शोधपरक दृष्टि पैदा करने वाली हो शिक्षा
आखरीआंख
अपने सांस्कृतिक मूल्यों की सही पहचान उचित शिक्षा के रास्ते से गुजरे बिना नहीं हो सकती। अपने देश में दिक्कत यह है कि देश को आजाद हुए लगभग पौन सदी बीतने को आयी लेकिन हम अभी तक यह फैसला नहीं कर सके कि देश की संस्कृति, सयता और इतिहास की पूर्ण पहचान के लिए हमारे शिक्षण संस्थानों को किस तरह की विद्या प्रणाली का अनुसरण करना चाहिए ऊहापोह जारी है।
एक लबे इंतजार के बाद मोदी शासन की दूसरी पारी में अभी नयी शिक्षा नीति सामने आयी है। यह भी कोई निश्चित राह नहीं सुझाती। कुछ टुकड़ा-टुकड़ा सुझाव मिले हैं और एक इछा कि अपनी सांस्कृतिक विरासत को समेट कर एक वैज्ञानिक दृष्टि का विकास करने वाली शिक्षा प्रणाली बनायी जाये। लेकिन अभी इसमें विचार-विमर्श की बहुत गुंजाइश है।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति और शिक्षा शास्त्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को यह शिकायत थी कि देश की नयी पीढ़ी जिस शिक्षा पद्धति से दीक्षित हो रही है, उसमें शोध और मौलिक सोच के द्वार खोलने की इछा नहीं। उन्हें यह लगता था कि नयी पीढ़ी विज्ञान, गणित और शोध की परिश्रमी राह पर चल ज्ञान के किसी नये संसार से परिचित होने के लिए व्यग्र नहीं। इनका झुकाव कला संकायों के सुगम विषयों की ओर रहता है। इससे अधिक से अधिक औसत योग्यता वाले नौजवान सामने आते हैं। अपने विषयों में नयी जमीन तोडऩे वाले अन्वेषी पैदा नहीं हो पाते। ये सांस्कृतिक प्रकाश के क्षरण को पुनर्जीवन नहीं दे पाते। वे शोधवृत्ति का प्रतिफल लौटाने में असमर्थ रहते हैं, जिसने कभी भारत को ‘शून्यÓ जैसा उपहार दिया था। क्या कारण है कि आर्यभट्ट जैसे विद्वानों द्वारा रचा हुआ शोध संसार इस पौन सदी में हमें पुन: दिखाई नहीं दिया
प्रकाश में आयी नयी शिक्षा नीति में भी एक संश्लिष्ट विचारधारा का अभाव दिखायी दिया है। अब सरकार की ओर से एक सूचना आयी है कि शिक्षा जगत में विद्या ढांचे को बदलने का निर्णय लिया जा रहा है। इस समय जो नया फैसला होने जा रहा है, उसमें स्नातक शिक्षण को तीन की जगह चार साल का बना दिया जाएगा। इसे पूरा करके शिक्षार्थी सीधे शोध शुरू कर सकेंगे। डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त कर लेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि स्नातकोत्तर डिग्री पास करने की अलग से आवश्यकता अब नहीं रहेगी। अगर कोई शोध के रास्ते पर कदम बढ़ाने के स्थान पर स्नातकोत्तर डिग्री से ही संतोष करना चाहे तो इसके लिए उसे आजादी रहेगी।
इससे पहले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और शिक्षा आयोग का नियमन स्नातकोत्तर डिग्री के साथ एम.फिल और उसके बाद पीएचडी से शोध के ढांचे के अनुसरण का था। अब शुरू से ही ऐसे शिक्षा प्रवाह बनाए जा रहे हैं कि हायर सैकेंडरी के बाद अलग-अलग विषयों यथा कानून, अर्थशास्त्र, प्रबंधन और तकनीकी ज्ञान के लिए पांच-पांच वर्ष के विद्या प्रवाह बनाये जायें। यूं पहले दिन से छात्रों को अपने चयनित विषय में विशिष्ट शिक्षण दिया जा सकेगा। पांच वर्ष के बाद ये छात्र अपने विषय के विद्वान बनकर निकलेंगे। देश शोध, आविष्कार और मौलिक चिन्तन के पथ पर बुरी तरह से पिछड़ गया है। अब सरकार ने स्नातक की तीन वर्ष और स्नातकोत्तर डिग्री के दो वर्ष के स्थान पर कुल चार वर्षों का एक ऐसा संश्लिष्ट कोर्स बनाने का विचार बनाया है, जिसमें पात्र को मूल ज्ञान के साथ शोध अनुशासन की परपराओं की पूरी पहचान हो जाये। इसके बाद शोधार्थी सीधे शोध की राह पर निकल कर पीएचडी कर सकता है। जो विद्यार्थी अध्यवसाय की यह मौलिक राह नहीं पकडऩा चाहते, वे स्नातकोत्तर डिग्री के साथ इस चार वर्षीय शिक्षण से अधिक चमकदार डिग्री प्राप्त करके जिंदगी के बाजार में प्रस्तुत हो सकेंगे।
निश्चय ही यह शिक्षा विशारदों की उस बहुत बड़ी शिकायत का जवाब है कि डेढ़ सदी गुजर गयी, हम लार्ड मैकाले द्वारा बनाये गये शिक्षा पद्धति के ढांचे से मुक्त होकर शोध और गंभीर चिंतन की मौलिक राहों के अन्वेषी बनने के लिए तैयार नहीं। बेशक आठवें दशक में राजीव गांधी युग में मूलभूत शिक्षण के लक्ष्य से नई रोजगारोन्मुख शिक्षण नीति को प्रस्तुत किया गया था। इसके पैंतीस वर्ष बाद अब एक नयी शिक्षण नीति का प्रारूप मोदी सरकार ने पेश किया है। अभी शिक्षा शास्त्रियों को ही नहीं, विद्यार्थियों को भी यह शिकायत है कि लार्ड मैकाले द्वारा बना शिक्षण का ढांचा तीन घंटे की परीक्षा में मूल्यांकन और प्रश्नपत्रों में मामूली रद्दोबदल अर्थात प्रस्ताव उत्तरों के स्थान पर बहुचयन उत्तर प्रणाली को अपनाने के सिवा कोई और परिवर्तन नजर नहीं ला सका।
इसी कारण आज छात्रों में अपने विषयों की गहराई में उतरने की कोई रुचि दिखायी नहीं देती। शिक्षा क्षेत्र में शोध के साथ नये सत्यों के अन्वेषण के स्थान पर सफेद कॉलर वाले बाबू पैदा करने की प्रवृत्ति खत्म होती नजर नहीं आती। इस शिक्षा ने देशभर में एक शार्टकट संस्कृति पैदा कर दी है, इसमें महंगे कॉलेजों से डिग्रियां बटोरने की दौड़ लगी है। उचित शोध के अभाव में पिछले बरसों में अतीत गौरव के नाम पर संस्कृति और सयता की पूर्ण पहचान और अधूरे इतिहास के पुनर्लेखन का प्रयास किसी वैज्ञानिक और शोधपरक आधार के बिना हो रहा है। इसी कारण जो निष्कर्ष सामने आये हैं, वह या तो अतिरेक ग्रस्त, या अतीत गरिमा का प्रशस्ति गायन कर रहे हैं। लकीर से हटे तो पश्चिमी शोध और अनुसंधान का अन्धानुकरण होने लगा।
जबकि अब भारत की शिक्षा पद्धति की नयी राह पकडऩे का दावा किया जा रहा है, उसके विद्यार्थी आज भी बने बनाये टोटकों, हैल्पबुक, गाइडों और गूगल की पकी-पकायी खीर से परे हटना नहीं चाहते। जरूरत है एक ऐसे शोधपरक चिन्तन की राह पर चलने की दृष्टि विद्यार्थियों में पैदा करने की, जिसका लक्ष्य मौलिक और प्रामाणिक सत्य तलाशने का उत्साह विद्यार्थी में पैदा करना हो।
यह वक्त नयी पीढ़ी की प्राथमिकताओं का रुख मोड़कर, उन्हें डिग्री और प्लेसमैंट की अन्धी दौड़ से हटा अपने लिए अपनी राह बनाने की क्षमता पैदा करने का है। अभी तक हमारे गरिमापूर्ण इितहास लिखने के जो प्रयास हुए हैं, वे किसी प्रामाणिक प्रशिक्षण के अभाव में मनभावन काल्पनिक आयानों को पेश करते नजर आ रहे हैं। इनमें वैज्ञानिक, परमाणु शोध और आन्तरिक उपलब्धियों का बखान बिना वैज्ञानिक और शास्त्र समत शोध के भारत को विश्व गुरु और हर आविष्कार का पुरोधा घोषित करने का रहा है। नयी शिक्षा प्रणाली शोधपरक दृष्टि से बनायी जा रही है। इसे नयी पीढ़ी को अपनी जमीन स्वयं तलाशने की प्रेरणा देनी है। अध्यापक और शिक्षण तलाशने वाले अगर एक सुविधापरस्त अंदाज को छोड़ आगे बढ़ें तभी नव सांस्कृतिक चेतना की यह पीढ़ी तैयार हो सकेगी।