November 22, 2024

भाजपा के लिए क्या इसबार भी होगी दिल्ली दूर

आखरीआंख
दिल्ली विधानसभा में नामांकन पूर्ण होने के बाद कड़ाके की ठंड के साथ सियासी पारा तेजी से चढ़ता जा रहा है। केजरीवाल की अगुवाई में आम आदमी पार्टी सत्ता बरकरार रखने की कवायद में है तो कांग्रेस अपना खोया जनाधार पाने की जद्दोजहद में जुटी है। बीते साल केंद्र में अपना परचम लहरा चुकी भाजपा के लिए भी दिल्ली विधानसभा चुनाव चुनौती साबित हो रहे हैं। फिलहाल यह कहना अभी मुश्किल है कि दिल्ली का ताज किसके सिर सजेगा।
गौरतलब है कि 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 9.7 फीसदी, भाजपा 32.3 फीसदी और आप 54.3 फीसदी मत हासिल कर पाई थी। इस बार चुनावी नतीजे इस बात पर निर्भर होंगे कि कौन सा दल विरोधी पार्टी के वोट बैंक में कितनी सेंध लगा पाया। दिल्ली के 80 फीसदी मतदाता अन्य प्रदेशों से विस्थापित हैं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव तथा 2015 के दिल्ली विधानसभा के चुनावी नतीजों से साफ है कि लोकसभा के दोनों चुनावों में भाजपा अपने परंपरागत वोट के सहारे जीती थी जबकि विधानसभा चुनाव में यह परंपरागत वोट उसके हाथ से फिसल गया।
इस बार भी भाजपा दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर काबिज है लेकिन भरोसे से यह नहीं कहा जा सकता कि बीते विधानसभा चुनाव में 3 सीटों तक पहुंचने वाली भाजपा इस बार कितनी सीटें हासिल कर सकेगी और 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी के हाथ से कितनी सीटें निकल जाएंगी। ताजा दिल्ली चुनावों में भी तीनों प्रमुख दल भाजपा, आप और कांग्रेस ‘दिल्ली मेरीÓ का राग अलाप रहे हैं। लेकिन केजरीवाल के अलावा दोनों दलों के पास दावे की न कोई मजबूत दलील दिखाई दे रही है और न ही कोई ठोस आधार। 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी भले ही रसातल में चली गई लेकिन दिल्ली में वर्चस्व कायम करने वाली आम आदमी पार्टी को भी कांग्रेस ने हाशिए पर पहुंचा दिया था। बीते लोकसभा चुनाव से लेकर मौजूदा दिल्ली विधानसभा चुनाव तक देश के विभिन्न प्रांतों में नतीजों की तस्वीर कई बार बनती, संवरती और बिगड़ती रही है। इसमें गठबंधन की पटकथा में हुए बदलाव ने भी बखूबी भूमिका निभाई है। यह कहना भी बेमानी नहीं होगा कि विभिन्न सूबों में हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा उमीद के अनुकूल प्रदर्शन करने में खासी विफल रही है।
लोकसभा चुनाव में आए नतीजों से गद्गद भाजपा ने एक तरह से अपने सिर पर ‘वन एंड ओनलीÓ का ताज सजा लिया था। लेकिन झारखंड में करारी शिकस्त के बाद भाजपा ने सहयोगी दलों की सुध लेनी शुरू की है। दिल्ली के मौजूदा चुनाव में भाजपा ने जद-यू व लोजपा को अहमियत देने के संकेत दिए हैं। जबकि झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इनसे सीट बंटवारे पर साफ इनकार कर दिया था। हालिया दौर में भाजपा को कई प्रदेशों में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। झारखंड में भाजपा की हार की वजहों को भले ही चर्चा से अलग कर दें तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीटों पर सहमति नहीं बनने पर आजसू ने भाजपा से नाता तोड़ा तो जद-यू और लोजपा को खुद भाजपा ने तवजो नहीं दी। इससे पहले हरियाणा में भी मनमाफिक नतीजे नहीं आने और महाराष्ट्र में सत्ता गंवाने के बाद सहयोगी दलों ने भाजपा पर हमला बोला था। गठबंधन को पहुंची चोट पर भाजपा सहानुभूति का मरहम अभी ठीक से लगा भी नहीं पाई है कि जद-यू महासचिव पवन वर्मा ने बागी तेवर अपना लिए हैं। उन्होंने जद-यू प्रमुख नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुए कहा है कि जब नीतीश कुमार निजी तौर पर मानते हैं कि भाजपा देश का नेतृत्व ठीक नहीं कर पा रही है तो वह उसके साथ दिल्ली में हाथ कैसे मिला सकते हैं?
बीते लगभग 21 सालों से दिल्ली विधानसभा में ताजपोशी को बेचैन भाजपा के लिए गठबंधन धर्म निभाना कई मायनों में जरूरी माना जा रहा है। दिल्ली में बड़ी संया बिहारी और पूर्वांचल के मतदाताओं की है। मौजूदा विधानसभा चुनाव में यदि यह मतदाता नहीं सधते हैं तो इसका परिणाम इसी साल बिहार में होने जा रहे चुनावों में भी देखने को मिल सकता है। एक महत्वपूर्ण बात जो देखने को मिली वह यह कि दिल्ली की जनता लोकसभा चुनाव में भाजपा को हाथों-हाथ लेती है लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा को वोट देने में यही मतदाता हाथ खींच लेते हैं।
हाल में कई रायों से आए नतीजों से भी साफ हो रहा है भाजपा का ग्राफ उतार पर है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और झारखंड गंवाने वाली भाजपा के सामने नागरिकता कानून के विरोध में खड़े लोग भी एक चुनौती हैं। ऐसे में देखना यह है कि दिल्ली में केजरीवाल को पटखनी देने में भाजपा के दिग्गजों की टीम कितनी सफल हो पाती है?

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