November 22, 2024

कब तक आ पाएंगे अच्छे दिन

परिवर्तन के बिना कोई क्रांति नहीं हो सकती। राजनीति, अर्थव्यवस्था या समाज का चेहरा बदलने के लिए क्रांति आह्वान करना ही पड़ता है। भारत को आजाद हुए पौन सदी के करीब हो गयी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को अंगीकार किये भी इकहत्तरवां बरस चल रहा है। इन सब बरसों में आम आदमी क्या चाहता रहा है यही न कि इस लोकतांत्रिक और आजाद माहौल में उसकी आवाज सुनी जाये। जो नया युग गुलामी के अंधेरों को तिरोहित करके देश में उदित हुआ, उसमें उसे अपने भविष्य का आंगन उजला नजर आये। उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला आंगन। उसके और उसके परिवार के लिए सहज ढंग से रोटी, कपड़े और मकान की गारंटी देने वाला आंगन। उसकी सन्तति के लिए ऐसी शिक्षा का प्रबंध करने वाला, जो व्यावसायिक हो। जिसकी डिग्रियां उसे निठल्लेपन की सौगात न दें। जिससे प्राप्त चिन्तन क्षमता उसे संकीर्णता के गलियारों से निकालकर अध्ययन, अध्यवसाय का एक उन्मुक्त आकाश दे सके।
हमें वास्तविक स्वाधीनता और लोकतांत्रिक व्यवस्था में उचित स्थान की चाहत करते हुए इतने बरस बीत गये, लेकिन पेट भरने से लेकर काम तक की, चिन्तन से लेकर व्यावहारिक आजादी प्राप्त न हो सकी। वोट की ताकत से देश में सत्ता परिवर्तन हुए। हर परिवर्तन एक नयी सवेर का वादा लेकर आया। लेकिन ये वादे नारों के कोहरीले संग्राम में ही गुम होते नजर आते रहे।
कोरोना महामारी के एक बरस की प्रतिबन्धित घरबन्दी और निष्क्रियता के बाद आज भी देश का आमजन ऐसी शिक्षा प्राप्त कर रहा है, जिसमें उसके लिए सार्थक काम की कोई गारंटी नहीं। दैनिक जीवन में प्राप्त हो सकने वाली खुशहाली का निनतम स्तर, जो इस बरस के खुशहाली सूचकांक की तरह इसे बरसों से विश्व के खुशहाली सूचकांक के निनतम कोटि के देशों में रख रहा है।
नये नेतृत्व के साथ छह बरस पहले शुरू हुई नयी व्यवस्था देश के आम आदमी के लिए ‘अछे दिनÓ लाने के वादे के साथ शुरू हुई थी। वादा आज भी समय-समय पर दोहरा दिया जाता है। लेकिन हर अंधेरा युग गुजरने के बाद भी आम आदमी को क्यों लगता है कि अछे दिन उससे उसी तरह कोसों दूर हैं।
कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए एक प्रभावशाली टीकाकरण की शुरुआत सोलह जनवरी को हो गयी थी। अभी तक द्रुत गति के साथ देश में एक करोड़ से अधिक लोगों को टीका लगा दिया गया है। छह महीने में तीस करोड़ लोगों को इस अभियान का लाभ देने का वादा है। तब चिकित्सा कर्मी, प्रशासनिक अधिकारी, वरिष्ठ नागरिक, गभीर रोगी और फिर जन-जन यह टीका प्राप्त कर चुके होंगे, जिसका कोई बुरा प्रभाव नजर नहीं आया।
स्पष्ट है िक देश में महामारी का दबाव भी कम हो गया है। मृत्युदर भी 1.4 प्रतिशत पर आ गयी, रिकवरी रेट 97 प्रतिशत से ऊपर चला गया। उपचार के लिए केवल एक टीका नहीं, भारत, ब्रिटेन, अमेरिका ही नहीं, रूस आदि से भी प्रमाणित टीके मैदान में उतर आये। लेकिन अभी तक सामान्य जिंदगी नहीं लौटी। कोरोना वायरस का गिरगिटिया रूप अभी तक सामान्य गतिविधियों को भय के अंधेरों में कैद कर रहा है। महामारी की दूसरी और तीसरी लहर अपनी आमद की संभावना से लोगों को पूरी तरह से सक्रिय नहीं होने दे रही। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक कोरोना संक्रमण मनोरंजन और सार्वजनिक क्षेत्र को फालिजग्रस्त किये है। शिक्षा परिसरों को सामान्य चहलपहल से महरूम होना पड़ा है। युवा शक्ति अपना इष्टतम उपयोग होता न देख अवसाद से लेकर मोहभंग की अवस्था में है।
कोरोना महामारी के भयावह दबाव से देश कुछ मुक्त हो गया। लेकिन यह कैसी स्थिति है कि जो देश को बेकारी की वह दर दे गयी, जो उसने पिछले 45 बरस में न देखी थी। दैनिक उपयोग की जरूरी चीजों की महंगाई तो सामान्य जीवन को विकट बनाने लगी है। हमेशा शून्य से नीचे रहने वाला थोक मूल्य सूचकांक भी जब बढ़कर 2.8 प्रतिशत से ऊपर चला जाये, तो भला बताइए परचून की कीमतें आम आदमी की जेब पर क्या कुठाराघात कर रही होंगी साधारण खाने-पीने की चीजें आटा, दालें, सब्जी, फल वगैरह ही नहीं, जब सामान्य गतिशीलता देने वाला पेट्रोल और डीजल भी सौ और नब्बे रुपये प्रति लिटर का दाम पार करता नजर आये तो भला बताइए पूरे देश के लिए ‘एक वस्तु-एक करÓ अथवा ‘एक फसल-एक करÓ का सपना पूरा होगा तो कैसे
केवल बेबस होते वाहन ही नहीं, रसोई का मिजाज बिगाड़ देने वाले सिलेंडरों की कीमतें भी आम आदमी को कितना प्रताडि़त कर देती हैं कि अछे दिनों के अहसास का तो कहीं स्पन्दन भी नहीं। बेकारी, महंगाई से आक्रांत इस माहौल में इस वर्ष का विश्व का भ्रष्टाचार सूचकांक बताता है कि नोटबंदी के साथ भ्रष्टाचार के िवरुद्ध रणभेरी फूंकने वाले इस नवयुग में भ्रष्ट देशों की सूची में अपना देश एक और पायदान पतनशील हो गया। दुनिया के सबसे बड़े दस रिश्वतखोर देशों की सूची आयी तो भारत इनमें से एक था।
कोरोना महामारी को निष्क्रिय कर देने वाले पैगाम अभी विदाई नहीं ले रहे। आर्थिक विकास दर की गिरावट चिंता बढ़ा रही है। सकल घरेलू उत्पादन में 23 प्रतिशत तक गिरावट हो गयी थी। पुनर्जीवित होते हुए आर्थिक वर्ष के सपने लेकर निवेश प्रोत्साहक वित्तमंत्री सीतारमण का नया बजट आ चुका है। स्वर्णिम आशायें देने वाला बजट।
लेकिन कैसे पूरी होगी ये आशायें इस समय देश की सबसे बड़ी जरूरत तो देश की निरंतर बेरोजगार होती युवा शक्ति के लिए नये रोजगारों का विस्तृत संसार रचने की है। लेकिन एक सर्वेक्षण रिपोर्ट कहती है कि यह माहौल देश के अरबपतियों को खरबपति बना गरीब और गरीब कर गया, और बेकारी के रोग को कोरोना काल की अतिरिक्त बेकारी के रोग ने और भयावह बना दिया।
सेंसेक्स पचास हजार के पार जा टिकने का रिकार्ड बना गया, लेकिन रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालान से लेकर साधारण यथार्थवादी अर्थशास्त्री पहचानते हैं कि इस बजट से निवेशित हो रही आर्थिक गतिविधियां देश के लिए अतिरिक्त पूंजी निर्माण का वातावरण तो देंगी, रोजगार के अवसरों के निर्माण का नहीं।
जरूरत रोजगार अवसरों के निर्माण की है क्योंकि इसकी क्षमता में ही वे अछे दिन छिपे हैं, जहां बढ़ती आपूर्ति के मुताबिक नयी मांग पैदा होगी। इसका उचित संतुलन महंगाई की हायतौबा खत्म करेगा। लेकिन इसकी संभावना लघु, सूक्ष्म और मध्यम उद्योगों के विकास में छिपी है। कृषि आधारित उद्योगों के विकास में छिपी है क्योंिक इस विकास में ही देश की युवा पीढ़ी के लिए नवरोजगार की अपार संभावनायें छिपी हैं। परन्तु अभी तक कोरोना काल के बाद अवतरित होती नयी आर्थिक रूपरेखा में इन्हें मौखिक समर्थन तो मिला है, मगर व्यावहारिक निवेश समर्थन नहीं। अछे दिनों के आने का इंतजार सबको है। लेकिन यह अर्थनीति की प्राथमिकताओं को वंचित वर्ग की आकांक्षाओं पर केंद्रित करके ही होगा।
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