November 21, 2024

जात-मुक्त समाजकी दरकार

सभी को समानता का अधिकार है लेकिन कुछ लोगों को बराबरी के इस हक में भी तरजीह दी जाती है क्योंकि जाति विशेष के कारण उनके नाम का डंका बजता है। परंतु अदालती मामलों में अब ऐसा नहीं चलेगा। पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने ताजा आदेशों में फौजदारी मामलों की प्राथमिकी में अभियुक्त की जाति का जिक्र करने की सत मनाही की है। तर्क है कि ऐसे विवरणों से न केवल न्याय ही प्रभावित होता है बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के उस मूल हक का भी उल्लंघन होता है, जिसमें हर किसी को समानपूर्वक व स्वाभिमान से जीने का हक दिया गया है। फिर इससे जांच प्रक्रिया भी तो प्रभावित होती है क्योंकि ऐसे मामलों में जांच अफसरों का रवैया भी अपनी जाति के लोगों के प्रति पक्षपातपूर्ण हो सकता है। अदालत ने कहा है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी हम 1934 में दर्ज एफआईआर के संदर्भ में ब्रिटिशकाल के उस फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं, जिसमें शिकायतकर्ता ने अभियुक्त की जाति विशेष के जिक्र को लाजिमी बताया था। अदालत का मानना है कि अतीत की बुरी प्रथाओं से चिपके रहना अनुचित है। इसीलिए भारत को इन औपनिवेशिक रिवायतों को अब और ढोने से गुरेज़ करना चाहिए।
दो साल पूर्व एक वकील ने कानून में औपनिवेशिक प्रथाओं को अदालत में चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि पंजाब पुलिस के प्राथमिकी फार्म से ‘जाति कॉलमÓ को हटाया जाये। अदालत ने यह भी कहा कि इस जाति प्रथा के खिलाफ 300 साल पूर्व सिख गुरुओं ने भी हुक्मनामे जारी किए थे। हालांकि पंजाब, हरियाणा और केंद्र शासित चंडीगढ़ पुलिस रिकार्ड व एफआईआर फार्म से इस कॉलम को हटाने हेतु रजामंद थे लेकिन कागजी कार्रवाइयों में यह प्रथा जारी थी। इसीलिए पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने राय के अधिवक्ता को ये निर्देश जारी किए कि वे फौजदारी केसों की प्राथमिकी में जाति शब्द हटाने को यकीनी बनाएं। मूल मानवाधिकारों पर फैसला देकर अदालत ने फर्ज तो अदा कर दिया है। अब गेंद सरकार के पाले में है कि इस पर अमल कितनी जल्दी होता है।