अयोग्यता कानून पर विचार की जरूरत
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा से अयोग्यता की घटना ने सांसदों, विधायकों को अयोग्य बनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले की फॉल्टलाइन्स को जाहिर किया है। इससे पहले एकाध अपवादों को छोड़ दें तो जिन सांसदों और विधायकों की सदस्यता इस कानून की वजह से गई है वे किसी न किसी गंभीर अपराध में दोषी ठहराए गए थे। लालू प्रसाद दशकों से चल रहे चारा घोटाले में दोषी ठहराए गए थे तो जयललिता आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी ठहराई गई थीं। लेकिन राहुल गांधी अपने भाषण के लिए दोषी ठहराए गए हैं और उनकी सदस्यता समाप्त की गई है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के विधायक रहे आजम खान की सदस्यता भी भाषण की वजह से गई थी। हालांकि फर्क यह था कि आजम खान के भाषण को हेट स्पीच कहा गया था, जबकि राहुल का भाषण एक जाति या समुदाय के लिए अपमानजनक माना गया। इस पूरे मामले से कुछ जरूरी सवाल उठे हैं, जिनका जवाब तलाशना लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है।
यह अच्छा है कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा आठ (तीन) को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, जिसमें किसी सांसद या विधायक को दो साल या उससे ज्यादा की सजा ऑटोमेटिक रूट से होती है। यानी दोषी करार दिए जाने और दो साल या उससे ज्यादा की सजा सुनाए जाते ही सदस्यता अपने आप समाप्त हो जाती है। राहुल गांधी के मामले में ऐसा ही हुआ है। लोकसभा सचिवालय ने सिर्फ औपचारिकता निभाई है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में इस कानून के कई पहलुओं में बदलाव की अपील की गई है। अयोग्यता के लिए अपराध की श्रेणी बनाने की वकालत की गई है। होना भी ऐसा ही चाहिए कि किसी गंभीर अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद ही सदस्यता समाप्त की जाए। चुनावी या राजनीतिक भाषण के आधार पर अगर अयोग्यता का फैसला होने लगे तो उससे लोकतंत्र के सामने बड़ा संकट पैदा होगा। उससे वाक और अभिव्यक्ति की आजादी का संवैधानिक प्रावधान भी प्रभावित होगा।
बहरहाल, राहुल गांधी की अयोग्यता से जो मुद्दे उठे हैं उनमें सिर्फ एक मुद्दे का जवाब सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर सुनवाई से निकलेगा। वह मुद्दा अपराध की श्रेणी का है। अदालत सभी पक्षों को सुन कर यह तय कर सकती है कि साधारण आरोपों या राजनीतिक मुकदमों में फैसले से सदस्यता प्रभावित नहीं होगी। सिर्फ गंभीर अपराध का दोषी ठहराए जाने पर ही सदस्यता समाप्त होगी। इसी से जुड़ा दूसरा और बड़ा मुद्दा मानहानि के मुकदमे का है। यह बहुत अस्पष्ट का मुद्दा है और इसका दायरा बहुत बड़ा है। राहुल के मामले में ही देखें तो उन्होंने कर्नाटक में भाषण दिया था और मुकदमा गुजरात में हुआ। अपने भाषण में उन्होंने कहा- एक छोटा सा सवाल है, इन सारे चोरों के नाम मोदी, मोदी, मोदी क्यों हैं, नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी, आप खोजेंगे तो और भी मिल जाएंगे। इस आधार पर गुजरात में भाजपा के एक विधायक पुरनेश मोदी ने राहुल पर मुकदमा किया, जबकि उन्होंने पुरनेश मोदी का नाम नहीं लिया था। आमतौर पर माना जाता है कि जिस व्यक्ति की मानहानि हुई है वही मुकदमा कर सकता है।
लेकिन अभी ऐसा हो रहा है कि कोई भी व्यक्ति, कहीं भी मुकदमा कर सकता है। किसी के भाषण से किसी की भावना आहत हो जा रही है और वह कहीं भी मुकदमा दर्ज करा दिया जा रहा है। फिर भाषण देने वाले को पूरे देश में भागते रहना पड़ता है। इस खतरे को देखते हुए अमेरिका सहित कई विकसित लोकतांत्रिक देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन आदि ने और दक्षिण एशिया में श्रीलंका जैसे देश ने भी मानहानि के मामले को आपराधिक मामले की श्रेणी से निकाल कर सिविल यानी दीवानी मुकदमे की श्रेणी में डाल दिया है। भारत में भी इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। भारत में इसकी ज्यादा जरूरत है क्योंकि इसके विस्तार और विविधता की वजह से एक हिस्से के लोग दूसरे हिस्से की संस्कृति और परंपराओं से अपरिचित होते
हैं और कई बार अनजाने में ऐसी टिप्पणी कर देते हैं, जिसे मानहानिकारक माना जाता है। कई बार राजनीतिक बदले की भावना से भी किसी की टिप्पणी को तोड़ मरोड़ कर उस पर मुकदमा किया जाता है। इसे दीवानी मामला बनाने से इस समस्या का समाधान हो जाएगा।
दूसरा मुद्दा कानून के अनुपालन का है। जिस तरह कानून के मुताबिक किसी भी सांसद को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होते ही स्वाभाविक रूप से उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है उसी तरह अगर ऊपरी अदालत सजा पर रोक लगा देती है और उसे निलंबित कर देती है तो स्वाभाविक रूप से सदस्यता बहाल हो जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अपने एक फैसले में इसे साफ किया है कि सजा पर रोक लगने बाद तुरंत सदस्यता बहाल होनी चाहिए। लेकिन लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैजल के मामले में ऐसा नहीं हुआ है। उनको हत्या के प्रयास का दोषी मान कर सजा सुनाई गई। सजा सुनाते ही लोकसभा ने उनकी सदस्यता रद्द कर दी और कुछ दिन के बाद चुनाव आयोग ने उनकी सीट खाली घोषित कर दी। बाद में हाई कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी और फिर सुप्रीम कोर्ट ने सीट खाली करने की चुनाव आयोग की घोषणा पर रोक लगा दी। इसके बावजूद अभी तक लोकसभा सचिवालय ने मोहम्मद फैजल की सदस्यता बहाल नहीं की।
सो, ऑटोमेटिक रूट से सदस्यता बहाल करने के नियम का अनुपालन भी अनिवार्य होना चाहिए। साथ ही यह भी तय होना चाहिए कि लोकसभा सचिवालय और चुनाव आयोग दोनों ऊपरी अदालत के फैसले का इंतजार करें। राहुल गांधी के मामले में निचली अदालत ने उनको सजा सुनाने के बाद जमानत दे दी और 30 दिन के लिए उनकी सजा निलंबित कर दी ताकि वे ऊपरी अदालत में अपील कर सकें। लोकसभा सचिवालय को कोई भी फैसला करने से पहले 30 दिन तक इंतजार करना चाहिए था। चुनाव आयोग को भी उपचुनाव की घोषणा की हड़बड़ी नहीं दिखानी चाहिए। इसी से जुड़ा यह मामला भी है कि लोकसभा या विधानसभा सचिवालय को तटस्थ और निरपेक्ष रहते हुए फैसला करना चाहिए। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे आजम खान को सजा होते ही उनको अयोग्य घोषित कर दिया गया और उनकी सीट खाली घोषित कर दी गई। लेकिन भाजपा के विधायक विक्रम सैनी को सजा होने के एक महीने बाद तक अयोग्य नहीं किया गया। उसके लिए दूसरी पार्टियों को मुहिम चलानी पड़ी तब विक्रम सैनी की सदस्यता समाप्त की गई। सो, ऐसे मामलों में संवैधानिक संस्थाओं का पूर्वाग्रहरहित होकर फैसला करना लोकतंत्र की जरूरी शर्त है।