बिगड़ते पर्यावरण पर हो गहन चिन्तन
आखरीआंख
ऑस्ट्रेलिया के जंगलों और इससे पहले अमेजन के वर्षा वनों में में भयावह आग की घटना ने हर किसी को चिंता में डाल दिया है।
जलवायु परिवर्तन की गंभीर होती चुनौतियों के बीच दुनियाभर के तमाम जंगलों में आग लगने की घटनाएं भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं। ऐसी घटनाओं से न केवल आदिवासियों की आजीविका पर संकट आता है बल्कि पारिस्थितिकी के लिए भी हालात बेहद दुरूह बनते हैं। 2019 के पहले आठ महीनों में दुनिया भर में जंगलों की आग के 1.6 करोड़ मामले सामने आए। इसमें हिमालय के जंगलों की आग भी शामिल है और अफ्रीका और अमेजन के वनों की राख भी। मगर बड़ा सवाल यही कि क्या हम ऐसी घटनाओं से लडऩे में सबल हो सके हैं
देखा जाए तो आग से वनों को बचाने की व्यवस्था पूरे देश में बहुत नाजुक स्थिति में है।
सन 2000 से लेकर अब तक भारत के पर्वतीय राय उत्तराखंड में 44,554 हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं। आकार के हिसाब से देखा जाए तो फुटबॉल के 61,000 मैदान। और इससे जान-माल के अलावा बहुमूल्य जड़ी-बूटियों, पर्यावरण, उपजाऊ मिट्टी समेत और कई तरह का नुकसान उठाना पड़ा है। अगर भारत के संदर्भ में अमेजन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग लगने की घटनाओं को देखें तो एक सवाल बरबस कौंधता है कि क्या हम ऐसी डरावनी घटनाओं से निपटने के लिए तैयार हैं जंगल में आग लगने से निपटने के लिए कभी कोई गभीर प्रयास नहीं किया गया। आज भी वन विभाग, राष्ट्रीय दूरसंवेदन एजेंसी, भारतीय मौसम विभाग और भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान आदि संस्थाओं के बीच कोई तालमेल नहीं है।
वन विभाग के पास इस आग से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है। इस नाते यथाशीघ्र राष्ट्रीय स्तर पर वनों में आग रोकने के लिए एक ‘शोध संस्थानÓ की स्थापना की जाए। आग पर नियंत्रण के लिए कोई स्पष्ट योजना नहीं है और न ही इसकी जानकारी है। यहां तक कि जंगल की आग पर आंकड़े नाममात्र के उपलब्ध हैं। आग के मौसम की भविष्यवाणी करने की कोई व्यवस्था नहीं है। आग से खतरे का अनुमान, आग से बचाव और उसकी जानकारी के उपाय भी नहीं हैं। जबकि करीब 20-22 साल पहले खाद्य एवं कृषि संगठन के विशेषज्ञों के दल ने अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट में भारत में जंगल की आग की स्थिति को बहुत गभीर बताया था।
रिपोर्ट में उस वक्त भारत में जंगल की आग की स्थिति बहुत चिंताजनक बताया गया था। यह भी बताया गया था कि आर्थिक और पारिस्थितिकी की दृष्टि से इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। आग पर नियंत्रण के लिए कोई स्पष्ट योजना नहीं है और न ही इसकी जानकारी है। भारत को एक पूरी आग-प्रबंध व्यवस्था की जरूरत है जो रायों में संस्थागत रूप में उपलब्ध हो। वहीं वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी भागों में लगी आग के बाद वन मंत्रालय द्वारा गठित आर.पी. खोसला समिति ने भी आग से बचाव के कई तरीके सुझाए थे। मगर अफसोस उस पर गंभीरता नहीं बरती गई। बात अगर अमेजन के वष्रा वनों में अगलगी की करें तो दुनिया को इस घटना से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। वरना परिणाम भयावह होंगे। जंगल में आग लगने का सीधा और सरल अर्थ किसी के घर में आग लगने जैसा होता है। लिहाजा इस मुददे पर पुराने उपायों के साथ-साथ नये सुझाव मसलन ड्रोन तकनीक, उपग्रहों की मदद से जंगलों पर नजर रखना, एयरक्रॉट के साथ जमीन प्रबंधन की सुव्यवस्थित अध्ययन बेहद कारगर होगा। साथ ही वन क्षेत्र के लिए वित्तीय आवंटन बढ़ाया जाए। लोगों को जंगलों के साथ जोड़ा गया यानी लोगों को जंगल के प्रति जागरूक किया जाए। बिना जागरूकता के कुछ नहीं हो सकता।
सौ फीसद सरकार पर निर्भरता किसी भी दृष्टिकोण से समझदारी नहीं है। हां, एक सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि क्या ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग जलवायु परिवर्तन के कारण तो नहीं लगी तो इसे भी समझने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन जंगलों में आग को और यादा भड़काएगा। जंगल जितने यादा जलेंगे, जलवायु परिवर्तन की रतार तेज होने का जोखिम भी उतना ही बढ़ेगा। यह एक कुचक्र है। जंगलों की आग हिमालय, रॉकी और एंडीज पर्वतमालाओं की बर्फ पर भी असर डालेगी। बढ़ता तापमान उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बरसों से जमी बर्फ को और तेजी से पिघलाएगा। कह सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में लगी भीषण आग जलवायु परिवर्तन का निर्मम उदाहरण है। साथ ही यह पूरी दुनिया के लिए भी सबक है कि पर्यावरण से मुंह मोडऩा का अंजाम किस कदर डरावना होता है