आपराधिक लापरवाही की जवाबदेही तय हो
पांच राज्यों में मतदान पूरा हो चुका है और दो मई को नतीजे भी आ गए ह । चुनाव में कौन जीतता है और कौन हारता है, यह मतदाता तय कर चुका है। मतगणना से मतदाता के निर्णय का पता चल जायेगा, पर एक बात जो स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है, वह हमारे तंत्र की विफलता की है। मद्रास उच्च न्यायालय की हाल की कठोर टिप्पणी यह स्पष्ट कर देती है कि इस चुनाव में हमारे चुनाव आयोग की भूमिका पर बहुत गहरा धब्बा लगा है। न्यायालय के समक्ष दो मई को होने वाली मतगणना के समय कोविड नियमों के पालन का मुद्दा था और कठोर तथा स्पष्ट शब्दों में न्यायालय ने कहा है कि आज जो स्थिति पैदा हुई है, उसके लिए ‘चुनाव आयोग अकेला जि़म्मेदार है।Ó न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया है कि शायद आयोग पर हत्या का आरोप भी लग सकता है!
यह न्यायालय का निर्णय नहीं है, पर पांच राज्यों में हुए इस चुनाव में जिस तरह से महामारी के लिए लागू नियमों की धज्जियां उड़ाई गयी हैं, उसकी इससे कठोर आलोचना शायद नहीं हो सकती थी। यूं तो जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां लगभग सभी जगह कोविड नियमों की खुली अवहेलना हुई है, पर मतदान की लंबी अवधि के चलते पश्चिम बंगाल इस अराजकता का सबसे बड़ा शिकार हुआ है। निश्चित रूप से जनता स्वयं भी इसके लिए दोषी है, पर इस अराजकता के लिए नेतृत्व का दायित्व सबसे ज़्यादा रहा है। समूचे नेतृत्व ने, चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का हो, इस संदर्भ में घटिया और अनुत्तरदायी आचरण का ही परिचय दिया है।
यह सही है कि चुनाव आयोग ने इन चुनावों के लिए एक नियमावली घोषित की थी, पर न तो हमारे समूचे राजनीतिक नेतृत्व ने इसके पालन की आवश्यकता महसूस की और न ही चुनाव आयोग ने यह ज़रूरी समझा कि वह अपने घोषित नियमों का पालन करवाने की कोई गंभीर कोशिश करे। सच कहा जाये तो राजनेताओं ने जो कुछ किया, और चुनाव आयोग ने जो कुछ नहीं किया, वह सब अपराध की श्रेणी में ही आता है। दुर्भाग्य यह भी है कि इस अपराध की सज़ा वह जनता भुगतेगी, भुगत रही है, जिसने नेताओं की इस बात पर भरोसा किया कि चुनाव की गंगा में महामारी का खतरा धुल जायेगा।
हज़ारों की भीड़ वाली चुनावी रैलियां करने और ‘रोड शोÓ करने में हमारे नेताओं को जऱा भी संकोच नहीं हुआ। किसी नेता को इस बात की चिंता नहीं थी कि जनता ने मास्क लगाने जैसी जरूरी एहतियात भी बरती है या नहीं। हज़ारों की भीड़ में सामाजिक दूरी जैसी कोई बात तो माने रख ही नहीं सकती। नियमों की यह आपराधिक अनदेखी लगातार होती रही और चुनाव आयोग को जैसे कुछ दिख ही नहीं रहा था। प्रचार के आखिरी दौर में जब कांग्रेस पार्टी के नेता ने अपनी रैलियां रद्द करने की घोषणा की तब हमारे प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को भी लगा कि कहीं विरोधी को इस दांव का लाभ न मिल जाये। उन्होंने भी आनन-फानन में अपनी शेष रैलियां रद्द करने की घोषणा कर दी। इस तरह, जब सत्तारूढ़ दल की ओर से हरी झंडी मिल गयी तब हमारे चुनाव आयोग को भी जैसे याद आ गया, और उसने भी अपनी ओर से कुछ और प्रतिबंधों की घोषणा कर दी। प्रचार की अवधि घटा दी गयी, रैलियों में एकत्र होने वालों की संख्या पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, आदि… आदि…
क्या चुनाव आयोग से पूछा नहीं जाना चाहिए कि उसने महामारी के खतरे की अनदेखी क्यों की? क्या महामारी की भीषणता को देखते हुए चुनाव स्थगित नहीं किये जा सकते थे? क्या चुनाव प्रचार की अवधि और तरीके पर पहले ही प्रतिबंध नहीं लगाये जा सकते थे? फिर, चुनाव प्रचार के लिए जो नियम तय किये गये थे, जो आचार-संहिता घोषित की गयी थी, उसको लागू कराने की जि़म्मेदारी किसकी थी? देश के अन्यान्य हिस्सों में बिना मास्क के सड़क पर घूमने वालों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करती है, चुनाव वाले राज्यों में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं हुई? क्या चुनाव-आयोग की यह जि़म्मेदारी नहीं थी कि वह संक्रमण के खतरे को देखते हुए ऐसी कोई व्यवस्था करता? चुनाव-आयोग की ही क्यों, क्या हमारे नेताओं का यह दायित्व नहीं बनता था कि वे नियमों के पालन का ध्यान रखते? देश के शीर्षस्थ नेता चुनाव प्रचार में लगे थे, क्या उनसे यह अपेक्षा करना ग़लत है कि वे अपने आचरण से देश की जनता के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करेंगे?
मद्रास हाईकोर्ट ने एक याचिका के संदर्भ में जो कठोर और ज़रूरी टिप्पणी की है, वह हमारी समूची कानून-व्यवस्था के गाल पर एक तमाचा है। मद्रास हाईकोर्ट से पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग को आड़े हाथों लिया था। अन्य कई मामलों में भी न्यायालय हमारे सांविधानिक संस्थानों की आलोचना कर चुका है। ऐसी आलोचना का अवसर आना तो दुर्भाग्य की बात है ही और भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन आलोचनाओं का उन पर कोई असर पड़ता नहीं दिखाई देता जो उचित आचरण न करने के दोषी हैं।
हमारे नेता दूसरे के कुर्ते का दाग़ दिखाने में ही लगे हुए हैं, उन्हें अपने कुर्ते के दाग़ देखने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। दूसरे पर उंगली उठाते समय हमारी दो उंगलियां अपनी ओर भी उठती हैं, यह हमारे नेता याद रखना नहीं चाहते। आज देश एक अभूतपूर्व संकट से गुजऱ रहा है, आवश्यकता इस बात की है कि हम सब मिलकर इस संकट से उबरने का प्रयास करें। पर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की सारी ताकत विरोधी को नीचा दिखाने में ही लगी हुई है। हमारे एक नेता ने कुछ साल पहले ऐसे ही संकट के संदर्भ में कहा था, ‘संकट आते हैं, पर संकट के समय नेतृत्व दिशाहीन, असहाय हो तो संकट गहरा जाता है। आज देश निराशा की गर्त में है… शासकों को सिर्फ कुर्सी बचाने की चिंता है।Ó तब उन्होंने ‘दिल्ली के शहंशाहोंÓ को भी आड़े हाथों लिया था।
आज किसी का नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। आज वे खुद दिल्ली के शहंशाह हैं और जनता उनसे पूछ रही है कि कुर्सी की राजनीति से देश को कब छुटकारा मिलेगा? चुनाव आयोग के बारे में मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी उन सब पर भी लागू होती है जो हमारी आज की स्थिति के लिए जि़म्मेदार हैं। देश हताशा में डूब रहा है। नेतृत्व को अपने असहाय दिखने की भी चिंता नहीं है। हमारे राजनेता कुर्सी बचाने की लड़ाई में व्यस्त हैं। जब सांविधानिक संस्थान ऐसी लड़ाई का हिस्सा बनते दिखने लगें तो संकट का गहराना समझ में आना चाहिए। न्यायालय की प्रतिकूल टिप्पणी एक खतरे की घंटी है। पर सवाल यह है कि इस घंटी की आवाज़ कोई सुन भी रहा है या नहीं?