November 22, 2024

भारत और श्रीलंका:आपकी जेब से 2 रुपये लेकर 1 वापस


भारत सरकार के कुछ सचिवों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक मीटिंग में इस बात पर चिंता जताई है कि राज्यों में सरकारों द्वारा मुफ्त बांटने की नीतियों से अर्थव्यवस्था की सेहत प्रभावित हो सकती है। सचिवों ने संभवत: यह भी कहा कि इस तरह की योजनाएं राज्यों को श्रीलंका के रास्ते पर ले जा सकती है। पता नहीं सचिवों ने किस आधार पर ऐसी आशंका जताई और किस आधार पर देश के अर्थशास्त्री भी इन चिंताओं को स्वर दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि उन्होंने भारत और श्रीलंका के आर्थिक मॉडल का तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया है। दोनों देशों की आर्थिक नीतियों का मॉडल एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब नहीं है। भारत की स्थिति भी बहुत खराब है लेकिन उन कारणों से कतई नहीं, जिन कारणों से श्रीलंका की खराब हुई है।
इसे समझने के लिए दोनों देशों की आर्थिक नीतियों के मॉडल के फर्क को समझने की जरूरत है। श्रीलंका का मॉडल पिछले 20 साल से रोजगार पैदा करने के लिए बुनियादी ढांचे के विकास पर आधारित था। उसका मॉडल लोगों को कर व शुल्क से राहत देने पर आधारित था। उसका मॉडल कृषि में बुनियादी बदलाव के विचार पर आधारित था। इसके उलट भारत का मॉडल न तो रोजगार के अवसर पैदा करने वाले बुनियादी ढांचे के विकास पर आधारित है और न भारत के नागरिकों को कर या शुल्क से राहत देने के मॉडल पर आधारित है। यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आएगी, जो श्रीलंका की सारी समस्याओं के लिए चीन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। चीन की कर्ज देकर गुलाम बनानी की कूटनीति श्रीलंका के संकट का सिर्फ एक कारण है। बाकी कारण उसके अपने हैं।
असल में श्रीलंका में 2019 के आखिर में संसदीय चुनाव हुए थे, जिसमें राजपक्षे बंधुओं ने वादा किया था उनकी सरकार बनी तो वे कर और शुल्क में कटौती करेंगे। उस समय उन्होंने या किसी ने नहीं सोचा था कि कोरोना की जो आहट सुनाई दे रही है वह मार्च 2020 आते आते महामारी में बदलेगी। सो, उन्होंने नवंबर 2019 में सरकार बनने के बाद लोगों को कर से बड़ी राहत दी। सरकार ने कैपिटल गेन टैक्स, बैंक डेबिट टैक्स, विदहोल्डिंग टैक्स और यहां तक कि वैट में भी शुल्क घटा कर 15 से आठ फीसदी कर दिया। यानी टैक्स पर करीब 50 फीसदी की कटौती की गई। यह लोगों को बड़ी राहत देने वाली बात थी। लेकिन टैक्स छूट देने के तीन महीने बाद ही दुनिया कोरोना के दुष्चक्र में फंस गई। ध्यान रहे श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का बड़ा योगदान है। उसकी जीडीपी में 12 से 14 फीसदी हिस्सा पर्यटन का है। उसकी 2.2 करोड़ की आबादी में करीब 50 लाख लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यटन से जुड़े हैं। कोरोना की वजह से पर्यटन पूरी तरह से ठप्प हो गया। इससे सरकार के साथ साथ एक बड़ी आबादी की आय का स्रोत बंद हो गया।
श्रीलंका की गोटबाया और महिंदा राजपक्षे सरकार की दूसरी गलती यह हुई कि उन्होंने खेती को रासायनिक खाद के इस्तेमाल से पूरी तरह मुक्त करने का फैसला किया। यह बड़ा दुस्साहसी फैसला था। सरकार ने खेती को पूरी तरह जैविक बनाने के लिए रासायनिक खाद के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगा दी। इसका नतीजा यह हुआ कि पैदावार आधी हो गई। ध्यान रहे श्रीलंका खाने-पीने की चीजों, जैसे चावल, दालें, चीनी आदि के लिए आयात पर निर्भर है। पैदावार कम होने से उसकी निर्भरता आयात पर बढ़ती गई। एक तरफ टैक्स कटौती और पर्यटन सहित सारे उद्योग ठप्प होने से राजस्व कम हुआ और दूसरी ओर आयात का बिल बढऩे लगा। श्रीलंका पर पहले से कर्ज बहुत ज्यादा हो गया था, जो उसने बुनियादी ढांचे के विकास के लिए चीन सहित कई दूसरे देशों से लिया था। इन सबका मिला-जुला नतीजा यह हुआ कि श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार नवंबर 2019 के साढ़े सात अरब डॉलर से घट कर 2.2 अरब डॉलर पर आ गया  और महंगाई दर 17 फीसदी पहुंच गई।
अब इसके मुकाबले भारत का मॉडल देखें तो पता चलेगा कि भारत सरकार के सचिवों की आशंका कितनी गलत और निराधार है। यह सही है कि भारत में केंद्र सरकार और कई राज्यों की सरकारें कई चीजें मुफ्त बांट रही हैं। केंद्र सरकार दो साल से मुफ्त में अनाज और दाल बांट रही है, किसानों को हर महीने पांच सौ रुपए की ‘सम्मान निधि’ दे रही है, महिलाओं के खाते में नकद पैसे दिए जा रहे हैं और आवास व शौचालय के लिए भी पैसे दिए जा रहे हैं। इसी तरह की योजनाएं राज्यों में भी चल रही हैं। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जिन गरीब लोगों को मुफ्त में ये चीजें दी जा रही हैं उन्हीं से इसकी कीमत वसूली जा रही है। भारत में सरकारों ने कर की वसूली बढ़ा दी है और उसी का एक हिस्सा लोगों को मदद और राहत के नाम पर दे रहीं हैं। इसलिए कम से कम लोगों को मुफ्त वस्तुएं और सेवाएं बांटने से भारत की स्थिति श्रीलंका वाली नहीं होगी।
इस बात को आंकड़ों समझें तो तस्वीर ज्यादा साफ होगी। भारत में जैसे ही कोरोना का विस्फोट हुआ, भारत सरकार ने इसे आपदा में अवसर बनाते हुए पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले शुल्क में भारी भरकम बढ़ोतरी की। वैसे तो केंद्र की मौजूदा सरकार पहले से ही शुल्क बढ़ा रही थी लेकिन कोरोना के दौरान सबसे बड़ी बढ़ोतरी की गई। मई 2014 में एक लीटर पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9.20 रुपए था, जो अभी 26.90 रुपए है यानी लगभग तीन गुना। इसी तरह डीजल पर जो शुल्क 3.46 रुपए था वह अब 21.80 रुपए है यानी छह गुना से ज्यादा। यह दर पिछले साल के अंत में उत्पाद शुल्क में दी गई छूट के बाद की है। उससे पहले पेट्रोल पर इससे पांच रुपए ज्यादा और डीजल पर 10 रुपए ज्यादा शुल्क था। सिर्फ पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क से भारत सरकार ने पिछले आठ वित्त वर्ष में साढ़े 26 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा वसूले हैं। सिर्फ पिछले वित्त वर्ष यानी 2020-21 में केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क से चार लाख 55 हजार करोड़ से ज्यादा वसूले। इसी अवधि में राज्य सरकारों ने दो लाख 17 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा सिर्फ पेट्रोल और डीजल पर शुल्क से कमाए। जीएसटी, आबकारी शुल्क और प्रत्यक्ष कर की कमाई अलग है, वह लगभग 28 लाख करोड़ रुपए सालाना है।
जीएसटी और प्रत्यक्ष कर यानी आयकर को छोड़ें और सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क और वैट से केंद्र व राज्यों को होने वाली कमाई पर सोचें तो इसमें से भी सरकारें कितना बांट देंगी? पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में लिखे एक लेख में बताया है कि केंद्र सरकार की अनाज बांटने की योजना, महिलाओं को नकद पैसे देने और किसान सम्मान निधि के मद में दी गई कुल राशि एक साल में सवा दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा नहीं होती है। जबकि सरकार एक साल में साढ़े चार लाख करोड़ रुपए सिर्फ पेट्रोल, डीजल पर उत्पाद शुल्क से कमा रही है और उसमें से आधा मुफ्त की वस्तुओं और सेवाओं पर बांट दे रही है। इसी तरह राज्य सरकारें पेट्रोल-डीजल पर वैट से दो लाख 17 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा कमा रही हैं और उसमें से आधा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च कर दे रही हैं। सरकारों के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? लोग खुश हैं। लोगों को पता ही नहीं है कि उन्हीं की जेब से दो रुपए निकाल कर एक रुपया वापस किया जा रहा है। इसलिए यह तय मानें कि मुफ्त की योजनाओं के कारण भारत की स्थिति श्रीलंका जैसी नहीं होने वाली है।