November 21, 2024

एक सौ अरब डॉलर से ज्यादा का रिकार्ड कारोबार , क्या यही है क्वाड का प्यार


हिंद-प्रशांत के चार बड़े लोकतांत्रिक देशों के समूह क्वाड के नेता जापान में मिल रहे हैं। क्वाड के  नेताओं की यह पहली ‘इन-पर्सन’ मुलाकात है। पांच साल पहले इसके गठन के बाद से दो बार इसके नेताओं का वर्चुअल सम्मेलन हुआ है लेकिन पहली बार चारों नेता आमने-सामने मिल रहे हैं। क्वाड यानी ‘क्वाड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग’ या ‘क्वाड्रिलेटरल इनीशिएटिव’ का सुझाव देने वाले शिंजो आबे अब जापान के प्रधानमंत्री नहीं हैं। उनकी जगह प्रधानमंत्री बने फुमियो किशिदा पहले ‘इन-पर्सन’ क्वाड सम्मेलन की मेजबानी कर रहे हैं। आबे ने सबसे पहले 2016 में इस तरह के एक समूह के गठन का सुझाव दिया था। वे चीन की विस्तारवादी नीतियों और हिंद-प्रशांत का सैन्यकरण करने के उसके प्रयासों से चिंतित थे। उनके प्रयास का नतीजा था कि जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका ने 2017 में एक समूह बनाया।
क्वाड का गठन एक बड़ी वैश्विक परिघटना थी और इसने सारी दुनिया का ध्यान खींचा था। यह माना गया था कि चार बड़े लोकतांत्रिक देश मिल कर चीन के विस्तारवाद पर लगाम लगाएंगे, हिंद-प्रशांत को चीन के सैन्य अड्डे में बदलने से रोकेंगे और इसे एक सुरक्षित क्षेत्र के रूप में स्थापित करेंगे। क्वाड के कई घोषित मकसद में से मुख्य मकसद हिंद-प्रशांत को सुरक्षित क्षेत्र बनाना है। सवाल है कि क्या पिछले पांच साल में क्वाड अपने इस मकसद में कामयाब हुआ है? या कोई ऐसी ठोस पहल हुई है, जिससे लगे कि चारों देश इस दिशा में आगे बढ़े हैं? अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि औपचारिक वर्चुअल मुलाकातों और बातों के अलावा क्वाड अभी तक अपने किसी मकसद को नहीं हासिल कर पाया है। उलटे पिछले पांच साल के इसके कामकाज से चीन के विदेश मंत्री वांग यी की कही यह बात ज्यादा साकार हुई है कि यह ‘सुर्खियां बटोरने वाला आइडिया है और यह उसी तरह गायब हो जाएगा, जैसे हिंद या प्रशांत महासागर में उठने वाली झाग खत्म हो जाती है’।
वांग यी का बयान हो या चीन का आचरण हो, उससे प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं लगा कि वह क्वाड से परेशान है। हो सकता है कि अंदर अंदर उसे इसकी चिंता हो और वह इससे निपटने के उपाय भी कर रहा हो लेकिन ऐसा उसने जाहिर नहीं होने दिया। हिंद-प्रशांत के चार बड़े देशों की पहल के बावजूद उसका आश्वस्त होना सिर्फ इस कारण से है कि ये चारों देश कारोबार के लिए चीन पर निर्भर हैं। चीन के साथ भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका का कारोबार कितना बड़ा है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन चार देशों के साथ चीन का ट्रेड सरप्लस सालाना करीब सात सौ अरब डॉलर का है। यानी ये चार देश मिल कर चीन को जितना निर्यात करते हैं उससे सात सौ अरब डॉलर ज्यादा का आयात करते हैं। यह चीन की असली आर्थिक ताकत है, जिसके दम पर वह हिंद-प्रशांत में भी और दूसरे क्षेत्रों में भी अपना सैन्य विस्तार कर रहा है। इसमें अकेले अमेरिका के साथ उसका ट्रेड सरप्लस चार सौ अरब डॉलर का है। चीन के कुल ट्रेड सरप्लस में करीब 60 फीसदी हिस्सा अकेले अमेरिका का है। भारत के साथ भी उसकी सालाना कारोबार अधिकता बढ़ कर 80 अरब डॉलर हो गई है।
चीन की विस्तारवादी नीतियों का सबसे बड़ा और पहला शिकार भारत है। उसने मध्य एशिया के देशों से अपना सीमा विवाद निपटा लिया है और पूर्वी व दक्षिण पूर्वी एशिया में उसका विवाद ज्यादातर समुद्री सीमा को लेकर है। दक्षिण एशिया में भारत अकेला देश है, जिसकी सीमा चीन खा रहा है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले आठ साल में चुमार से लेकर डोकलाम और अब पूर्वी लद्दाख में चीन ने सीमा विवाद और सैन्य टकराव बढ़ाया है। इसके बावजूद चीन के ऊपर भारत कोई आर्थिक दबाव नहीं डाल पाया है। पूर्वी लद्दाख में दो साल से चल रहे सीमा विवाद और गलवान घाटी में हुईं हिंसक झड़प के बावजूद चीन के साथ भारत का कारोबार बढ़ता जा रहा है। अब तक के इतिहास में पहली बार भारत ने चीन के साथ एक सौ अरब डॉलर से ज्यादा का कारोबार किया है। सोचें, एक तरफ चीन का सैनिक विस्तारवाद है और उसे रोकने के लिए क्वाड पहल है तो दूसरी ओर चीन के साथ कारोबार का विस्तार है। जाहिर है भारत का नेतृत्व मुहंजबानी जो पहल करे लेकिन हकीकत में वह वास्तविक खतरे से मुंह मोड़े हुए है। जब तक भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका चारों देश चीन के ऊपर आर्थिक दबाव नहीं डालेंगे, तब तक उसके सैन्य विस्तार को रोकना नामुमकिन होगा।

कम से कम अभी तो इसकी संभावना नहीं दिख रही है कि अमेरिका या भारत कोई आर्थिक दबाव देंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तो चीन को राहत देनी ही शुरू कर दी है। चीन ने अमेरिका के साथ हुए कारोबार समझौते के पहले चरण की शर्तों को 2020 की तय समय सीमा तक पूरा नहीं किया, इसके बावजूद बाइडेन प्रशासन ने सख्ती नहीं दिखाई। उलटे चीन की बड़ी तकनीकी कंपनी हुआवे के संस्थापक की बेटी को फ्रॉड के आरोपों से मुक्त कर दिया। कोरोना की उत्पत्ति और उसके प्रसार में चीन की घोषित भूमिका होने के बावजूद अमेरिका ने उस पर दबाव नहीं बनाया। आने वाले दिनों में चीन के साथ अमेरिका के कारोबार में कमी आने की बजाय बढ़ोतरी हो तो हैरानी नहीं होगी क्योंकि अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि ने चीन से आयातित 352 वस्तुओं पर शुल्क से छूट फिर से बहाल कर दी है। पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इन वस्तुओं पर शुल्क लगाया था, जिसे बाइडेन प्रशासन ने खत्म कर दिया है। इसके अलावा बाइडेन प्रशासन चीन से आयातित असैन्य वस्तुओं पर शुल्क में और छूट देने की तैयारी कर रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि बाइडेन प्रशासन इस प्रयास में है कि रूस और यूक्रेन के बीच चल रही जंग में चीन किसी तरह से रूस से दूरी बनाए। चीन को रूस से दूर रखने के लिए अमेरिका उसके साथ कारोबार भी बढ़ा रहा है और उसे रियायत भी दे रहा है।
क्वाड का एक मकसद इस समूह के चार देशों के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ाने का भी था। लेकिन इसके उलट चीन के साथ ही कारोबार बढ़ रहा है। अमेरिका ने भारत और दूसरे देशों के साथ कारोबार बढ़ाने या अपने बाजार तक इन देशों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए कोई पहल नहीं की है। तभी क्वाड की सफलता पर संदेह किया जाने लगा है। अगर ये चारों देश मिल कर स्पष्ट और ठोस एजेंडा तय नहीं करते हैं और उस पर अमल नहीं करते हैं तो इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। चीन के सैन्य विस्तार को रोकना क्वाड के देशों की सदिच्छा है लेकिन यह सदिच्छा तभी पूरी होगी, जब ठोस आर्थिक व सामरिक पहल होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि टोक्यो में जब चारों देशों के नेता आमने-सामने बैठेंगे तो वे अपना आर्थिक व सामरिक सहयोग बढ़ाने के ठोस प्रस्ताव पर विचार करेंगे। साथ ही चीन के साथ कारोबार घटाने और उस पर आर्थिक दबाव बनाने की रणनीति पर भी चर्चा करेंगे।