चुनाव आयोग की जवाबदेही का प्रश्न
वैश्विक महामारी कोविड-19 के बीच ही पश्चिम बंगाल सहित चार राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने में निर्वाचन आयोग की भूमिका और उसकी कार्यशैली की तीखी आलोचना हो रही है। चुनाव के दौरान कोविड-19 के तांडव से उत्पन्न स्थिति के परिप्रेक्ष्य में मद्रास उच्च न्यायालय ने इन चुनावों के दौरान हुयी मौतों पर टिप्पणी भी कर दी कि इसके लिये निर्वाचन आयोग पर हत्या के आरोप में मुकदमा चलना चाहिए। लेकिन क्यों और कैसे, इस बारे में उच्च न्यायालय खामोश रहा।
संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत देश में चुनाव प्रक्रिया संपन्न कराने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की है। चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्यों का प्रशासन तंत्र और पुलिस व्यवस्था भी आयोग के नियंत्रण में ही रहती है। इसलिए चुनाव प्रक्रिया के दौरान किसी भी प्रकार की अव्यवस्था अथवा निरंकुशता के मामले में आयोग अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।
लेकिन सवाल यह उठता है कि कोविड महामारी के दौरान चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश की विधानसभा के चुनाव कराने के अपने संवैधानिक दायित्व के निर्वहन के बीच अगर कोई समस्या पैदा होती है तो आयोग के पास क्या विकल्प हैं। मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रत्याशी के निधन की स्थिति में उस सीट पर चुनाव स्थगित किया जा सकता है, लेकिन क्या कोरोना जैसी महामारी के दौरान समूची राज्य विधानसभा का चुनाव एक निर्धारित अवधि से आगे स्थगित किया जा सकता है। क्या आयोग के लिये कई चरणों में चुनाव के कार्यक्रम को अचानक ही एक तारीख पर कराना संभव होगा? क्या इसके लिये इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की प्रोग्रामिंग और प्रत्याशियों के नाम आदि में बदलाव की आवश्यकता नहीं होती।
कोरोना महामारी से उत्पन्न गंभीर स्थिति के मद्देनजर पिछले साल बिहार विधानसभा के चुनाव रद्द कराने के लिये उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी थी। याचिका में राज्य के कोरोना मुक्त होने तक चुनाव स्थगित करने का अनुरोध किया गया था, लेकिन न्यायालय ने इसे खारिज करते हुये कहा था कि कोरोना चुनाव स्थगित करने का कोई आधार नहीं हो सकता।
संविधान के अनुच्छेद 174 के अंतर्गत किसी भी राज्य विधानसभा के कार्यकाल के अंतिम सत्र के बाद छह महीने के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है, हालांकि यह अनिवार्यता विधानसभा भंग किये जाने के मामलों में लागू नहीं होती है। निर्वाचन आयोग ने पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, पुड्डुचेरी और असम विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के तथ्य के मद्देनजर चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की थी। आयोग ने साथ ही संविधान में प्रदत्त अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुये चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना संबंधी दिशा-निर्देशों के पालन के निर्देश भी जारी किये थे। इसके बावजूद, इन चुनावों में यह देखा गया कि व्यापक अधिकार प्राप्त होने के बाद भी आयोग कोरोना संबंधी दिशा-निर्देशों को लागू कराने में असफल रहा। जनसभाओं में नेताओं और प्रत्याशियों के साथ ही लोगों के चेहरे से मास्क नदारद थे और इसमें सामाजिक दूरी का पालन करना तो दूर की बात थी।
निर्वाचन आयोग ने पिछले साल ही बिहार विधानसभा के साथ ही म.प्र. विधानसभा की 28 सीटों के लिये उपचुनाव के लिये कोविड-19 संक्रमण के मद्देनजर दिशा-निर्देश जारी किये थे। इन दिशा-निर्देशों के बावजूद म.प्र. में प्रत्याशी और राजनीतिक दल अपनी सभाओं में इनका पालन नहीं कर रहे थे।
इन्हीं तथ्यों को देखते हुये म.प्र. उच्च न्यायालय ने अक्तूबर, 2020 इन चुनावी सभाओं पर रोक लगाते हुये कहा था कि इनका आयोजन उस समय तक नहीं होगा जब तक जिलाधिकारी और निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित नहीं कर दे कि वर्चुअल चुनाव प्रचार संभव नहीं है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि जनसभा की अनुमति मिलने पर राजनीतिक दलों को सभी में अपेक्षित लोगों की दुगनी संख्या की सुरक्षा के लिये मास्क और सैनिटाइजर आदि खरीदने के लिये जिलाधिकारी के पास धन जमा कराना होगा।
इस आदेश के खिलाफ निर्वाचन आयोग ही उच्चतम न्यायालय गया था जहां शीर्ष अदालत ने 26 अक्तूबर, 2020 को इस आदेश पर रोक लगा दी थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि यह सुनिश्चित करना निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है कि उसके दिशा-निर्देशों का पूरी तरह पालन हो और ऐसा नहीं होने पर उचित कार्रवाई की जाये।
ऐसा नहीं है कि निर्वाचन आयोग ने ऐसे मामलों में कार्रवाई नहीं की। संभवत: हाल के कुछ दशकों में पहली बार आयोग पर पक्षपात करने और गैर-भाजपाई दलों की शिकायतों पर निष्पक्षता से कार्रवाई नहीं करने के गंभीर आरोप लगे हैं।
उम्मीद है कि इन चुनावों के दौरान हुई तीखी आलोचनाओं को ध्यान में रखते हुये निर्वाचन आयोग भविष्य में विधानसभा चुनाव के दौरान पहले से ज्यादा सावधानी बरतेगा और उसके निर्देशों का पालन नहीं करने वालों से ज्यादा सख्ती से निपटेगा।