November 22, 2024

जनता के प्रति सत्ताधारियों की संवेदनहीनता

मौजूदा महामारी ने हमें आसन्न संकट का अहसास करवा दिया है। समझदार मुल्क वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इससे लड़ रहे हैं और राष्ट्रीय समन्वित कौशल एवं प्रयास के साथ संघर्षरत हैं। अधिकांश देशों ने वायरस का अनियंत्रित संक्रमण रोका है और सामान्य स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं। जबकि हमारा देश, जिसने हाल ही में कोरोना पर विजय पाने का दावा किया, संक्रमण की दूसरी लहर से जूझ रहा है। हमारे सीमित संसाधन अभी से कम पडऩे लगे हैं। पिछले साल मनमर्जी कर हमारे नेताओं ने बिना वक्त दिए सख्त लॉकडाउन लगाते समय उन करोड़ों लोगों के बारे में नहीं सोचा जो इसकी वजह से या तो बेरोजगार होने वाले थे या उन्हें पुश्तैनी घर पहुुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था। इस त्रासदी की कहानियां भावी पीढिय़ों में सुनी-सुनाई जाएंगी। छोटे कामधंधों और स्वरोजगार में लगे लाखों लोग कंक्रीट के जंगलों के शहर में दूसरों के रहमो-करम पर जीने को मजबूर हुए, जहां उन्हें सरकार की ओर से कुछ मिला तो वह था ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्टÓ यानी ताकतवर ही बचेगा, का ढंग अपनाने की मजबूरी।
अब जब महामारी की दूसरी लहर की दस्तक है तो हमारे नेता हमें फिर से घरों में कैद कर देंगे। एक कहावत है ‘तूफान आता है तो पक्के घर की बनिस्पत झोपडिय़ां उड़ा ले जाता है।Ó क्या राजनेताओं के लिए हम खिलौना नहीं हैं, जब वे चुनावी रैलियों, उत्सवों और तीर्थों पर आयोजनों में लाखों की भीड़ इक_ा होने दे रहे हैं  क्या उस वक्त नेतागण हमसे खेल नहीं रहे होते जब आधुनिक युग के ग्लैडिएटर्स रूपी क्रिकेटरों को भिड़ाकर ठीक वैसा तमाशा रचा रहे हैं, जैसा कभी रोमन ‘कॉलोशिएमÓ में करवाया जाता था  क्या ‘खुदाÓ बन बैठे लोग हमारे जीवन से खिलवाड़ नहीं करते, जब आमजन की बारी काम-दिहाड़ी पर जाने की आए तो उन्हें अलग नियमों और कर्फ्यू जैसे प्रतिबंध से घरों तक सीमित कर देते हैं।
यदि कोविड-19 की दूसरी लहर का पूर्वानुमान लगाने वाली दूरदृष्टि वाली सरकार होती तो पहले अनुभव से सीखकर तैयारी करके रखती। यदि हम पिछले सालों के बजटीय प्रावधानों को देखें तो पाते हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए रखे जाने वाले बजट को तरजीह कम ही है। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में, केंद्र और राज्य सरकारों को, पहली लहर के घटने पर हाथ में आए समय का सदुपयोग करते हुए तेजी से स्वास्थ्य तंत्र का विकास करना चाहिए था। यदि चीन दो-तीन हफ्तों में केवल कोविड-19 के काम आने वाला बहुमंजिला अस्पताल बना सकता है तो कोई वजह नहीं कि हम न कर पाएं। महामारी से निपटने हेतु कारगर स्वास्थ्य तंत्र बनाया जाना चाहिए था। नये अस्पतालों को यथेष्ठ मात्रा में बिस्तर, आईसीयू वार्ड, वेंटीलेटर, ऑक्सीजन इत्यादि से सुसज्जित किया जाता। राजनीतिक नेतृत्व, अफसरशाही और व्यावसायिक विशेषज्ञों को मिलाकर उच्चस्तरीय समिति बनाई जानी चाहिए थी। इसे एक समयबद्ध राष्ट्रीय रणनीति बनाने का काम सौंपा जाता ताकि देशव्यापी और राज्यस्तरीय योजनाएं बनतीं और इनके क्रियान्वयन को संसाधन जुटाए जा सकते, क्योंकि तय था कि कोविड-19 की दूसरी लहर आएगी। अगर यह युद्धस्तर पर किया जाता और क्रियान्वयन पर पैनी नजर होती तो आज हम बेहतर स्थिति में होते। जबकि हमारा स्वास्थ्य ढांचा नये मामलों से चरमराने लगा है (चाहे यह कमी बिस्तरों की हो या वेंटीलेटर, ऑक्सीजन, दवाओं इत्यादि की), और सरकारें हैं कि उन्हें अपने लॉकडाउन रूपी पहले व आखिरी अमोघ हथियार पर ही भरोसा है।
विकसित देश कुछ चूक के बाद कोविड रोकथाम पर त्वरित प्रतिक्रिया करने लगे थे। उन्होंने नागरिकों को जानी-वित्तीय नुकसान से बचाने को सही ढंग से क्रियान्वित योजनाएं सिरे चढ़ाने हेतु खजाना खोल दिया। अरबों डॉलर लगाकर यूके, कनाडा और अमेरिका ने नागरिकों को महामारी जनित वित्तीय मुश्किलों से राहत देने और जान बचाने को जन-टीकाकरण अभियान चलाये …। गिनाने बैठें तो उक्त उपायों की सूची बहुत लंबी हो जाएगी। जबकि वैक्सीन बनाने हेतु हमारे देश में दुनियाभर में सबसे अधिक क्षमता उपलब्ध है, लेकिन हमने इसका क्या लाभ उठाया है  क्यों हम वैक्सीन दान में देने में लगे जबकि हमारी बड़ी आबादी टीके से महरूम है या इसको लगवाने की जरूरत से अनजान है। या फिर यह मानने को तैयार नहीं है कि कोविड-19 नामक कोई महामारी है या फिर टीका लगवाने में बहुत ज्यादा डरी हुई है। क्यों हम हाथ आए उस बहुमूल्य समय को गंवाने पर तुले रहे जो कुछ महीने पहले मिला था। हमने न तो माकूल तंत्र विकसित किया, न ही इस मुसीबत के बचने को पर्याप्त ज्ञान संचित किया। हमारे पास कोरोना पर विजय पाने और जीडीपी विकास दर का फिर से दहाई का आंकड़ा छू लेने से बनी खुमारी से बाहर निकलने की फुर्सत जो नहीं थी। अब जबकि दूसरी लहर सुरसा की तरह मुंह बाए सामने आन खड़ी हुई है तो सरकार के पास एकमात्र उपाय है, सबको फिर से घरों में कैद कर दो।
आखिर क्यों आसन्न संकट के मद्देनजर स्थिति से निपटने को क्यों समय रहते कोई तार्किक-युक्तिसंगत कदम नहीं उठाए गए  क्या संसाधन नहीं हैं  दरअसल, ऐसा करने को सत्ताधीशों की वैसी प्राथमिकता दिखती ही नहीं जैसी वे चुनावों को देते हैं, चुनाव लड़ते समय तो इनके पास तमाम दक्षता और रणनीतिक अक्ल आ जाती है। आज सरकार की पूरी सोच एक चुनाव जीतने वाली सक्षम मशीन में तबदील होने तक की है। चुनावी संग्राम शुरू होते ही सत्ता पक्ष के महारथी गहराई में उतरकर रणनीति बनाने, इसके क्रियान्वयन में पूरी ताकत लगा देते हैं। तब तो इन्हें बखूबी पता होता है कि चुनाव पूर्व माहौल कैसे बनाना है। इस हेतु केंद्र सरकार द्वारा योजनाओं की घोषणा करना, बड़े पैमाने पर प्रचार हेतु पार्टी कार्यकर्ताओं को घर-घर पहुंचाना और योजना-क्रियान्वयन के वास्ते विभिन्न विभागों से दौड़-धूप करवाना इत्यादि उपाय कैसे करने हैं। अंत में, फिर भी बात न बने तो अपने विरोधियों को नाथने हेतु सत्ता का औजार बना दी गई विभिन्न एजेंसियों जैसे कि सीबीआई, आईएनए, ईडी, आईआरएस जैसे डंडे का इस्तेमाल करना। अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर इन एंजेसियों का ‘समन्वित नृत्यÓ करते देखते ही बनता है, काश सरकार अपनी इस कल्पनाशीलता को सत्ता प्राप्ति की बजाय महामारी से लडऩे में इस्तेमाल करती।
चुनाव आयोजित करने से चूंकि केंद्र और राज्य सरकारों का ज्यादा ध्यान चुनावी गतिविधियों की ओर हो जाता है, अत: कोविड महामारी से निपटने की ओर ध्यान देने का समय बहुत कम बचता है। वहीं राज्य सरकारों के पास न तो धन है, न ही वैक्सीन का अख्तियार था। सभी कुछ केंद्र सरकार के हाथों में केंद्रित है और वह जिसे चाहे, उसे ही नवाज़ती है– पारदर्शिता के अभाव में कयास ही लगाया जा सकता है कि वास्तव में योजना है क्या, विपक्ष के शब्दों में कहें तो अधिकांशत: पक्षपात है।
यहां सरकार को आईना दिखाए जाने की जरूरत है। वही नदारद है, क्योंकि वह कई अनियमितताओं को बढ़ावा दे रही है, मसलन विशाल राजनीतिक रैलियां, जनसैलाब वाले तीर्थाटन और अनसुलझे रोष-प्रदर्शन, जिनमें कोविड-सुरक्षात्मक संहिता का पालन होते शायद ही देखने को मिलता है। इन तमाम आयोजनों को होने देने के बावजूद मीडिया का सरकार की खुलकर आलोचना करने से बचना, जबकि एक अनाड़ी भी बता सकता है कि संक्रमण फैलाने की अत्यधिक संभावना रखने वाले यह आयोजन होने देने का हश्र कितना भयावह निकलेगा। होना तो यह चाहिए था कि मीडिया बाकायदा नाम लेकर उन लोगों को ‘मशहूरÓ करती, जिनकी जिम्मेवारी उक्त आयोजनों को रोकने की थी। आज ज्यादातर चैनलों के विचार-तकरार पैनलों पर पूरी जानकारी रखने वाले पढ़े-लिखे विशेषज्ञ पाना एक दुर्लभ दृश्य है, क्योंकि अधिकतर समय वही गिने-चुने ‘हरफनमौलाÓ बुलाए जाते हैं, जो किसी भी विषय पर अपना अधकचरा ज्ञान उड़ेलने लगते हैं।
आखिर में, देश का आम नागरिक उच्चतम न्यायपालिका द्वारा ज्यादा सक्रियता दिखाए जाने की उम्मीद कर रहा है। न्यायाधीशों को किसने रोका है कि करोड़ों लोगों की जान पर बन आने वाले आयोजन होने देने पर सरकार की खिंचाई और जवाबतलबी न करें  वे चाहते तो सरकार का उत्तर आने के बाद संज्ञान लेकर परिणाम पाना सुनिश्चित करवा सकते थे। क्या राष्ट्रव्यापी स्वास्थ्य आपदा इनके लिए एक गंभीर आपातकालिक विपदा में नहीं आती  संक्रमण के मामले में भारत पहले ही विश्व में दूसरे स्थान पर है, वह देश जहां दो लाख से ज्यादा लोग कोरोना से मर चुके हों, क्या यह मंजर आपातकाल और प्राथमिकता में गिनने लायक नहीं  यह परिदृश्य अमेरिका जैसे उन देशों से विपरीत है जहां एक सक्रिय और सजग न्यायपालिका अपने निर्णयों से न केवल लोकतंत्र को बचाने में मदद करती है बल्कि महामारी से लड़ाई में सहायक होती भी पाई जाती है। अगर पहले ही उचित योजना और यथेष्ठ क्रियान्वयन किया गया होता तो आज महामारी को लेकर हमारी स्थिति भी अलग होती और दूसरी लहर की भयावहता न भुगतनी पड़ती, न ही आर्थिकी में आगे अवनति और बेरोजगारी बढऩे की संभावना बनती।