‘परिवारवादी’ पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छह अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी के स्थापना दिवस के मौके पर वीडियो कांफ्रेंसिंग से दिए एक भाषण में ‘परिवारवादी’ पार्टियों पर हमला करते हुए कहा, ‘ये लोग भले ही अलग अलग राज्यों में हों, लेकिन परिवारवाद के तार से जुड़े रहते हैंज्.परिवारवादी पार्टियों ने कभी युवाओं को आगे नहीं बढऩे दिया, उनके साथ हमेशा विश्वासघात किया हैज्..युवा अब समझने लगे हैं कि किस तरह परिवारवादी पार्टियां लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन हैं’। उन्होंने इससे पहले आठ फरवरी को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए लोकसभा में कहा था, ‘लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा परिवारवादी पार्टियों से है, यह मानना पड़ेगा’। चुनावी भाषणों में तो प्रधानमंत्री अक्सर यह बात कहते रहे हैं।
सवाल है कि ‘परिवारवादी’ पार्टियां कौन सी हैं? बहुत सरलीकरण करें तो उन सभी पार्टियों को ‘परिवारवादी’ कह सकते हैं, जिनकी कमान बरसों या दशकों से एक परिवार के हाथ में हो या परिवार के किसी पुरखे ने पार्टी की स्थापना की हो और आज उसी परिवार का कोई सदस्य पार्टी को संभाल रहा हो। लेकिन क्या इतने भर से ऐसी पार्टियां लोकतंत्र की दुश्मन और लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाती हैं? यह एक गंभीर विमर्श का मसला है, जिस पर आगे विचार करेंगे लेकिन उससे पहले कुछ राजनीतिक सवाल उठाने जरूरी हैं, जिनसे इस अहम मसले पर भाजपा की हिप्पोक्रेसी और सतही समझ का पता चलता है। सवाल है कि क्या सिर्फ वहीं ‘परिवारवादी’ पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा हैं, जो भाजपा और केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध कर रही हैं या वो पार्टियां भी, जो भाजपा का साथ दे रही हैं?
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्री पशुपति पारस की लोक जनशक्ति पार्टी पारस ‘परिवारवादी’ पार्टी है या नहीं? मेघालय में भाजपा के समर्थन वाली और कोनरेड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी ‘परिवारवादी’ है या नहीं? केंद्र सरकार का परोक्ष समर्थन कर रही बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस ‘परिवारवादी’ पार्टियां हैं या नहीं? अगर ‘परिवारवादी’ पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा हैं तो ऐसी पार्टियों को साथ रखने से लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा? ऊपर बताई गई परिभाषा के हिसाब से शिव सेना, अकाली दल और टीडीपी तीनों ‘परिवारवादी’ पार्टियां हैं, जो दशकों तक भाजपा की सहयोगी रही हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी तीनों पार्टियों का भाजपा से साझा रहा है।
सवाल है कि ऐसी लोकतंत्र विरोधी पार्टियों को क्यों साथ रखा गया था? जम्मू कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी एक ‘परिवारवादी’ पार्टी है, जिसके संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती दोनों को प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने ही जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया था। कांग्रेस की स्थापना किसी गांधी या नेहरू ने नहीं की थी लेकिन चूंकि उस पर नेहरू-गांधी परिवार का नियंत्रण है इसलिए उसे ‘परिवारवादी’ कहा जाता है। उस पार्टी में तरक्की पाकर सत्ता की ऊंचाई तक पहुंचे कई ‘परिवारवादी’ इन दिनों भाजपा की शोभा बढ़ा रहे हैं। जाहिर है ‘परिवारवादी’ पार्टियों और लोकतंत्र के लिए खतरे का सिद्धांत अपनी सुविधा से बनाया गया है। ऐसी जो पार्टियां अपने साथ हैं वो लोकतंत्र को मजबूत करेंगी और जो विरोध में है उनसे लोकतंत्र को खतरा है!
जिन ‘परिवारवादी’ पार्टियों को लोकतंत्र के लिए खतरा और युवाओं का अवसर मारने वाली पार्टी बताया जा रहा है उनमें से कई पार्टियां दशकों से सत्ता से बाहर हैं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल 17 साल से सत्ता से बाहर है और 17 साल से एक पार्टी और एक व्यक्ति का राज चल रहा है। क्या एक ही व्यक्ति का दशकों तक सत्ता और पार्टी दोनों पर नियंत्रण लोकतंत्र को मजबूत करने वाली बात है? क्या इससे युवाओं के अवसर नहीं खत्म हुए हैं? असल में ‘परिवारवाद’ नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के हाथ में असीमित सत्ता का केंद्रीकरण लोकतंत्र के लिए खतरे वाली बात है। असीमित सत्ता का केंद्रीकरण वंशवाद के बरक्स विश्वासपात्रवाद को बढ़ावा देता है। यह लोकतंत्र के लिएज्यादा खतरे की बात है। ‘परिवारवादी’ पार्टियों में तो फिर भी योग्य व्यक्ति कमान संभाल सकता है या योग्य व्यक्ति आगे बढ़ सकता है लेकिन विश्वासपात्रवाद में योग्यता की कोई जगह नहीं होती। वहां सिर्फ विश्वासपात्र होना ही सबसे बड़ी योग्यता होती है। आज पूरा देश शासन की इस व्यवस्था का गवाह है, जिससे लोकतंत्र, संवैधानिक व्यवस्था और देश तीनों के लिए बड़ा खतरा है।
राजनीति से इतर अब इसके गंभीर और व्यापक असर वाले पहलू पर ध्यान देते हैं। क्रिस्टोफ जेफ्रेलो ने अपनी किताब ‘मोदीज इंडिया:हिंदू नेशनलिज्म एंड राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी’ में भारत के लोकतंत्र को तीन हिस्सों में बांटा है। पहला हिस्सा आजादी के तुरंत बाद शुरू होता है, जिसे उन्होंने ‘कन्वेंशनल डेमोक्रेसी’ यानी पारंपरिक लोकतंत्र कहा है। इसके बाद दूसरा दौर अस्सी के दशक के आखिर में शुरू होता है, जिसे उन्होंने ‘डेमोक्रेटाइजेशन ऑफ डेमोक्रेसी’ यानी लोकतंत्र का लोकतांत्रिकरण कहा है। तीसरा और आखिरी चरण नई सदी के दूसरे दशक में शुरू हुआ और अभी फल-फूल रहा है। उसे उन्होंने ‘एथनिक डेमोक्रेसी’ यानी नस्ली लोकतंत्र कहा। आज जिनको ‘परिवारवादी’ पार्टी कहा जा रहा है उनमें से ज्यादातर पार्टियां लोकतंत्र के दूसरे चरण यानी ‘डेमोक्रेटाइजेशन ऑफ डेमोक्रेसी’ के दौर की हैं। इन पार्टियों की वजह से लोकतंत्र का लोकतांत्रिकरण हुआ। जो लोकतंत्र ऊंची जातियों और धनपतियों के किले में कैद था, उसे उस चारदिवारी से इन पार्टियों ने आजादी दिलाई और आम लोगों तक पहुंचाया।
इन पार्टियों की वजह से गरीबों, पिछड़ों, दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ी। सदियों तक दबा कर रखे गए लोगों को बोलने और अपनी बात रखने की ताकत मिली। इन पार्टियों ने अभिजात्य लोकतंत्र का लौह द्वार तोड़ा और वहां हाशिए पर के लोगों को प्रवेश दिलाया। जब यह प्रक्रिया चल रही थी तब इन पार्टियों को जातिवादी कहा जाता था और आज ‘परिवारवादी’ कहा जाता है। भाजपा और कम्युनिस्ट दोनों पार्टियां परिवारवादी नहीं हैं, लेकिन इन पार्टियों ने हाशिए पर के समूहों की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित नहीं की। इनके मुकाबले कथित परिवारवादी पार्टियों ने ज्यादा बड़े समूह की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित की और इस तरह लोकतंत्र को मजबूत बनाया।
लोकतंत्र का यह कायाकल्प आसान नहीं था। इस कायाकल्प को पूरा करने में नई और कथित परिवारवादी पार्टियों से भी कुछ गलतियां हुईं। लेकिन याद रहे निर्माण की हर प्रक्रिया विध्वंसक होती है। नब्बे के दशक में जब सारी स्थापित मान्यताएं और ढांचे टूट रहे थे तब बहुत से लोगों के लिए यह सांस्कृतिक सदमे की तरह था। वह दौर आंधी-तूफान की तरह आया था और जब तूफान शांत हुआ तो भारत की राजनीति, शासन-व्यवस्था और लोकतंत्र सबका पुराना ढांचा बदल चुका था। दक्षिण भारत में राजनीति का यह ट्रांसफॉर्मेशन पहले हो हुआ था क्योंकि वहां बड़े पैमाने पर समाज सुधार के आंदोलन हुए थे। बाकी भारत में यह प्रक्रिया अस्सी के दशक के आखिर में शुरू हुई और अब जाकर पूरी हुई है। आज अगर कोई पिछड़ी जाति का व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है या देश के हर हिस्से में सहज रूप से पिछड़ी जाति का नेतृत्व स्वीकार्य है तो वह इन कथित परिवारवादी पार्टियों की वजह से संभव हो सका है। आज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से अलग अगर पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के सामाजिक समीकरण से चुनाव जीतने की बात हो रही है तो वह इन कथित परिवारवादी पार्टियों की वजह से संभव हुआ है। इन पार्टियों का उदय लोकतंत्र के उत्सव की तरह है। इन्हें गाली देने की बजाय इनके योगदान को स्वीकार कीजिए और इनका आभार मानिए।