July 14, 2025

पंचायती चुनाव : आपदा काल मे चुनावी साल

( अर्जुन राणा )

उत्तराखंड में इन दिनों पंचायत चुनाव का मौसम भी बरसात के मौसम से टकरा गया है। वैसे तो चुनाव लोकतंत्र का उत्सव माने जाते हैं, लेकिन इस बार यह उत्सव प्राकृतिक आपदाओं की आशंकाओं और रुक-रुककर बरसते बादलों की धुंध में कहीं दबा सा महसूस हो रहा है।

उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है, जहां बरसात का सीजन वैसे ही डर और अनिश्चितताओं से भरा होता है। याद कीजिए 16-17 जुलाई 2021 को कुमाऊं क्षेत्र में आई भारी बारिश, जिसने 70 से ज्यादा लोगों की जिंदगी लील ली। हर साल कुछ ऐसी ही खबरें डराती हैं।

मौसम विभाग रोजाना भारी बारिश और बिजली गिरने की चेतावनी जारी कर रहा है। लोगों को घरों से बाहर न निकलने की सलाह दी जा रही है। वहीं चुनाव आयोग चाहता है कि लोग अपने घरों से निकलें, बूथ तक जाएं और लोकतंत्र को मजबूत करें। यह विरोधाभास ही चुनाव की सबसे बड़ी मुश्किल है।

जहां एक ओर वोटर मुश्किल हालात में भी एक दिन घर से निकलकर वोट डाल सकते हैं, वहीं प्रत्याशियों की हालत और भी खराब है। प्रचार की जिम्मेदारी कई दिनों की होती है। ऐसे में हर पल डर बना रहता है। 3 जुलाई 2016 को चमोली में बादल फटा था, जिसमें कई गांव तबाह हो गए थे। प्रत्याशियों के दिल में इस तरह की घटनाओं का डर हमेशा मंडराता रहता है।

दूसरी ओर 1 जुलाई 2013 को उत्तरकाशी में तेज बारिश से आई बाढ़ ने दर्जनों घर बहा दिए थे। लोगों को याद है कि ऐसे मौसम में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना कितना मुश्किल और खतरनाक हो सकता है।

ऐसे में पंचायत चुनावों का असली मुद्दा अब प्रचार, पार्टी और विकास कार्यों से हटकर मौसम की मार से जूझने का बन गया है। 16 जुलाई 2004 को चमोली में भीषण भूस्खलन ने कई गांव तबाह कर दिए थे। ये घटनाएं याद दिलाती हैं कि पहाड़ में बरसात का मौसम किस कदर चुनौतीपूर्ण होता है।

बरसातों में चुनाव कराना सिर्फ तारीखें तय कर देना नहीं है, बल्कि यह इंसानी जिंदगी की चुनौतियों और लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने की एक परीक्षा है। जैसे 5 जुलाई 2001 को पौड़ी गढ़वाल में मलबा गिरने से 35 लोगों की मौत हुई थी, वैसे ही हर बरसात नया डर लेकर आती है।