कांग्रेस के लिए सत्ता वापसी के संकेत
आखरीआंख
जिस तरह कुछ विश्लेषकों ने महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को खारिज कर दिया था, उसमें थोड़े बेहतर चुनाव परिणाम के बाद पार्टी के लिए अनुकूल निष्कर्ष निकाला जाना अस्वाभाविक नहीं है।
वैसे भी चुनाव परिणामों में भाजपा को छोड़कर सबके संतुष्ट होने के लिए कोई न कोई पहलू है। हरियाणा में कांग्रेस की सीटें 15 से बढ़कर 31 हुई। यह कोई छोटी बढ़त नहीं है। मतों के अनुसार भी 2014 विधानसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस को आठ प्रतिशत का लाभ हुआ। महाराष्ट्र में भी राकांपा 41 से 54 तथा कांग्रेस 42 से 44 पर पहुंच गई। हरियाणा में कांग्रेस ने वे 14 सीटें जीतीं जिन पर पिछली बार भाजपा जीती थी। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस ने भाजपा से सीधे 15 सीटें छीनी हैं तो राकांपा ने 17। जहां पूरा चुनाव एकतरफा बताया जा रहा हो वहां ऐसे परिणामों से पहली नजर में यह निष्कर्ष निकाला जाना बिल्कुल स्वाभाविक है कि कांग्रेस में पुनर्जीवित होकर भाजपा को चुनौती देने और उभरकर आने की संभावना शेष है। क्या वाकई में ऐसा ही है?
यहां विचार करने की बात है कि क्या जिस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति करीब पांच महीने से नहीं मिल रहा हो, कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से चुनाव प्रचार तक में नहीं जा पाई, राहुल गांधी विदेश चले गए, नेताओं के अनुरोध वापस आए भी तो केवल नाम के लिए सभाएं की, उसके पक्ष में जनता इतनी आक्रामक थी कि वह स्वयं ही मतदान करने आ गई? अगर ऐसा है तो राजनीति में इससे बड़ा चमत्कार कुछ हो ही नहीं सकता। आखिर कोई या कुछ तो कारण होना चाहिए जिससे कांग्रेस के पक्ष में लोगों का उमडऩा स्वाभाविक लगे। कांग्रेस ने लोक सभा चुनाव में पराजय के बाद से विचार, व्यवहार, संगठन, नीति, रणनीति के स्तर पर कोई बदलाव किया नहीं है। तो फिर? ध्यान रखिए, कांग्रेस को हरियाणा के विशेष क्षेत्र में, जिसे जाट लैंड कहते हैं, बड़ी बढ़त मिली है। उसे पूरे हरियाणा में सीटें नहीं मिली हैं।
भाजपा को जाटलैंड की 35 में से केवल 7 सीटें मिलीं हैं। पिछले चुनाव में 19 सीटें जीतने वाली जाटों की मुय पार्टी इनेलो केवल एक पर सिमट गई। इनेलो का मत भी 24.1 प्रतिशत से घटकर सिर्फ 2.45 प्रतिशत रह गया। वैसे हरियाणा में लोक सभा चुनाव के अनुसार भाजपा का मत काफी गिरा, लेकिन विधानसभा चुनाव के अनुसार उसका तीन प्रतिशत मत बढ़ा है। महाराष्ट्र में तो राकांपा और कांग्रेस दोनों के मत कम हुए हैं।
हरियाणा में कांग्रेस नेता भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने इस चुनाव को जीने-मरने का प्रश्न बताया था। जाट समुदाय में कई कारणों से यह धारणा फैलाई गई कि भाजपा सरकार में वे हाशिये पर फेंक दिए गए हैं। यद्यपि यह सही नहीं था, लेकिन इसका असर हुआ और जाटों का ध्रुवीकरण मुयत: कांग्रेस तथा कुछ जजपा के पक्ष में हो गया। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर मंत्री तक सभी प्रमुख जाट नेता चुनाव हार गए। उसने 20 जाटों को टिकट दिया जिसमें केवल चार जीत पाए। महाराष्ट्र में भी कुछ विशेष क्षेत्रों के परिणाम बदले हैं। पश्चिमी महाराष्ट्र में राकांपा की सीटें 19 से बढ़कर 27 तो कांग्रेस की 10 से 12 हो गई। उत्तर महाराष्ट्र में भी राकांपा की सीटें सात से 12 हो गई। विदर्भ में भाजपा को 44 से 29 हुई तो राकांपा की एक से छह तथा कांग्रेस की 10 से 15। इस तरह पश्चिमी महाराष्ट्र और विदर्भ दो क्षेत्र राकांपा-कांग्रेस के पक्ष में गए। यहां भाजपा-शिवसेना को मात खानी पड़ी। लेकिन भाजपा को पूरे महाराष्ट्र से सीटें मिलीं।
हरियाणा एवं महाराष्ट्र का सच यह भी है कि भाजपा के मंत्रियों, अनेक विधायकों एवं नेताओं के खिलाफ पार्टी के अंदर व्यापक असंतोष था। महाराष्ट्र में भाजपा का बड़ा वर्ग शिवसेना के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं था। टिकट बंटवारे से असंतोष यादा फैला। महाराष्ट्र में 52 तथा हरियाणा में 16 प्रभावी विद्रोही उमीदवार खड़े थे। हरियाणा में भाजपा के अनेक नेता जजपा के उमीदवार बन गए। महाराष्ट्र में इनमें से जीते तो 12 ही, लेकिन भाजपा-शिवेसना को नुकसान खूब पहुंचाया। इसका लाभ राकांपा-कांग्रेस को मिला। प.महाराष्ट्र एवं विदर्भ के चुनाव परिणामों में यह यादा स्पष्ट दिखता है। विद्रोहियों ने 27-28 सीटों पर भाजपा-शिवसेना को नुकसान पहुंचाया है।
सच यह है कि इसकी तुलना में यहां कांग्रेस को लाभ यादा नहीं हुआ जबकि होना चाहिए था। हरियाणा में बतौर निर्दलीय भाजपा के छह विद्रोही जीते तो जजपा से चार। अन्य जगहों पर भाजपा को नुकसान पहुंचाया। बबिता फोगट चरखी दादरी में तीसरे स्थान पर चली गई और वहां भाजपा के विद्रोही जीत गए। इसका लाभ कांग्रेस को मिला। भाजपा में असंतोष हरियाणा में मतदान प्रतिशत में आठ प्रतिशत गिरावट का यह बड़ा कारण था। इस तरह भाजपा कार्यकर्ताओं की नाराजगी एवं विद्रोहियों का मैदान में उतरना तथा जाट कारक ने परिणाम बदल दिया है। लेकिन कांग्रेस उस स्थिति में थी नहीं कि पूरा लाभ उसके खाते जाए एवं वह बहुमत पा ले। महाराष्ट्र में ईडी के नोटिस का जिस तरह शरद पवार ने बुद्धिमतापूर्ण उपयोग किया, उससे भी उनको सहानुभूति मिली एवं भाजपा इसका संतोषजनक उत्तर देने में सफल नहीं हुई। महाराष्ट्र में शरद पवार ने भाजपा के अंदर असंतोष को देखकर अपनी पूरी शक्ति लगाई, क्योंकि उनके सामने अपने राजनीतिक अस्तित्व का प्रश्न था। इसका लाभ उनकी पार्टी के साथ कांग्रेस को भी मिला।
तो ये कारक ऐसे नहीं हैं, जिनके आधार पर कांग्रेस की वापसी या उसके बेहतर राजनीतिक भविष्य की तस्वीर पेश कर दी जाए। हरियाणा में एक भी निर्दलीय कांग्रेस के साथ आने को तैयार नहीं हुआ। अगर पार्टी में हमारी-आपकी तरह हरियाणा के अंदर भी दूसरे नेताओं को भविष्य दिखता तो वे उसके साथ जाने के बारे में अवश्य विचार करते। किसी पार्टी को आप राजनीति में खारिज नहीं कर सकते, किंतु हार के कारणों की समीक्षा कर उसे दूर करने के लिए कठोर उपाय किए बगैर वापसी की भविष्यवाणी तो की ही नहीं जा सकती। न तो महाराष्ट्र में हर बार शरद पवार मिल जाएंगे, न हरियाणा में हुड्डा की भावुक एवं परोक्ष जातीय अपील हमेशा के लिए रहेगी और न इतने विद्रोही ही उसको जिताने के लिए मैदान में दिखाई देंगे। कांग्रेस को यदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी दल की भूमिका में वापस आना है तो उसे नीति, नेतृत्व और रणनीति के स्तर पर आमूल बदलाव की आवश्यकता है। ऐसे चुनाव परिणामों पर प्रसन्न और उत्साहित हो जाने का खतरा यह है कि आप आवश्यक बदलाव से वंचित रह जाएंगे।