कैसे लगे सोशल मीडिया की अफवाहों पर नकेल
( आखरीआंख )
इंटरनेट तक सहज पहुंच व मोबाइल क्रांति के बाद सोशल मीडिया में फर्जी खबरों के उफान ने पूरी दुनिया को परेशान किया है। लचर कानून और सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों की मनमानी ने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। विडंबना यह है कि सोशल मीडिया में संपादक नामक संस्था के न होने से एक किस्म की अराजकता डिजिटल मीडिया की दुनिया में आ गई। इस पर अंकुश?लगाने की कोशिश पूरी दुनिया में हो रही है। अब सिंगापुर की संसद ने फर्जी खबरों को रोकने का कानून पास कर इसे अपराध की श्रेणी में ला दिया है। यदि कोई व्यक्ति फर्जी खबरों के लिये दोषी पाया जाता है तो कंपनी पर एक मिलियन डॉलर का जुर्माना और दोषी व्यक्ति को दस साल तक की सजा हो सकती है। बुधवार को सिंगापुर की संसद में पारित कानून में कानून मंत्री को अधिकार होगा कि वह सोशल मीडिया साइटों पर झूठी पोस्टों के बाबत चेतावनी दे सकें। यदि झूठी पोस्ट सिंगापुर के हितों का अतिक्रमण करती पायी गई तो सरकार कंपनी के विरुद्ध कार्रवाई करेगी। सिंगापुर की संसद में बहुमत से पारित ‘ऑनलाइन फाल्सहुड एंड मैनीपुलेशन बिलÓ को विपक्षी दल व मानवाधिकार कार्यकर्ता अभिव्यक्ति का गला घोंटने का प्रयास बता रहे हैं। उनका मानना है कि यह कानून विचारों के स्वतंत्र प्रवाह में बाधक बनेगा। कानून के अनुसार ऑनलाइन मीडिया कंपनी को सरकार के अनुसार बतायी गई गलत सूचना को सुधारने व हटाने का मौका दिया जायेगा। वैसे तो मलेशिया दुनिया में ऐसा पहला देश था जहां फर्जी खबरों को रोकने के लिये कानून बनाया गया। लेकिन अगस्त 2018 में महातिर मोहमद की सरकार बनने के बाद कानून वापस ले लिया गया। गाहे-बगाहे कई देशों में इस तरह के कानून बनाने की मांग उठ रही है। दरअसल, इस समस्या से यूरोपीय देश भी खासे परेशान हैं।
जुलाई 2017 में जर्मन सरकार नफरत फैलाने वाली पोस्टों पर रोक लगाने के लिये एक सत कानून लेकर आई?थी, जिसमें भारी जुर्माने का प्रावधान भी?था। जिसमें उल्लेख था कि यदि गैरकानूनी सामग्री समय रहते नहीं हटायी जाती तो सोशल मीडिया कंपनियों पर पांच करोड़ यूरो तक जुर्माना लगाया जा सकता था। इसके अंतर्गत फेसबुक, यूट्यूब व अन्य वेबसाइटों को 24 घंटे के भीतर अपने प्लेटफॉर्म से आपत्तिजनक सामग्री हटाना अनिवार्य बनाने का प्रावधान शामिल किया गया। ऐसी पोस्टों का कंपनियों को एक सप्ताह के भीतर मूल्यांकन करना होगा। यह अपनी तरह का दुनिया का सबसे कड़ा क़ानून है। कानून के क्रियान्वयन में विफल रहने पर कंपनी पर पचास लाख यूरो का जुर्माना लगेगा, जिसे पांच करोड़ यूरो तक बढ़ाया जा सकता है। हालांकि लंबे विमर्श?के बाद जर्मन संसद द्वारा पारित कानून को लेकर मानवाधिकार संगठन इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने का प्रयास बताते रहे हैं। दरअसल, यह आम धारणा है कि अपने आर्थिक हितों के संरक्षण को प्राथमिकता देने वाले सोशल मीडिया ऑपरेटर बिना राजनीतिक दबाव के कोई कदम नहीं उठाते। भारत भी इसी तरह की समस्या से दो-चार है। यहां भी गैर कानूनी और समाज में विद्वेष फैलाने वाली पोस्ट हटाने में सर्विस ऑपरेटर समय रहते कार्रवाई नहीं करते। जब कोर्ट का दबाव होता है, तभी वे सक्रियता दिखाते हैं। देश में एक समस्या यह भी है कि इस तरह की गैरकानूनी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिये अलग से कोई सत कानून नहीं है। विडंबना यही है कि देश का कानून फेक न्यूज शब्द को परिभाषित ही नहीं करता। सोशल मीडिया पर फर्जी खबरें पोस्ट करने पर इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी यानी आई. टी. एक्ट के तहत ही कार्रवाई होती है। इसके अलावा गलत पहचान से पोस्ट डालने पर धोखाधड़ी का कानून लागू होता है। कुल मिलाकर सोशल मीडिया पर फेक न्यूज पर नकेल डालने के लिये कोई कारगर कानून है ही नहीं। यदि कोई कार्रवाई होती भी है तो राजनीतिक दबाव के चलते?ही।