इस महामारी का स्थाई इलाज तलाशिए
‘अवसाद से हारी ओसाका, फ्रेंच ओपन बीच में छोड़ा। महीने की शुरुआत में इस शीर्षक से छपी खबर ने चौंकाया था। सरसरी तौर पर यह शीर्षक एक खिलाड़ी की शिकस्त और पलायन की ओर इशारा करती है। जापानी मूल की अमेरिकी टेनिस खिलाड़ी नाओमी ओसाका कोई पहली खिलाड़ी नहीं, जिन्होंने अवसाद से घिरे होने का खुलासा किया। फिर भी यह एक अहम फैसला है क्योंकि उन्होंने अपने भीतर चल रहे उथल-पुथल का खुलासा उस वक्त किया जब वह एक प्रतियोगिता में खेल रही थी और जीत की प्रबल दावेदार भी थी। फिलहाल ओसाका ने तन के साथ मन को भी स्वस्थ रखने की ओर दुनिया का ध्यान खींचा।
आज जब इस प्रतिस्पर्धी दुनिया में मौके और मंजि़ल की तलाश में व्यक्ति खुद को भूल रहा है वहां ओसाका ने खुद के दिल और मन को किसी खिताब से ऊपर रखा। लेकिन सोचने वाली बात है कि ओसाका अपने करियर के उठान पर है। कमाई के मामले में वह 23 ग्रैंड स्लैम जीत चुकी सेरेना विलियम्स को भी पीछे छोड़ चुकी है। फिर भी वह अवसाद की शिकार है। ऐसे में प्रतिस्पर्धा के अन्य क्षेत्रों में संघर्षरत लोगों का क्या हाल होगा।
ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत के 43 प्रतिशत लोग किसी न किसी स्तर पर अवसाद के शिकार हैं। कोरोना महामारी आने के बाद अवसाद का असर और बढ़ा। लोगों पर विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। बार-बार लॉकडाउन के कारण कामधंधे बंद हो रहे हैं। लोगों की नौकरियां छूट रही हैं। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार दूसरी लहर के कारण देश में एक करोड़ से अधिक लोगों की नौकरी गई। महज पिछले एक महीने में शहरी बेरोजगारी दर 7.88 प्रतिशत बढ़ी है। जहां लॉकडाउन नहीं वहां फैक्टरियों में आधी क्षमता, आधे वेतन के साथ काम हो रहा है। ऐसी परिस्थितियों में किसी का भी अवसाद की चपेट में आना बहुत संभव है।
जीवन के किसी भी मोर्चे पर हार-जीत जिंदगी का हिस्सा है। लेकिन हार के बाद लगातार दबाव महसूस करना किसी की दिनचर्या या जीवन का हिस्सा नहीं होना चाहिए। आज का सच यह है कि किसी तरह की हार या विफलता या उसकी आशंका से विविध क्षेत्रों में कार्यरत लोग अवसाद का शिकार हो रहे हैं। फिर भी जब तक स्थिति हद पार नहीं करने लगती, लोग अवसाद की गंभीरता को नहीं समझते।
हमने कई बार ऐसी खबरें अखबारों में पढ़ी होंगी कि अमेरिका में नौकरी कर रहे प्रवासी युवा ने आत्महत्या की। कोटा में कोचिंग के लिए गये छात्रों द्वारा आत्महत्या की खबरें आये दिन छपने लगी हैं। कभी-कभी तो परिवार सहित आत्महत्या की खबर भी छपती है। हाल ही में राजस्थान के सीकर और महाराष्ट्र से पूरे परिवार द्वारा आत्महत्या की खबर आई थी। महत्वाकांक्षाओं या अपेक्षाओं के दवाब या आर्थिक, पारिवारिक कारणों से आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं।
हार और असफलता जीत और कामयाबी की ओर जाने का अनिवार्य पड़ाव है। बिना इस पड़ाव से गुजरे आज तक कोई कामयाब या चैंपियन नहीं बन सका है। ऐसे में यदि कोई विचलित हो अवसाद में चला जाता है तो ये हमारी ट्रेनिंग प्रक्रिया और आधारभूत शिक्षा की खामी है। अवसाद के प्रति समाज का अवसादी नजरिया भी बहुत हद तक जिम्मेवार है, बढ़ते अवसाद और फिर इन आत्महत्याओं के लिए। ऐसे में अवसाद पर गम्भीर चर्चा की जानी चाहिए। बढ़ते अवसाद के मूल कारणों की तलाश की जानी चाहिए।
बीते दो दशक में हमारी दुनिया तेजी से बदली है। समाज की सबसे मजबूत इकाई परिवार बिखरा है। परिवार बिखरते ही हमारा भावनात्मक संबल हमसे छिना है। एक समय था जब जीवन की मुश्किलों का सामना करते समय परिवार का साथ और भावनात्मक संबल भी हमारे साथ होता था। मगर आज जीवन के युद्ध में हम अकेले हैं। फिर बीते दिनों हमारी महत्वाकांक्षाओं का पहाड़ इतना ऊंचा और हठी न था। व्यक्ति की महत्वाकांक्षाएं व्यक्ति और उसके संबंधों से बड़ी न थीं। खुशियां ना तो किसी कामयाबी से आंकी जाती थी और ना ही जीवन हर पल प्रतिस्पर्धा की तलवार पर चलने का नाम था।
संघर्ष पहले भी बहुत था। जीवन आज की तुलना में कहीं अधिक कठिन था। किंतु तनाव का कहीं कोई वायरस ना था। हमारी इच्छाएं आर्थिक संपन्नता की गुलाम न थीं। हमें इज्जत-शोहरत का इतना लोभ भी ना था। इज्जत और शोहरत पहले भी थी मगर वह अखबार के पन्नों और टीवी के स्क्रीन पर नहीं, परिवार, समाज में रहने वाले लोगों के दिलों में थी। इस सामाजिक संरचना के बदलने के साथ अवसाद नामक वायरस का जन्म हुआ। समाज की अवसादी सोच के कारण आज यह कोरोना महामारी के जैसा ही विकराल रूप धारण करने लगा है। देखना यह है कि कोरोना का इलाज खोज रही दुनिया में अवसाद महामारी का स्थायी इलाज खोजने की शुरुआत कब होती है।