November 22, 2024

बेखौफ अपराधी और विलंबित न्याय

 

(  आखरीआंख )

ऐसा लगता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओÓ का नारा उन परिवारों के लिए चिंता का कारण बनता जा रहा है, जिनके घरों में बेटियां हैं। इसकी वजह बचियों से बलात्कार और यौन हिंसा के अपराधों में निरंतर वृद्धि होना है। सरकार ने इस तरह के अपराधों पर अंकुश पाने के लिए कानून में कठोर सज़ा का प्रावधान किया है लेकिन इसके बावजूद बचियों से बलात्कार और उनकी हत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं।

पिछले कुछ दिनों में उ.प्र. के अलीगढ़ से लेकर मध्य प्रदेश के भोपाल तथा अन्य रायों में मासूम बचियों से बलात्कार और उनकी हत्या की घटनाओं से तो ऐसा लगता है कि मानो विकृत मानसिकता वाले व्यक्तियों को कानून में कठोर सज़ा के प्रावधान से भी कोई भय नहीं है।

संसद पहले ही 12 साल से कम आयु की किशोरियों से बलात्कार और सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध के लिए कानून में मौत की सज़ा का प्रावधान कर चुकी है। इसके बावजूद मासूमों से दुष्कर्म की घटनाओं में कहीं कोई कमी नजर नहीं आ रही है। सरकार ने हालांकि संबंधित कानूनों में बदलाव करके ऐसे अपराधों की जांच दो महीने के भीतर पूरी करने और छह महीने में फैसला सुनाने की व्यवस्था की है। लेकिन वास्तव में ऐसा हो नहीं पा रहा है। ऐसे मामलों की संया लगातार बढ़ती जा रही है। इसकी एक वजह पर्याप्त संया में विशेष अदालतों, न्यायाधीशों, जांच अधिकारियों और लोक अभियोजकों का नहीं होना भी है। यह काम राय सरकार का है।

सरकार को इंटरनेट पर सहजता से अश्लील वीडियो क्लिप और विकृत मानसिकता वाली सामग्री पेश करने वाली सभी वेबसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई को गति प्रदान करनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत में किसी भी स्थिति में वेबसाइट्स पर इस तरह की सामग्री उपलब्ध नहीं हो। सरकार ने पिछले साल अपराध विधि (संशोधन) कानून, के माध्यम से भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य कानून, दंड प्रक्रिया संहिता और यौन अपराधों से बचों का संरक्षण कानून में आवश्यक संशोधन किये थे।

इस कानून में 12 साल की आयु तक की बचियों से बलात्कार के अपराध में कम से कम 20 साल की कैद और इस आयु वर्ग की बचियों से सामूहिक बलात्कार के अपराध में जीवनपर्यंत कैद या मृत्यु दंड का प्रावधान किया गया है। इसी तरह से 16 साल से कम आयु की किशोरी से बलात्कार के जुर्म में कम से कम दस साल की सज़ा का प्रावधान है, जिसकी अवधि 20 साल अथवा उसे बढ़ाकर जीवनपर्यंत कैद की जा सकती है। इन संशोधनों के बाद किसी महिला से बलात्कार के अपराध में न्यूनतम सज़ा सात साल से बढ़ाकर दस साल कर दी गयी है, जिसे उम्रकैद तक बढ़ाया जा सकता है।

कानून में प्रावधान के बावजूद देखा गया है कि ऐसे मुकदमों की सुनवाई के संबंध में कानून में स्पष्ट प्रावधान के बावजूद इसे किसी न किसी आधार पर लंबा खींचने की प्रवृत्ति में बदलाव नहीं आया है।

चूंकि हमारे देश की न्याय प्रणाली कई चरणों वाली है और अगर छह महीने के भीतर निचली अदालत फैसला सुना दे तो भी दोषियों के पास उच न्यायालय, उचतम न्यायालय में जाने के विकल्प उपलब्ध रहते हैं और इस तरह कई साल तक कानूनी दांव-पेचों का सहारा लेकर वे फांसी के फंदे से बचते रहते हैं। निर्भया के दोषियों का मामला हमारे सामने ही है। इसलिए आवश्यकता है कि कानून में ही इन सारे विकल्पों का इस्तेमाल करने और अंतिम निर्णय तक पहुंचने के लिए अधिकतम समय सीमा निर्धारित करने पर विचार किया जाये। अन्यथा कठोर सज़ा के प्रावधान बेमानी ही नजर आयेंगे।

इस तरह के अपराधों में पुलिस की जांच पूरी तरह त्रुटिहीन होनी चाहिए ताकि कोई भी आरोपी कानून के फंदे से बच नहीं सके। मध्य प्रदेश में फरवरी, 2018 में बचियों से बलात्कार के दोषियों के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान करने संबंधी कानून बनने के बाद से राय में यौन अपराधों से बचों के संरक्षण कानून के तहत विशेष अदालतें गठित की गयीं। इन अदालतों ने अब तक 26 दोषियों को मौत की सज़ा सुनाई है।

लेकिन दो महीने पहले, इसी तरह के एक मामले में मद्रास उच न्यायालय ने बलात्कार और हत्या के अपराध में पुलिस और अभियोजन को अनेक खामियों के कारण आड़े हाथ लिया और कहा कि मृतक की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्कार होने की पुष्टि ही नहीं है। उच न्यायालय ने इस तरह की खामियों के मद्देनजर इस मामले में मौत की सज़ा पाये तीन अभियुक्तों को बरी कर दिया।

ऐसी स्थिति में आवश्यकता है कि उचतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित दिशानिर्देशों के तहत सभी उच न्यायालय यह सुनिश्चित करें कि ऐसे मामलों की सुनवाई प्रक्रिया तेज की जाये।