September 8, 2024

कुमाउनी भाषा का सर्वमान्य मानक स्वरूप तय हो

रतन सिंह किरमोलिया

हमारी हिंदी भाषा साहित्य के विकास एवं उन्नयन में हमारी लोक भाषाओं का बड़ा योगदान है। लोकभाषाओं के अधिकांश शब्दों को हिंदी भाषा ने आत्मसात कर ग्रहण किया है।
इन सबकी जननी आदि भाषा संस्कृत को माना गया है। हमारी लोकभाषाओं में संस्कृत के शब्दों का पाया जाना और उनका प्रयोग इस बात को तसदीक करता है।
यदि हम कुमाउनी लोक भाषा के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी के इतिहास से पुराना है। तत्कालीन शिलालेख भी इस बात को प्रमाणित करते हैं।
तत्कालीन शिलालेखों एवं लिखित साहित्य को देखा जाए तो आज कुमाउनी के मानक स्वरूप तय करने की जो चर्चा चल रही है उसकी चिंता करने की जरूरत ही नहीं रह जाती है। क्यों कि करीब करीब सन् 1815 के आसपास से इसका लिखित रूप मिलता है। इससे पूर्व दसवीं – ग्यारहवीं सदी में प्राप्त शिलालेख भी इसके मानक स्वरूप को इंगित करते हैं।
आज कुमाउनी भाषा के मानक स्वरूप तय करने में जो मतभेद उभर कर सामने आ रहे हैं। उसका बड़ा कारण मेरी समझ से हमारे अग्रज पीढ़ी के कवि, लेखक और साहित्यकारों का ध्यान इस ओर न जाना रहा है। उनका ध्यान मुख्यतया निरंतर इसके साहित्य भंडार की श्रीवृद्धि करने की ओर अधिक रहा। उनके इस कार्य से एक विशेष बात यह हुई कि हमारी कुमाउनी का परिष्कृत एवं परिनिष्ठित रूप आज हमारे समक्ष दिखाई दे रहा है।
अब इन बातों को ध्यान में रखते हुए कुमाउनी भाषा का मानक स्वरूप तय समझना चाहिए था। मगर विभिन्न क्षेत्रों की करीब नौ उपबोलियों के विशिष्ट शब्दों के अर्थ भेद को लेकर शंकाएं वाजिब लगती हैं। परंतु मिल-बैठकर कर इसका समाधान निकालना ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। दूसरी बात यह है कि विभिन्न क्षेत्रों की उपबोलियों के सरल सहज एवं सर्वग्राह्य शब्दों को सभी रचनाकार धीरे धीरे अपने लेखन में प्रयोग करना शुरू करने का प्रयास करें। इस पर समय-समय पर कार्यशालाएं आयोजित की जाएं तो कहीं कोई शंका या विवाद की स्थिति पैदा नहीं होगी। इसके लिए सभी साहित्यकारों, लेखकों, भाषाविदों, भाषा वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं को समय-समय पर कार्यशालाओं का आयोजन कर विचार विमर्श करते रहना चाहिए।