December 5, 2025

पंचायती चुनाव उत्तराखंड: गोलियों की गूंज में डूबते पहाड़

( अर्जुन राणा )

कभी हिमालयी सौंदर्य, सादगी और शांत समाज के लिए पहचाने जाने वाला उत्तराखंड, अब राजनीति की बारूदी बयार में सांस ले रहा है। हाल ही में सम्पन्न पंचायती चुनावों ने इस कड़वी सच्चाई को उजागर कर दिया है कि “शांत पहाड़” की पहचान अब गोलियों की गूंज और गुंडों के साए में धुंधला रही है। बेतालघाट में खुलेआम गोलियां चलना, नैनीताल में दिनदहाड़े छह जिला पंचायत सदस्यों का गुंडों द्वारा अपहरण—ये घटनाएं किसी फिल्मी पटकथा की कल्पना नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र के माथे पर उभरते बारूद के धब्बे हैं। जिन पंचायत चुनावों को लोकतंत्र का सबसे पवित्र और सबसे निचला, यानी सबसे जनसुलभ स्तर माना जाता था, वे अब सेवा के मंच से खिसककर दबाव और डर के अखाड़े में बदल रहे हैं।

पहाड़ों में चुनाव कभी उत्सव होते थे—गांव की चौपालों में खुली बहसें, घर-घर चाय और गुड़ की मिठास, उम्मीदवार की सादगी और विश्वास। आज तस्वीर बदल चुकी है। अब चौपाल की जगह फुसफुसाहट ने ले ली है, और चर्चा का विषय है—“कौन किसको उठा ले गया” या “किसके पास कितनी बंदूकें हैं।” राजनीति में सेवा भाव की जगह “सेना भाव” हावी है, जहां समर्थक अब मतदाता कम और हथियारबंद अंगरक्षक ज्यादा नज़र आते हैं। अगर यही सिलसिला जारी रहा, तो पंचायत से विधानसभा तक बाहुबलियों के टिकट पक्के होंगे, वोट डर और लालच के बीच गिरेंगे और लोकतंत्र सिर्फ किताबों की परिभाषा में बचा रहेगा। गांवों में ऐसी गहरी गुटबाज़ी और हिंसा की लकीरें खिंचेंगी, जिन्हें भरने में पीढ़ियां लग जाएंगी।

यह दौर सरकार और जनता—दोनों की असली परीक्षा का है। पुलिस और प्रशासन को तुरंत, निष्पक्ष और कठोर कार्रवाई करनी होगी, ताकि सियासी दबाव की ढाल चकनाचूर हो। लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि मतदाता अपने विवेक की ताकत को याद रखें और डर के साए में नहीं, अपने निर्णय की रोशनी में वोट दें। कभी कहा जाता था—“उत्तराखंड में नेता चुनाव जीतने के लिए वोट गिनते हैं, गुंडे नहीं गिनते।” आज हालात ऐसे हैं कि लगता है यह पंक्ति उलटी लिखनी पड़ेगी। अगर यही रफ्तार रही, तो आने वाले सालों में चुनाव प्रचार के लिए पोस्टर और बैनर नहीं, बल्कि हथियारों के चमचमाते कैटलॉग छपेंगे।

उत्तराखंड का इतिहास गवाह है कि यह धरती सेवा, ईमानदारी और संघर्ष की नींव पर खड़ी हुई थी। लेकिन अगर राजनीति की दिशा अब भी नहीं बदली, तो आने वाली पीढ़ियां हमें इस कड़वे वाक्य में याद करेंगी—“हमारे पुरखे पहाड़ों में रहते थे, लेकिन उनके सिर पर हमेशा चुनावी बारूद रखा होता था।”