कॉमन एंट्रेस टेस्ट के खतरे
नई शिक्षा नीति के तहत केंद्र सरकार ने सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्नात्तक कक्षाओं में दाखिले के लिए एक साझा दाखिला परीक्षा कराने का ऐलान किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने कॉमन यूनिवर्सिटीज एंट्रेस टेस्ट यानी सीयूईटी 2022 की आवेदन प्रक्रिया और परीक्षा का फॉर्मेट आदि जारी कर दिया है। पहली नजर में देखने पर ऐसा लग रहा है कि यह बहुत अच्छी पहल है क्योंकि इससे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले की चाहत रखने वाले सभी छात्रों को बराबरी का मैदान मिलेगा। यह इसलिए जरूरी लग रहा है क्योंकि पिछले कुछ समय से कई राज्यों की बोर्ड परीक्षाओं में और केंद्रीय माध्यमिक परीक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई की परीक्षाओं में भी 99 और सौ फीसदी अंक हासिल करने वाले छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय सहित कई और विश्वविद्यालयों में दाखिले का कटऑफ सौ फीसदी तक जा रहा है।
यूजीसी के इस फैसले की मोटे तौर पर वाहवाही ही हो रही है। ऐसा लग रहा है कि इससे 12वीं पास करके उच्च शिक्षा हासिल करने की चाहत रखने वाले छात्रों की सारी समस्याओं का हल हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है। जिस तरह जेईई की परीक्षा के जरिए इंजीनयरिंग और नीट की परीक्षा के जरिए मेडिकल में दाखिले की व्यवस्था छात्रों की समस्याओं का समाधान नहीं करती हैं वैसे ही यह एंट्रेस टेस्ट भी किसी समस्या का समाधान नहीं है। उलटे इससे कुछ नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं, जैसे नीट की परीक्षा के कारण तमिलनाडु में पैदा हुई है। बहरहाल, सबसे पहली बात तो यह है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए परीक्षा की व्यवस्था शुरू होने से 12वीं के अंकों का महत्व खत्म हो जाएगा। दाखिला परीक्षा में शामिल होने के लिए न्यूनतम अंक हासिल करने की एक अर्हता रखी जाएगी, उसके अलावा इन अंकों का कोई महत्व नहीं होगा।
इसका पहला असर तो यह होगा कि पढ़ाई का पूरा पैटर्न बदल जाएगा। बोर्ड की परीक्षा के लिए अभी छात्र समग्रता में पढ़ाई करते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि इस अंक के आधार पर उनको अच्छे विश्वविद्यालय और मनपसंद कोर्स में दाखिला मिलेगा। अगर अच्छे विश्वविद्यालय और मनपसंद कोर्स के लिए 12वीं के अंकों का महत्व खत्म हो जाएगा तब छात्र क्लासरूम की पढ़ाई पर कम ध्यान देंगे। फिर उनकी पढ़ाई सीधे दाखिला परीक्षा की तैयारियों पर केंद्रित हो जाएगी। जाहिर है यह पढ़ाई क्लासरूम में नहीं होगी। जिस तरह इंजीनियरिंग और मेडिकल में दाखिले की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थान देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह उगे हैं उसी तरह केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले की परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थान भी पैदा होंगे। यहीं से गैर–बराबरी वाली व्यवस्था शुरू हो जाएगी।
दाखिले के लिए परीक्षा आयोजित करने के पक्ष में यह दलील दी जा रही है कि इससे सभी छात्रों को बराबरी का मैदान मिलेगा लेकिन असल में यह अधूरी दलील है। एक तरफ वे छात्र होंगे, जो महंगे कोचिंग में जाकर या महंगे शिक्षक से पढ़ाई करके दाखिला परीक्षा की तैयारी करेंगे और दूसरी ओर वे छात्र होंगे, जो क्लासरूम की पढ़ाई के आधार पर दाखिला परीक्षा में बैठेंगे। दोनों के नतीजों में जमीन आसमान का फर्क होगा। ठीक उसी तरह जैसे जेईई और नीट की परीक्षा में होता है। दिल्ली से लेकर कोटा तक फैले कोचिंग संस्थानों से पढ़ाई करके इंजीनियरिंग, मेडिकल की दाखिला परीक्षा में बैठने वालों का बाकी छात्रों से कोई मुकाबला नहीं रह जाता है। इसी वजह से तमिलनाडु सरकार नीट का विरोध कर रही है क्योंकि वहां 12वीं के अंकों के आधार पर गरीब से गरीब छात्र को भी सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिलता है। इसलिए स्नात्तक कक्षाओं में अंक की बजाय एंट्रेस टेस्ट के आधार पर दाखिले की व्यवस्था एक किस्म की गैर बराबरी को खत्म करके उससे बड़ी दूसरे किस्म की गैर बराबरी की व्यवस्था बनाने वाली साबित होगी।
दाखिले के लिए एक परीक्षा कराने के फैसले की दूसरी कमी यह है कि इसके आधार किसी छात्र का समग्रता में मूल्यांकन नहीं किया जा सकेगा। ध्यान रहे 12वीं की परीक्षा में मिला अंक किसी एक परीक्षा का नतीजा नहीं होता है। वह 12वीं तक की पूरी पढ़ाई का प्रतिबिंब होता है। छात्र कई तरह की लिखित परीक्षा, प्रायोगिक परीक्षा और व्यक्तित्व के विकास के दौर से गुजर कर 12वीं पास करता है। इसलिए 12वीं की परीक्षा में मिले अंक एक छात्र के समग्र मूल्यांकन का आधार बनाते हैं। इसके उलट दाखिला परीक्षा किसी छात्र के ओवरऑल मूल्यांकन का आधार नहीं बन सकती है। हो सकता है कि 12वीं तक की पढ़ाई बहुत अच्छे से करने वाला छात्र दाखिला परीक्षा में अच्छा नहीं कर पाए और उसे किसी अच्छे विश्विद्यालय में दाखिला नहीं मिले। यह उसके साथ अन्याय होगा। सोचें, इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए अब दो बार जेईई की परीक्षा कराई जा रही है ताकि छात्रों को दूसरा मौका मिल सके। क्या केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिला चाहने वाले छात्रों को दूसरा मौका मिलेगा?
एक तीसरी समस्या विस्थापन की है। अगर देश के सभी 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले की एक केंद्रीकृत परीक्षा होगी तो उससे देश भर के युवा छात्रों में बड़ा विस्थापन होगा। किशोर उम्र के बच्चों को अपना घर और परिवेश छोड़ कर दूसरी जगह जाना पड़ सकता है। ऐसा नहीं है कि अभी 12वीं के बाद छात्र अपना घर और परिवेश नहीं छोड़ते हैं लेकिन वह उनकी इच्छा पर निर्भर होता है। मौजूदा व्यवस्था में स्नात्तक की पढ़ाई के लिए विस्थापन बहुत कम है और कुछ खास शहरों के लिए है। जैसे देश भर के छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में पढऩे के लिए आवेदन करते हैं या जामिया यूनिवर्सिटी में या अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में या बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढऩे के लिए आवेदन करते हैं। परंतु ज्यादातर छात्र अपने राज्य में स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय या राज्य के विश्वविद्यालय में ही पढऩे को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा कम होता है या नहीं होता है कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के छात्र बीएचयू में पढ़ाई के लिए आवेदन कर रहे हैं या केरल के छात्र बिहार के किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए आवेदन करते हैं। बिहार के छात्र तो हो सकता है कि हैदराबाद में केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढऩे चले जाएं लेकिन यह मुश्किल है कि हैदराबाद का कोई छात्र बिहार में मोतिहारी के महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने जाए।
ध्यान रहे सीयूईटी में 13 से 19 भाषाओं में परीक्षा होगी। ऐसे में अगर तमिल भाषा में पढ़ाई करने वाले 12वीं के किसी छात्र को कॉमन एंट्रेस टेस्ट के नतीजे के आधार पर बंगाल या ओडि़शा में दाखिला मिल रहा हो तो वह क्या करेगा? या बिहार बोर्ड से हिंदी में पढ़ाई करने वाले किसी छात्र को रैंकिंग के आधार पर तमिलनाडु या केरल के किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिला मिल रहा हो तो वह क्या करेगा? जाहिर है वह अपनी भाषा और परिवेश छोड़ कर जाने की बजाय अपने राज्य के विश्वविद्यालय में दाखिले को प्राथमिकता देगा। इससे कई तकनीकी समस्याएं पैदा होंगी। सो, कुल मिला कर यह व्यवस्था छात्रों का समग्रता से मूल्यांकन करने वाली नहीं है। इसमें सभी छात्रों के लिए बराबरी का मैदान भी सुनिश्चित नहीं होता है और तीसरा, इससे कच्ची उम्र में छात्र अपनी भाषा और परिवेश से कट जाएंगे, जो ओवरऑल उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधक बनेगा।