मतदाताओं के साथ खिलवाड़ करते ये घोषणापत्र
आजकल देश में जैसे-जैसे मतदान की तिथि नजदीक आती जा रही है, चुनावी प्रचार तेजी पकड़ता जा रहा है। राजनीतिक दल लोकलुभावन नारों, वादों और सब्जबागों से भरे चुनावी पिटारे रूपी अपने चुनावी घोषणा पत्रों का ऐलान कर रहे हैं। चुनाव आयोग स्पष्ट कर चुका है कि राजनीतिक दल चुनाव में मुत उपहार और वस्तुएं देने का वादा नहीं कर पायेंगे। साथ ही उनको यह विस्तार से बताना पड़ेगा कि जो वादे उन्होंने किए हैं, उनको वह कैसे पूरा करेंगे।
दरअसल चुनाव आयोग ने साल 2015 में ही चुनाव से पूर्व जारी होने वाले राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों को आदर्श चुनाव आचार संहिता के दायरे में ले लिया था। उस समय चुनाव आयोग ने निर्देश जारी किया था कि वह अपने चुनावी घोषणा पत्रों की प्रति चुनाव आयोग को आवश्यक रूप से भेजें। यह भी कि मतदाताओं का विश्वास उन्हीं वादों पर हासिल किया जाना चाहिए, जिन्हें पूरा किया जाना संभव हो। राजनीतिक दलों के जो भी वादे हों, वह संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध न हों और आचार संहिता के प्रावधानों के अनुरूप हों। सुप्रीमकोर्ट ने घोषणा पत्रों को अपवाद के रूप में आचार संहिता के दायरे में लाने का निर्देश दिया था। कोर्ट का मानना था कि घोषणा पत्र चुनाव से पहले जारी किये जाते हैं, जिससे ये आचार संहिता के दायरे में नहीं आते।
लेकिन इनमें किये वादे चुनाव के मैदान का संतुलन बिगाड़ते हैं, जिसके चलते ही कोर्ट ने आयोग को इस बारे में राजनीतिक दलों के लिए दिशानिर्देश बनाने का आदेश दिया था। इसके बाद ही आयोग ने राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर विस्तृत दिशानिर्देश तैयार किये। यह बात दीगर है कि कुछ राजनीतिक दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया था। भाजपा नेता मुतार अब्बास नकवी का कहना था कि घोषणा पत्र पार्टी का वोटरों से किया गया वादा होता है। इसमें आयोग का दखल नहीं होना चाहिए। जबकि कांग्रेस के शकील अहमद का कहना था कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।
आज देश के राजनीतिक दल अपने हिसाब से चुनावी वादे करने में मशगूल हैं। पर्यावरण, प्रदूषण आदि मुद्दों पर तो वह कतई गंभीर हैं ही नहीं। डब्ल्यूएचओ ने बीते साल देश के जिन 14 शहरों को विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल किया था, उनमें अभी हाल तक कोई सुधार नहीं हुआ है। क्लाइमेट ट्रेंड की हालिया रिपोर्ट में इस स्थिति के लिए सरकारों के साथ जनप्रतिनिधियों को जिमेदार माना है। अभी तक उन शहरों में प्रदूषण निगरानी केन्द्र तक नहीं खुले हैं।
दलों द्वारा क्षेत्र में जातियों के बाहुल्य के मद्देनजर जातियों का गठजोड-गठबंधऩ और उसी के हिसाब से उमीदवारों का चयन इसका जीता-जागता सबूत है। सबसे बड़ी विडबना यह है कि इस दौरान न तो गरीबी हटी, न बेरोजगारी ही खत्म हुई, न भुखमरी का खात्मा हुआ, न असमानता मिटी, न समुचित चिकित्सा के अभाव में बेमौत मरने वालों की तादाद में ही कोई कमी आई, न कुपोषण की समस्या का खात्मा हुआ। आज हालत यह है देश में कुपोषण के चलते कमजोर बचों की तादाद 34.70 फीसदी है। इसके अलावा न अन्नदाता किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं पर ही अंकुश लगा।
लोकसभा की 543 सीटों में से यदि शहरी इलाकों की 57 सीटें छोड़ दें तो 342 सीटें ऐसी हैं जो ग्रामीण इलाकों से आती हैं जहां के किसान ही राजनीतिक दलों की किस्मत का फैसला करते हैं। असलियत यह है कि बीते सालों में खाद्यान्न की कीमतों में भारी कमी के चलते किसानों की कमाई में काफी कमी आई है। साथ ही कर्ज का बढ़ता बोझ और किसान समान निधि की नाकामी उनकी बदहाली का अहम कारण है। जबकि दावा किया गया था कि इस योजना से 86 फीसदी किसान परिवारों को लाभ मिलेगा।
जब चुनाव की बात आती है, सबसे पहले गरीबी के मुद्दे की चर्चा होने लगती है। असल में गरीबी वह अहम कारण है, जिसके कारण नागरिकों के गुलामी में पडऩे की आशंका बढ़ जाती है। जाहिर है गरीबी हटाने के वायदे तो किये जाते रहे लेकिन उसे मिटाने की दिशा में गंभीरता से कभी अमल नहीं किया गया।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का मानना है कि देश का यह चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव है। इसका कुल खर्च 500 अरब के आंकड़े तक को पार कर जायेगा। जिस देश के आम आदमी के लिए रोजाना खर्च के लिए 250 रुपये तक मयस्सर नहीं होते, वहां प्रति मतदाता पर होने वाला खर्च 560 रुपये के करीब पहुंच जाये, यह विचार का विषय है। जाहिर है चुनावी खर्च में मितव्ययिता किये जाने की दिशा में चुनाव आयोग भी गंभीर नहीं दिखाई देता। बहरहाल 23 मई को रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने आ जायेगा कि किसके कितने वादों पर देश की जनता ने मुहर लगायी है और चुनाव आयोग के निर्देशों का किस दल या प्रत्याशी ने कितना पालन किया है।
अपने को बार 2 ठगे जाने पर देश की जनता का अब तो ये मानना है कि सभी घोषणा पत्र को एक कानूनी जामा पहना कर मतदाताओं को अब आस्वस्त करने का समय आ गया है।