November 21, 2024

भारत जोड़ो यात्रा :रास्ता यही और सही


किसी प्रयास को शुरुआत में ही अगर-मगर लगा कर खारिज करना उचित नजरिया नहीं है। मुद्दा यह है कि अगर भारत जनतंत्र है- या इसे जनतंत्र बने रहना है- तो क्या वह जन से बिना जुड़े कायम और जीवंत रह सकता है?
राहुल गांधी अपने साथी यात्रियों के साथ लंबी पद यात्रा पर निकल चुके हैं। इसका क्या हासिल होगा- इस बारे में अभी कुछ कहना बेमतलब होगा। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि जब कोई प्रयोग होता है, तो उसका परिणाम मालूम नहीं रहता। नाकाम प्रयोगों की संख्या कभी कम नहीं रहती। लेकिन उनके बीच से ही कोई आविष्कार भी होता है। इसलिए किसी प्रयास को शुरुआत में ही अगर-मगर लगा कर खारिज करना उचित नजरिया नहीं है। मुद्दा यह है कि अगर भारत जनतंत्र है- या इसे जनतंत्र बने रहना है- तो क्या वह जन से बिना जुड़े कायम और जीवंत रह सकता है? भारतीय राजनीति की समस्या ही यही रही है कि बीते चार-पांच दशकों से आरएसएस-भाजपा को छोड़ कर बाकी धाराओं के नेताओं ने जनता से खुद को काट लिया। एसी और सोफे की संस्कृति की राजनीति इतनी हावी हुई कि नेता सिर्फ ऊंचे मंच से ही जनता को देखते रहे। जनता क्या सोचती है, उसके मन में क्या है, ये बात राजनेताओं के लिए महत्त्व खोती चली गई। तो धीरे-धीरे आम जन की नजर में नेताओं और उनकी पार्टियों का महत्त्व भी घटता चला गया। इसीलिए राहुल गांधी का जनता के बीच लौटना महत्त्वपूर्ण है।
इसे उन्होंने उचित ही तपस्या कहा है। अब तपस्या उतनी ही सफल होती है, जितनी पवित्रता के साथ उसे निभाया जाता है। बहरहाल, पवित्रता भंग होने के बाद दोबारा उसे हासिल करने की गुंजाइश भी हमेशा बनी रहती है। असल बात इरादे की होती है। यह तो अवश्य स्वीकार किया जाएगा कि भारत जोड़ो यात्रा के साथ कांग्रेस और इससे जुड़े जन संगठनों ने एक इरादा दिखाया है। उन्होंने उस भारत को साकार करने इरादा जताया है, जिसकी अवधारणा स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जन्मी थी। अगर वे जनता की बात सुन पाए और उसके मुताबिक अपने आगे के कार्यक्रमों और नीतियों को ढाल पाए, तो ऐसा होना असंभव नहीं है। यह याद रखना चाहिए कि जनतांत्रिक विकल्प का उदय हमेशा जनता के बीच से ही होता। ये विकल्प कैसा होगा- या इसका उदय होगा भी या नहीं, ये सवाल अभी अहम नहीं है। अभी सिर्फ यह अहम है कि एक नई शुरुआत की गई है।