सरकार किसी किस्म के समझौते के मूड में नहीं
लोकसभा चुनाव, 2024 के नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कम से कम दो बार कहा कि सरकार बहुमत से बनती है लेकिन सर्वमत से चलती है। उन्होंने संकेत दिया था कि उनकी तीसरी सरकार संसद के अंदर और बाहर भी आम सहमति के साथ काम करेगी। लेकिन पहले सत्र से ही ऐसा होता नहीं दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि सर्वमत की सिर्फ बातें हैं और असल में सरकार बहुमत से ही चलेगी। शुरुआती लक्षण सरकार के उसी अंदाज में काम करने के हैं, जिस अंदाज में पहले 10 साल नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर काम किया है। आगे होने वाले राज्यों के चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन खराब हो और तब पार्टी के अंदर और बाहर से दबाव बढ़े तो अलग बात है। लेकिन उससे पहले सरकार किसी किस्म के समझौते के मूड में नहीं है। सरकार का कामकाज पुराने अंदाज में ही होता लगता है।
ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी तरह से सरकार के या खुद के कमजोर होने का मैसेज नहीं बनने देना चाहते हैं। वे यह संदेश देना चाहते हैं कि वे पहले की तरह निर्णय करने वाले मजबूत नेता हैं और भले भाजपा की सीटें कुछ कम हो गई हैं लेकिन इससे वे कमजोर नहीं हुए हैं। उनको पता है कि अगर सरकार के या उनको कमजोर होने की धारणा बनी तो सहयोगी पार्टियों का दबाव बढ़ेगा, जिससे उनकी पसंद के फैसले करने होंगे। पार्टी के अंदर से आवाजें उठनी शुरू होंगी, जिससे निपटना आसान नहीं होगा और अगर एक बार विपक्ष के मुंह में खून लग गया तो हर मसले पर वह सरकार को झुकाने या आम सहमति बनाने के लिए बाध्य करेगी। तभी ‘बिल्ली पहली रात को मारी जाती है’ वाली कहावत के हिसाब से नरेंद्र मोदी ने तमाम विरोध और दबावों को पहले सत्र में ही दरकिनार कर दिया। उन्होंने बता दिया कि सरकार पुराने ढर्रे पर ही चलती रही है। हालांकि राज्यों के चुनाव नतीजों से इस स्थिति में बदलाव आ सकती है।
बहरहाल, स्पीकर के तौर पर ओम बिरला की वापसी इस बात का संकेत है कि संसद वैसे ही चलेगी, जैसे पहले चलती रही है। विपक्षी पार्टियों ने स्पीकर के पद पर बहुत राजनीति की। उन्होंने भाजपा की सहयोगी पार्टियों को उकसाने का भी काम किया। लेकिन चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी और नीतीश कुमार की जनता दल यू ने विपक्ष की ओर से फेंका गया चारा नहीं निगला। वे चुपचाप पड़े रहे और सरकार का समर्थन किया। विपक्ष ने यह दांव भी चला कि सरकार पंरपरा के मुताबिक डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को दे तभी स्पीकर पद पर आम सहमति बनेगी। यह बात खुद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने टेलीफोन पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से कही। लेकिन सरकार ने इसकी अनदेखी की और ओम बिरला को स्पीकर का उम्मीदवार बनाया। विपक्ष ने प्रतीकात्मक रूप से कोडिकुन्निल सुरेश को उम्मीदवार बनाया लेकिन चुनाव के दौरान मत विभाजन की मांग नहीं की। पिछली लोकसभा में सांसदों को निलंबित करने का रिकॉर्ड बनाने वाले ओम बिरला से स्पीकर बन गए हैं और डिप्टी स्पीकर का पद पहले की तरह खाली रखा गया है। विपक्ष को डिप्टी स्पीकर का पद मिलने की संभावना नहीं दिख रही है।
इसी तरह दूसरा फैसला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सीबीआई द्वारा गिरफ्तारी है। संसद के सत्र के दौरान हुई गिरफ्तारी इस बात का संकेत है कि विपक्ष के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई में कोई ढील नहीं दी जाने वाली है। गौरतलब है कि केजरीवाल को दिल्ली की शराब नीति से जुड़े घोटाले में ईडी ने मार्च में गिरफ्तार किया था। उसके बाद 21 दिन की अंतरिम जमानत अवधि को छोड़ कर बाकी समय वे जेल में रहे। अप्रैल के पहले हफ्ते में ईडी की रिमांड खत्म होने के बाद ही कहा जा रहा था कि सीबीआई उनको हिरासत में लेगी। लेकिन सीबीआई ने उनको हिरासत में नहीं लिया।
जब निचली अदालत से उनको जमानत मिली और ऐसा लगा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट से भी उनको जमानत मिल सकती है तब सीबीआई ने उनको गिरफ्तार करके रिमांड पर ले लिया। जाहिर है इसका मतलब उनको लंबे समय तक जेल में रखना है। सोचें, सरकार को पता है कि संसद का सत्र चल रहा है और विपक्ष बहुत मजबूत है फिर भी एक विपक्षी नेता और एक राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई हुई है। इस एक कार्रवाई से आगे का रोडमैप दिखने लगा है। असल में भाजपा को अपने उस वोट बैंक की चिंता करनी है, जो विपक्षी पार्टियों को भ्रष्ट मानता है और कार्रवाई से खुश होता है। इसलिए संभव है कि आने वाले दिनों में दूसरे विपक्षी नेताओं के खिलाफ भी कार्रवाई जारी रहे। प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार में इसका वादा भी किया था।
इन दो फैसलों के अलावा एक चुप्पी भी बताती है कि सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है। ध्यान रहे नरेंद्र मोदी के 10 साल के राज की खास बात यह रही है कि जब भी कोई बड़ा घटनाक्रम होता है तो प्रधानमंत्री चुप हो जाते हैं। वे उस पर बयान नहीं देते हैं। विपक्ष उनके बोलने की मांग करता रहा है और वे चुप्पी ओढ़े रहते हैं। बाद में कभी अपनी सुविधा के हिसाब से उस पर बयान देते हैं। जैसे मणिपुर 14 महीने से जातीय हिंसा की चपेट में है। मई 2023 में हिंसा शुरू होने करीब दो महीने बाद संसद के मॉनसून सत्र से पहले प्रधानमंत्री ने संसद परिसर में इस पर बयान दिया था। उसके बाद फिर उन्होंने चुप्पी साध ली। इसी तरह की चुप्पी उन्होंने मेडिकल दाखिले के लिए हुई नीट की परीक्षा और अन्य प्रतियोगिता व प्रवेश परीक्षाओं के पेपर लीक पर साधी हुई है।
नेशनल टेस्टिंग एजेंसी की अनेक गड़बडिय़ां सामने आई हैं और कई परीक्षाएं रद्द हुई हैं। लेकिन प्रधानमंत्री ने इस पर कोई बयान नहीं दिया। सो, फैसले भी पुराने एकतरफा अंदाज में हैं। चुप्पी भी पहले जैसी चुनिंदा है। ट्रेन एक्सीडेंट और उस पर किसी की जिम्मेदारी तय नहीं होना, उलटे रेल मंत्री का मोटरसाइकिल पर बैठ कर रील बनवाना भी पहले जैसा ही चल रहा है। विपक्ष भले कहता रहे कि प्रधानमंत्री की नैतिक हार हुई है लेकिन भाजपा के नेता 240 सीटों को ऐतिहासिक जीत बता रहे हैं और सहयोगी पार्टियां चुपचाप सरकार के हर फैसले में शामिल हैं। सो, कम से कम अभी सरकार कोई समझौता करती या किसी दबाव में आती नहीं दिख रही है।