भूख में नेपाल व पाकिस्तान से पिछड़ते भारत पर उठते सवालिया निशान?
आखरीआंख
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रैंकिंग में भारत का नेपाल व पाक से पिछडऩा हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। यह आंकड़ा हमारे विकास के तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाता है। हमें ऐसे समग्र विकास की राह चुनने की नसीहत देता है, जिसमें भूख से निपटना हमारी प्राथमिकता हो। तमाम विकास के दावों के बीच यदि विश्व के भूख के सूचकांक में हमारा स्थान 117 देशों में 102वें नंबर पर आता है तो हमारी तमाम नीतियां सवालों के घेरे में आ जाती हैं। यह विचित्र संयोग ही कहा जायेगा कि जिस समय दुनिया को भूख की चुनौती से निपटने हेतु राह दिखाने के लिये भारत के एक प्रतिभावान अर्थशास्त्री को प्रतिष्ठित नोबेल समान देने की घोषणा हुई है, तभी भूख सूचकांक में हमारी स्थिति सामने आई है। सत्ताधीश सोचें कि इस सूची में श्रीलंका और नेपाल जैसे देश हमसे आगे कैसे हैं जो कहीं न कहीं देश के आर्थिक संसाधनों का न्यायसंगत बंटवारा न होने को भी दर्शाता है। नि:संदेह देश में उदारीकरण व वैश्वीकरण के दौर के बाद अमीरी-गरीबी के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। दरअसल, मानव विकास सूचकांक आधार वर्ष 2014 से 2018 के बीच विभिन्न देशों में बचों के कुपोषण के आंकड़ों पर आधारित है, जिसमें बचों के शारीरिक विकास और मृत्यु दर को आधार बनाया गया है। कमोबेश केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े में बचों के कुपोषण की स्थिति हंगर इंडेक्स में वर्णित आंकड़ों से साय रखती है। ऐसे में भारत के विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने के दावों की पोल खुलती है। देश में बचों की एक बड़ी आबादी को पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा है जो हमारे विकास के दावों के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह है। यदि हम नागरिकों को भोजन, शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधा उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं तो विकास के तमाम आंकड़े बेमानी हो जाते हैं। आज नीतियों में बदलाव करने की जरूरत है।
विकास की चमक के दावों के बावजूद यदि कुपोषण व भूख के आंकड़े देश की छवि को धूमिल कर रहे हैं तो नि:संदेह हमारे विकास के नीतिगत स्तर पर बड़ा खोट है। देश में भरपूर अनाज का उत्पादन हो रहा है। खाद्यान्न के भंडार भरे हैं। बल्कि हर साल लाखों टन अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ जाता है। यादा दिन नहीं हुए जब तंत्र की काहिली देखकर सुप्रीमकोर्ट को सत्ताधीशों से कहना पड़ा था कि अनाज सड़ाने से अछा है कि गरीबों में बांट दिया जाये। मगर शीर्ष अदालत की फटकार के बावजूद हालात बद से बदतर ही हुए हैं। अनाज आज भी सड़ता है और बड़ी आबादी कुपोषण का शिकार है। भुखमरी के हालिया सूचकांक हमारी चिंता को बढ़ाने वाले हैं क्योंकि ये आंकड़े युद्धग्रस्त यमन से भी नीचे हैं। नि:संदेह भारत सवा अरब की जनसंया वाला देश है और आबादी के अनुपात में कुपोषण की समस्या को देखा जाना चाहिए। मगर इस समस्या की जड़ सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती आबादी के नियंत्रण के गंभीर प्रयास भी तो नहीं किये जा रहे हैं। बढ़ती आबादी आने वाले समय में मुश्किलें बढ़ाएगी। ऐसे में सत्ताधीशों को ध्यान रहे कि विकास की सार्थकता तभी है जब देश की जनता की भोजन, स्वास्थ्य व शिक्षा की मूलभूत जरूरतें पूरी हो सकें। हर नागरिक को भरपेट और संतुलित भोजन उपलब्ध कराना सरकारों की भी जिमेदारी है। देश के बुनियादी पहलुओं को नजरअंदाज करके सर्वांगीण विकास के लक्ष्य हासिल नहीं किये जा सकते। हर व्यक्ति की थाली में पर्याप्त और पौष्टिक आहार पहुंचना ही चाहिए। तभी विकास की संपूर्ण अवधारणा पूरी होती है। विडंबना है कि आज भी विकास का लाभ सिर्फ एक तबके को ही हो रहा है। इस समस्या से निपटने के लिये नीतिगत स्तर पर बड़ी पहल की जरूरत है। ऐसी इछाशक्ति हमारे सत्ताधीशों में नजर नहीं आती।