सफर में सफरिंग से क्या डरना
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अगर एक आम भारतीय और एक यूरोपियन शिमला जाएंगे तो वे वहां क्या करेंगे? कुछ भारतीय युवाओं के बारे में मैं अच्छे से जानता हूं इसलिए बता सकता हूं कि वे सबसे पहले एक महंगा होटल तलाशेंगे और फिर रूम बुक करेंगे। फिर खाने का ऑर्डर देंगे, छककर महंगी शराब पीकर सो जाएंगे। सुबह उठकर वापिस घर चले जाएंगे। पैसे की बर्बादी के साथ बस इतना ही था उनका घूमना और एंजॉय!
अब समझिए कि एक यूरोपियन वहां क्या करेगा? वह किसी पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाएगा और अपना टेंट गाड़ देगा। वह रातभर उस पहाड़ की चोटी पर बर्फीली हवाओं के संग रहेगा। इस बीच हो सकता है कि वहां बारिश भी हो जाए, तूफान भी आ जाए लेकिन वह हर चीज को एंजॉय करेगा। सुबह सूरज की पहली किरण के साथ फोटो या विडियो भी शूट करेगा। इस बीच, जो भी उसके पास खाने और पीने के लिए है उसी से काम चलाएगा। यह भी संभव है कि वह वहां खींचे फोटो या विडियो को बेचकर वह अपने टूर का कुछ खर्चा भी निकाल ले। वहां अपनी हर गतिविधि में उसे जोखिम उठाना पड़ सकता है लेकिन वह उसके लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार होकर आया है। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि भारतीय युवक के जीवन में सब कुछ पहले से ही निश्चित था। उसने एक तरह के बने बनाए रूल के आधार पर अपना आनंद निश्चित किया था। उसकी जिंदगी में सब कुछ पहले से सेट था। कितना महंगा होटल लेना है? होटल उसके लिए कितना सुरक्षित है? रूम हीटर है या नहीं? बाथरूम में गर्म पानी आता है या नहीं? मेन्यू में से कौन-कौन-सा खाना ऑर्डर करना है? सुबह ब्रेकफास्ट में क्या लेना है? और कमरा कितने बजे चेक आउट करना है?
जीवन में जब हर चीज निश्चित होती है तो हम उसी के मुताबिक चलते हैं। तब खुद को उससे बाहर नहीं निकाल पाते? जबकि पहाड़ की चोटी पर उस यूरोपियन की जिंदगी में कुछ भी निश्चित नहीं है। ज्यों ही वह फैसला करता है कि मैं होटल में न रहकर किसी पहाड़ की चोटी पर रहूंगा, तभी से उसकी जिंदगी में मुश्किलें भी बढ़ जाती हैं। उसका दिमाग एक कमांडो की तरह चारों दिशाओं में दौडऩे लगता है कि कौन-सी चोटी मेरे लिए ठीक रहेगी? चोटी कितनी ऊंची होनी चाहिए? वहां कौन सी मुश्किलें आएंगी और उनका कैसे डटकर मुकाबला करना है? यूरोपियन के मन में तनाव पैदा होगा और उसको इसके लिए बहुत सोचना पड़ेगा। अब बताइये कि आगे की तरफ कौन देख रहा है?
दूसरी तरफ, उस भारतीय युवा के मन में कोई तनाव नहीं। वह रातभर नशे में रहेगा और उसे पता भी नहीं चलेगा कि वह कहां सोया हुआ है? जब वह होटल से निकलेगा तो उसे यह लगेगा कि कोई फायदा नहीं हुआ यहां आने का क्योंकि मुझे तो कोई नया अनुभव हुआ ही नहीं। कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसके जीवन में कुछ नया घटित नहीं हुआ, कोई नया विचार पैदा नहीं हुआ।
जबकि यूरोपियन को रात में इतने फैसले लेने पड़े, इतनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा जिससे जीवन के प्रति उसकी नई समझ पैदा हो गई क्योंकि उसका अनुभव अद्भुत रहा। उसने आज जीवन के प्रति एक नई खोज की क्योंकि वह पहले से ज्यादा बौद्धिक हो गया। उसके अंदर आत्मविश्वास, हौसला, निडरता जैसे गुणों की बढ़ोतरी हो गई। तो फिर बताइए कि यहां असल आध्यात्मिक कौन है?
यूरोपियन को जो नशा हुआ वह नशा कभी नहीं उतरेगा। अब आप ही बताओ कि धार्मिक ग्रंथों वाला आनंद उस यूरोपियन ने लिया या भारतीय युवक ने? दोनों में से अध्यात्म के पनपने के अवसर किस में ज्यादा हैं? मेरे हिसाब से, अध्यात्म का मतलब आत्मा का ज्ञान, खुद के ज्ञान से है। अब खुद का ज्ञान होटल में एंजॉय करने से ज्यादा होगा या पहाड़ की चोटी पर संघर्ष करने से? किसी भी काम और उसके प्रबंधन को बेहतर करते रहने की स्थिति को अध्यात्म कहते हैं। लेकिन हम लोग बेहतर करने की बजाय उसे दोहराने लगते हैं। इससे जीवन में मौलिकता खत्म हो जाती है और जीवन कर्मकांड में बदल जाता है। फिर कर्मकांड पाखंड में बदल जाते हैं और यही पाखंड आने वाली पीढिय़ों के लिए एक परंपरा बन जाते हैं।
हम यूरोपियन पर कई इल्जाम लगाते हैं जबकि सच यह है कि हमारी संघर्ष और खुद के ज्ञान में कोई रुचि नहीं। उधर, बहुत-से विकसित देश धार्मिक पाखंडों से दूर हो रहे हैं, वहां चर्च में जाने वाले लोगों की संख्या लगातार घट रही है। बहुत-से चर्चों को तो स्कूलों में बदला जा रहा है। विकसित देशों में नास्तिकों की संख्या भी ज्यादा मिलेगी।