हम करें तो सशक्तिकरण आप करें तो रेवड़ी!
मुफ्त की चीजें बांटने या ‘रेवड़ी कल्चर’ की बहस थम नहीं रही है। उलटे यह बढ़ती जा रही है। राजनीतिक दलों के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग भी इस बहस में शामिल हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों इस पर रोक लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का सुझाव दिया था, जिसमें सर्वोच्च अदालत का कहना था कि इसमें केंद्र सरकार के साथ साथ विपक्षी पार्टियों, चुनाव आयोग, नीति आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक और अन्य संस्थाओं के साथ साथ सभी हितधारकों को शामिल किया जाए। बाद में चुनाव आयोग ने एक हलफनामा देकर अपने को इससे अलग करने को कहा क्योंकि वह एक संवैधानिक निकाय है और वह पार्टियों व दूसरी सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं के साथ किसी समिति में नहीं रह सकती है।
असल में चुनाव आयोग इस बात से चिंतित है कि सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई और उसके मीडिया रिपोर्टिंग से यह धारणा बन रही है कि वह इस मामले को रोकने के लिए गंभीर नहीं है। परंतु सवाल है कि चुनाव आयोग गंभीर होकर भी क्या कर सकता है, जबकि इस बात की कोई परिभाषा ही तय नहीं है कि किस चीज को ‘मुफ्त की चीज बांटना’ या ‘रेवड़ी कल्चर’ कहेंगे? भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है इसलिए यहां नागरिकों के हितों की रक्षा करना और उनको बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकारों की जिम्मेदारी होती है। सो, सबसे पहले तो यह तय करना होगा कि बुनियादी सुविधाएं क्या हैं, जिन्हें उपलब्ध कराना है और मुफ्त की सुविधाएं क्या हैं, जिन्हें नहीं उपलब्ध कराना है। केंद्र सरकार के एक मंत्री ने कहा कि ‘सशक्तिकरण’ और ‘रेवड़ी कल्चर’ में बहुत बारीक फर्क है। उनके कहने का मतलब है कि केंद्र सरकार जो सुविधाएं दे रही है वह नागरिकों का ‘सशक्तिकरण’ करना है लेकिन विपक्ष जो सुविधाएं दे रहा है या देने की घोषणा कर रहा है वह ‘रेवड़ी कल्चर’ है।
यह सचमुच बहुत बारीक फर्क है और इसे राजनीति के नजरिए से देख कर परिभाषित करना हमेशा जोखिम भरा काम होगा। उसमें गलती की गुंजाइश रहेगी। मिसाल के तौर पर केंद्र सरकार देश के किसानों को हर महीने पांच सौ रुपए ‘सम्मान निधि’ देती है। इसे साल में तीन किश्तों में दो-दो हजार रुपए के हिसाब से दिया जाता है। यह किसानों को उनके सशक्तिकरण के लिए दिया जाता है। इसी तरह आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में हर वयस्क महिला को एक हजार रुपए महीना देने का वादा किया था, जिसे उनकी राज्य सरकार पूरा कर रही है। अब उन्होंने यहीं वादा गुजरात में किया है। अरविंद केजरीवाल यह काम महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कर रहे हैं। जिस तरह से किसान मुश्किल झेल रहे हैं और हाशिए में हैं वैसे ही महिलाएं भी तमाम बातों के बावजूद वंचित समूह में आती हैं। उनको अगर सशक्त बनाने के लिए नकद दिया जाता है तो वह किसानों को दिए जाने वाले सम्मान निधि से अलग नहीं हो सकता है। दोनों या तो सशक्तिकरण हैं या दोनों रेवड़ी कल्चर का हिस्सा हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि कई राज्य सरकारें एक सौ से लेकर तीन सौ यूनिट तक बिजली फ्री दे रही हैं, जिनकी वजह से बिजली आपूर्ति करने वाली कंपनियों से लेकर उत्पादन करने वाली कंपनियों और कोयला कंपनियों की स्थिति पर नकारात्मक असर हुआ है। उनके भुगतान में देरी हुई है और उनका कर्ज बढ़ा है। लेकिन यह सिर्फ इस वजह से नहीं है कि सरकारें लोगों को सस्ती या मुफ्त की बिजली दे रही हैं। यह सरकारों की कमी है कि वे बिजली कंपनियों के भुगतान में देरी कर रही हैं। सरकारें वंचित या आर्थिक रूप से कमजोर तबके को सस्ती या मुफ्त की बिजली दे रही है तो उसकी वसूली मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग से कर रही हैं। जिन घरों में बिजली का ज्यादा इस्तेमाल होता है वहां फिक्स्ड चार्ज से लेकर बिजली के चार्ज और टैक्स आदि बहुत ज्यादा होते हैं, जिनसे सरकार के खजाने में पैसा आता है। ऊपर से सरकारें इसके लिए सब्सिडी तय करती हैं। अगर वे समय पर भुगतान करें तो बिजली कंपनियों पर ज्यादा असर नहीं होगा।
भारत में आजादी के बाद से नि:शुल्क या सस्ती कीमत पर राशन उपलब्ध कराने की व्यवस्था रही है। पीने का साफ पानी नि:शुल्क उपलब्ध कराना सरकारों की जिम्मेदारी रही है। दशकों से सरकारें सस्ते आवास देती रही हैं। उसी में दिल्ली की सरकार ने सात-आठ साल पहले सस्ती या मुफ्त बिजली जोड़ दी। आजादी के बाद से ही केंद्र में चाहे जिसकी सरकार रही वह देश के नागरिकों का नि:शुल्क टीकाकरण कराती रही है। भारत चेचक से लेकर मलेरिया, हैजा या पोलियो जैसी बीमारियों से मुक्त हुआ है तो उसका कारण नि:शुल्क टीकाकरण है। लेकिन केंद्र की मौजूदा सरकार ने कोरोना की वैक्सीन नि:शुल्क लगवाई तो उसने मुफ्त में टीका लगवाने का ऐसा प्रचार किया, जिसकी मिसाल नहीं है। इसके लिए पूरे देश से धन्यवाद भी आमंत्रित किया गया, जैसे भाजपा के एक सांसद ने लोकसभा में कहा कि प्रधानमंत्री करोड़ों लोगों को ‘फ्री फंड’ में खाना दे रहे हैं तो उनका धन्यवाद दिया जाना चाहिए। सो, पिछले आठ साल में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद सम्मान निधि, फ्री फंड के खाने या फ्री फंड की वैक्सीन का ज्यादा प्रचार हुआ है। अब खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इसके खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ी है।
तभी जरूरी है कि संवैधानिक संस्थाओं को शामिल करने या न्यायपालिका से कोई फैसला कराने से पहले सरकार पहल करे और सभी पार्टियों को बुला कर इस पर विचार करे। इसकी एक सीमा तय करे कि देश के नागरिकों को क्या सुविधा देना सशक्तिकरण की श्रेणी में आएगा और किस चीज को फ्री फंड की चीज माना जाएगा। यह नहीं हो सकता है कि एक पार्टी की सरकारें नागरिकों को जो सुविधाएं दें उनको सशक्तिकरण माना जाए और दूसरी पार्टियों की सरकारों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं को रेवड़ी कल्चर कहा जाए। इसका फैसला और परिभाषा यह ध्यान में रख कर तय की जानी चाहिए कि निश्चित रूप से नागरिकों को नि:शुल्क सुविधाएं देने से सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता है लेकिन वह सरकारी खजाना भी नागरिकों की मेहनत की कमाई और उनके टैक्स से ही भरता है। अगर भारत एक अविकसित देश है और करोड़ों लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं तो उन्हें किसी भी तरह से वो सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी और यह सरकारों की जिम्मेदारी है।