन्य सेवा क्षेत्र प्रमुख हैं। सरकार द्वारा अपनाए जा रहे तमाम उपाय बता रहे हैं कि वह राजस्व से प्राप्त धन को खर्च करने में अनेकानेक सरकारी विभागों को दिए जाने वाले अनुदान में आगे कटौती करने जा रही है। इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास, प्रशासनिक खर्च और सब्सिडी देने के लिए उठाए ऋण में कमी लाने जैसे कदम शामिल हैं। रिपोर्ट बताती है कि सरकार अब कुल प्राप्त राजस्व को खर्च करने में केवल 6 प्रतिशत इजाफा करेगी जो वर्तमान साल के लिए पहले उलीकी गई 22 प्रतिशत बढ़ोतरी से कहीं कम है।
पूंजीगत खर्च जैसे कि जमीन, मशीनरी, भवन-खरीद, शेयर-निवेश, राय सरकारों को केंद्र से कर्ज और ऋण अदायगी जैसी मदों में कटौती होने जा रही है, संक्षेप में कहें तो अनेक संपत्ति-निर्माण गतिविधियों पर खर्च में कमी की जाएगी।
इस समय सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी करना व्यापारिक एवं उपभोक्ता में भरोसा बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है, जबकि आज यह डर व्याप्त है कि जहां एक ओर नौकरियों में कटौती हो रही है वहीं बेरोजगार हुए व्यक्तियों का वैकल्पिक रोजगार पाना बहुत मुश्किल बन गया है।
सोसायटी फॉर इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफेक्चर्रस के आंकड़ों के मुताबिक कार, ट्रैक्टर और दोपहिया वाहन निर्माण क्षेत्र में 2.3 लाख नौकरियां पहले ही जा चुकी हैं। इससे जुड़े कलपुर्जे-स्पेयर पार्ट बनाने वाली सहायक औद्योगिक इकाइयों में भी 10 लाख नौकरियां खत्म हो गई हैं। इसी तरह रियल एस्टेट क्षेत्र में बने पड़े मकान पिछले 42 महीनों से अनबिके हैं। यहां तक कि बिस्किट बनाने वाली एक मशहूर फैक्टरी ने ग्रामीण भारत में तनवाहों की यथास्थिति बने रहने की वजह से अपने उत्पादों की मांग में आई कमी के मद्देनजर 10,000 नौकरियों में कटौती करने को कहा है।
यहां सरकार को बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाओं पर किए जाने वाले सार्वजनिक खर्च को बढ़ाना चाहिए ताकि नई नौकरियों का सृजन हो सके और इससे आगे निर्माण उद्योग को बढ़ावा मिलेगा। इस कदम से आर्थिक मंदी का झटका झेलने वाली सामाजिक सुरक्षा प्रणाली बनी रहेगी। लेकिन सरकार है कि उलटे केंद्र प्रायोजित योजनाओं में कमी लाने जा रही है।
इसी तरह वित्त मंत्रालय ने भी सभी केंद्रीय मंत्रालयों से कहा है कि वे अप्रभावी या निष्िक्रय सिद्ध हो चुकी मिलती-जुलती योजनाओं को या तो आपस में जोड़ दें या फिर इनका पुनर्गठन किया जाए। नि:संदेह अनेक ऐसी केंद्रीय योजनाएं हैं जो धन की लगातार कटौती, परस्पर दोहराव से या तो निष्प्रभावी बनकर रह गई हैं या उन पर ध्यान देना छोड़ दिया गया है। सामाजिक भलाई की योजनाओं में कटौती करने से गलत संकेत जा सकते हैं। वर्ष 2016 तक कुल केंद्रीय योजनाओं की संया 300 तक सीमित हो गई थी और इसमें आगे काट-छांट करने की कवायद जारी है। अनेक ऐसी योजनाएं, जिनसे गरीबों को सीधा लाभ मिलता है उन्हें बंद नहीं किया जाना चाहिए। कहा जा रहा है कि 15वें वित्त आयोग ने अनेक केंद्र प्रायोजित योजनाओं को खत्म करने की सिफारिश की है, विशेषकर सामाजिक भलाई, कृषि, जनस्वास्थ्य, जलापूर्ति एवं सिंचाई, मत्स्य पालन और सामाजिक न्याय विषयों में।
यूरोपियन यूनियन मंदी झेल रहा है और आसियान संगठन के देश अमेरिका और चीन के बीच बढ़ चुके व्यापारिक झगड़े की आंच झेल रहे हैं, जिससे उनका अपना औद्योगिक उत्पादन, आपूर्ति शृंखला और निर्यात प्रभावित हो रहा है। ऐसे वक्त में जब वैश्विक मांग में कमी हो रही हो तो घरेलू मांग को पुनर्जीवित करने हेतु यह जरूरी बन जाता है कि लोगों की क्रय शक्ति में सुधार हो सके। हालिया लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी द्वारा घोषित न्यूनतम आय योजना (‘न्यायÓ) की व्यावहारिकता पर मौजूदा सत्ताधीशों को ध्यान देने की जरूरत है। वे लोग, जो बहुत गरीब हैं, अगर उनके हाथ में एकमुश्त 6,000 रुपये आएंगे तो जाहिर है उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी। हालांकि, इसको बनाने पर सकल घरेलू आय पर 1.7 फीसदी भार पड़ेगा।
वर्ष 2008 में आई महामंदी का शिकार बने पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस, साइप्रस और स्पेन ने अपने बजटीय खर्च में भारी कटौती का उपाय किया था, लेकिन इसका नतीजा यह रहा कि बाद में उनकी आर्थिकी आईएमएफ, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और यूरोपियन कमीशन से मिले बचाव-पैकेज का सहारे ही फिर से पटरी पर आ सकी थी। जब भारत का कर्ज-अदायगी संतुलन इतने फिक्रमंद स्तर पर नहीं है और मुद्रस्फीति भी तयशुदा दर से कम है तो ऐसे में ‘बटुए का मुंह बंदÓ करने वाली कवायद क्यों ?