सबको पसंद है राजद्रोह कानून?~!!
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है लेकिन यह अंतिम जीत नहीं है। यह अधूरी या आंशिक जीत है, जिसका पूर्ण होना इस बात पर निर्भर करेगा कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान इस पर क्या रुख अख्तियार करता है। अभी तक के रुख को देख कर लग नहीं रहा है कि सरकार इसे खत्म करने जा रही है। हो सकता है कि इसका रुप बदल जाए, इसके कुछ प्रावधान बदल जाएं, दंडात्मक कार्रवाई वाले प्रावधानों को कुछ नरम बना दिया जाए लेकिन इसका बने रहना अवश्यंभावी है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि यह या इस तरह का कानून सभी सरकारों को पसंद है। सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की हो उसे एक डंडा चाहिए। राजद्रोह कानून वैसा ही एक डंडा है, जिसका इस्तेमाल काफी निरापद माना जाता है। इस कानून के नाम से ही किसी बड़े अपराध का बोध होता है। इस कानून के तहत किसी के खिलाफ कार्रवाई होती है तो वह किसी सामान्य आपराधिक कृत्य को रोकने के लिए की गई कार्रवाई नहीं होती है, बल्कि राजद्रोह या देशद्रोह रोकने के लिए की गई कार्रवाई होती है। इसलिए उसका राजनीतिक मतलब भी होता है।
यहीं कारण है कि ये कानून आज तक बना हुआ है अन्यथा इसे काफी पहले समाप्त हो जाना चाहिए था। अंग्रेजों के बनाए इस कानून को आजादी के तुरंत बाद खत्म कर दिया जाना चाहिए था। सर्वोच्च अदालत ने सही पूछा कि जिस कानून का इस्तेमाल महात्मा गांधी और उन जैसे दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों पर कार्रवाई के लिए किया गया हो उस कानून की आजाद भारत में क्या जरूरत है? लेकिन आजाद भारत में न सिर्फ इसकी जरूरत बनी रही, बल्कि समय के साथ इसका इस्तेमाल भी बढ़ता गया। पिछले आठ साल में यानी 2014 के बाद से देश भर में 399 मुकदमे इस कानून के तहत दर्ज किए गए। ऐसा नहीं है कि सिर्फ केंद्रीय एजेंसियों या भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने ही इस कानून के तहत मुकदमा किया है। दूसरी पार्टियों की राज्य सरकारें भी खुले दिल से इसका इस्तेमाल करती हैं।
महाराष्ट्र में शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी की सरकार ने सिर्फ बयानों के आधार पर मशहूर अभिनेत्री कंगना रनौत के खिलाफ राजद्रोह का केस दर्ज किया तो मुख्यमंत्री आवास के बाहर हनुमान चालीसा का पाठ करने की घोषणा करने वाली सांसद नवनीत राणा के खिलाफ भी राजद्रोह कानून के तहत केस दर्ज किया गया। सोचें, जिस काम के लिए धारा 144 या धारा 107 के तहत कार्रवाई होनी चाहिए उसके लिए धारा 124ए लगाया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के कंप्यूटर से कथित तौर पर कोई लेटर बरामद होने के बाद अनेक लोगों के खिलाफ राजद्रोह का कानून लगा दिया गया तो भाषण, लेखन और बयानों के लिए मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ और कथित तौर पर आजादी का नारा लगाने के लिए कन्हैया कुमार के खिलाफ भी राजद्रोह कानून लगाया गया।
ये कुछ प्रतिनिधि मामले हैं, जिनका जिक्र करने से समझ में आता है कि सरकारों को यह कानून कितना पसंद है। कांग्रेस पार्टी इस कानून को लेकर केंद्र की भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही है लेकिन 2004 से 2014 तक जब दस साल वह केंद्र सरकार में थी तब उसने एक बार भी इस कानून को खत्म करने की पहल नहीं की। दस साल राज करने के बाद 2014 के चुनाव से पहले पार्टी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया कि वह सरकार में आई तो राजद्रोह कानून को खत्म करेगी। जाहिर है जो सरकार में है वह इस कानून को खत्म करने की बात नहीं करता है। विपक्षी पार्टियां इसे खत्म करने की मांग करती हैं क्योंकि राजद्रोह कानून का डंडा उनके खिलाफ चलता है। मौजूदा सरकार भी इसी वजह से इसे खत्म करने की बजाय इस पर गौर करने की बात कर रही है।
इस कानून को लेकर केंद्र सरकार की मंशा पर किसी को गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए। केंद्र सरकार की मंशा वहीं है, जो उसने पहले जाहिर की थी। यह मामला पहली बार जुलाई 2021 में सुनवाई के लिए आया था और तब से करीब एक साल में केंद्र सरकार इस पर अपनी राय नहीं बना पाई और न अदालत में जवाब दे पाई। सुप्रीम कोर्ट ने जब पांच मई 2022 की तारीख तय कर दी तब भी केंद्र ने और समय मांगा। तब तक सरकार इस कानून का बचाव करती रही और अचानक दो दिन बाद आजादी के अमृत महोत्सव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भावना के अनुरूप इसके पुनरीक्षण और पुनर्विचार की बात करने लगी। सरकार ने खुल कर कहा है कि देश के खिलाफ काम करने वालों पर मुकदमा दर्ज करना बंद नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी संपूर्ण रोक लगाने वाला नहीं है।
राजद्रोह कानून को खत्म करने में सरकार की हिचक इस वजह से भी हैरान करने वाली है कि सरकार के पास गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून यानी यूएपीए का एक मजबूत डंडा पहले से मौजूद है। केंद्र सरकार ने 2019 में इस यूएपीए में संशोधन करके इसे और भी सख्त बना दिया है। 2019 के संशोधन के जरिए इसमें यह प्रावधान जोड़ा गया है कि सरकार चाहे तो बिना कानूनी प्रक्रिया का पालन किए किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर सकती है। यह टाडा या पोटा की तरह का सख्त कानून है। इसके बावजूद सरकार राजद्रोह कानून को बनाए रखना चाहती है तो निश्चित रूप से उसके पीछे कोई दूसरी सोच होगी।
ऐसा लग रहा है कि किसी को आतंकवादी या नक्सलवादी बताने से ज्यादा मुफीद देशद्रोही या राजद्रोही बताना होता है। देशद्रोह या राजद्रोह का मुकदमा होने से लोगों की छवि को ज्यादा नुकसान होता है। ऐसा मानने की वजह यह कि धारा 124ए का इस्तेमाल आमतौर पर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ही किया जा रहा है। अपराध रोकने के घोषित मकसद के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और राजद्रोह कानून दोनों का इस्तेमाल दो और मकसद से होता है। पहला विरोधियों की आवाज बंद कराने के लिए और दूसरा, उनकी छवि खराब करने के लिए है। तभी किसी सभ्य लोकतांत्रिक देश में इस तरह के कानून के लिए कोई जगह नहीं होने के बावजूद इसकी जगह बनी हुई है