पहाड़ों पर विकास बनाम विनाश — उत्तर भारत में बारिश और भूस्खलन की त्रासदी

अर्जुन राणा
हर साल जुलाई से सितंबर तक उत्तर भारत, विशेषकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी इलाकों में बारिश विनाश का पर्याय बन जाती है। सड़कें टूट जाती हैं, घर जमींदोज़ हो जाते हैं, और लोगों की ज़िंदगी मौत के साए में आ जाती है। यह त्रासदी नई नहीं है, लेकिन इसका स्वरूप अब पहले से कहीं अधिक भयावह होता जा रहा है। इसके पीछे केवल प्राकृतिक कारण नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत भूलें और अनियंत्रित विकास की मानसिकता भी बराबर जिम्मेदार है।
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पिछले तीस वर्षों में विकास के नाम पर लाखों पेड़ काटे गए हैं। वनाच्छादित पहाड़ियों को कंक्रीट की दीवारों में तब्दील कर दिया गया है। सड़कों और होटलों का जाल बिछाकर हमने पहाड़ों का वजन बढ़ा दिया है। अकेले शिमला और नैनीताल जैसे संवेदनशील इलाकों में दो सौ से अधिक होटल हैं, जिनका भार अब पहाड़ सहन नहीं कर पा रहे। बारिश के मौसम में लैंडस्लाइड्स और भूस्खलन अब सामान्य हो चुके हैं, जिनसे हर साल सैकड़ों जानें जाती हैं और करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है।
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार, इन इलाकों में हरित आवरण के कारण नमी अधिक रहती है और तापमान कम, जिससे वर्षा तेज़ और गहन होती है। ऊपर से 3000 मीटर की ऊंचाई से गिरता पानी अधिक वेग और घनत्व लेकर आता है, जिससे जमीन का क्षरण और भूस्खलन होता है। जियोलॉजी की दृष्टि से ये पहाड़ ‘डिसइंटीग्रेटेड रॉक’ के बने हैं, जो अस्थिर होते हैं। उन पर सुरंगें, चौड़ी सड़कों और बड़े-बड़े भवनों का निर्माण उनके अस्तित्व को और भी कमजोर कर रहा है।
दुर्भाग्यवश, सरकारें अब भी पर्यटन और विकास को प्राथमिकता देती हैं, लेकिन पर्यावरणीय संतुलन की अनदेखी करती हैं। स्थानीय निवासियों की पारंपरिक निर्माण तकनीकों से हम कुछ नहीं सीखते — जहां लकड़ी और हल्के सामानों से भवन बनाए जाते थे, वहीं अब सीमेंट और लोहे के अंधाधुंध उपयोग से पूरे पहाड़ी क्षेत्र को “कंक्रीट जंगल” में बदल दिया गया है। जम्मू-कश्मीर का उदाहरण हमारे सामने है — जहां आतंकवाद के कारण वर्षों तक विकास रुका रहा, वहां आज भी पर्यावरण अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है।
आगामी समय में यदि हमने चेतना नहीं दिखाई, तो यह समस्या केवल मानसून तक सीमित नहीं रहेगी। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश पहले से ही भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र हैं। अगर कभी तीव्रता 8 रिएक्टर स्केल का भूकंप आया, तो तबाही की कल्पना करना भी मुश्किल है। ऐसे में बांधों का निर्माण, सुरंगों की खुदाई और पेड़ों की कटाई जैसी गतिविधियाँ इस संकट को और गंभीर बना रही हैं।
समाधान अब यही है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाया जाए। पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण पर सख्त नियम बनें, पारंपरिक शैली को पुनर्जीवित किया जाए, और हर निर्माण से पहले पर्यावरणीय प्रभाव का गहराई से अध्ययन किया जाए। अगर अब भी हमने प्रकृति को नज़रअंदाज़ किया, तो वह अपनी भाषा में जवाब देना जारी रखेगी — तबाही और मौत के ज़रिए।