बीमारी की मार पर सेवा सेक्टर की दरकार
पिछले कुछ सालों में लगभग दो एक जैसी घटनाएं देखने में आईं। एक परिचित महिला जो साथ-साथ बस में जाती थी, अचानक बहुत दिनों तक दिखाई नहीं दीं। कई सहयात्रियों से पूछा, मगर कोई कुछ नहीं बता सका। चिंता हुई। कई बार फोन भी किया तो न किसी ने उठाया, न ही फोन आया।
ऐसे में एक छुट्टी के दिन, उनके घर जा पहुंची। वहां जाकर जो पता चला तो सन्न रह गई। यह महिला दफ्तर में गिर पड़ी थी। उन्हें पता नहीं था कि उन्हें हाई ब्लड प्रेशर है। कभी कोई तकलीफ भी नहीं हुई थी। ब्लड प्रेशर इतना बढ़ा कि उन्हें लकवे ने अपनी चपेट में ले लिया। उनकी आवाज भी चली गई थी।
दूसरी घटना दफ्तर के ही एक वरिष्ठ चित्रकार के साथ हुई। एक रात, वह और उनकी पत्नी घर की छत पर सोए हुए थे। छत पर चारदीवारी नहीं थी। पत्नी रात को उठी और बेध्यानी में उधर चली गई, जिधर दीवार नहीं थी। उनका पांव छत से फिसल गया। सिर में ऐसी चोट लगी कि गर्दन के नीचे पूरे शरीर को लकवा मार गया।
पहली घटना जिस महिला के साथ हुई थी, इस बात को पंद्रह साल बीत चुके हैं, लेकिन वह महिला अभी भी है। फोन पर उनका हालचाल लेती रहती हूं। उनके पति बहुत वृद्ध हो चले हैं। एक बेटी है, जो शादी के बाद, विदेश में रहती है। एक बार बाजार में उनके पति मिल गए तो बेहद निराश थे। कहने लगे-आपको यह बात बुरी लगेगी, मगर जिस समय मेरी पत्नी को लकवा हुआ था, वह चलने-फिरने तो क्या, बिस्तर से उठने के लायक तक नहीं रही थी, उसकी आवाज भी चली गई थी, तब ही वह न रहती तो कम से कम मेरी इतनी कुत्ता-घसीटी न होती। करने वाला अकेला हूं। कितनी भागदौड़ करूं। न दिन में चैन, न रात में। कोई ठीक से देखभाल करने वाला मिलता नहीं। एक बार एक नर्स रखी थी, रात के लिए, वह सो जाती थी। एक रात पत्नी बिस्तर से गिर पड़ी, उसे पता तक नहीं चला। किसी आदमी को रखता हूं, तो यह डर बना रहता है कि लूट-पाटकर, मुझ बूढ़े का गला दबाकर निकल लिया तो क्या होगा। मैं न रहा तो बीमार पत्नी की कौन देखभाल करेगा।
जिन चित्रकार का जिक्र ऊपर किया है, वह तो आयाओं की देखभाल में पत्नी को छोड़कर नौकरी पर भी आते थे। एक दिन गलियारे में खड़े होकर बात करने लगी तो वह फूट-फूटकर रोने लगे। कहने लगे कि बस पूछिए मत, इतनी घुटन है कि क्या करूं। न अपनी तकलीफ किसी से कह सकता हूं, न कोई समझ सकता है। न कहीं आने का, न जाने का। देखती तो हैं कि कैसे बदहवास आफिस आता हूं और कैसे समय से पहले भागता हूं। भगवान ने ऐसा दिन दिखाने के लिए जीवित ही क्यों छोड़ा। पता नहीं मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि इस उम्र में ये दिन देखने पड़े।
इन दोनों की बातें सुनकर, यह बात समझ में आई कि अपने यहां जिसे सर्विस सेक्टर कहते हैं, उसका विकास आज तक नहीं हुआ। खासतौर से बीमारी की स्थिति में। यदि किसी परिवार पर ऐसी आपदा आ पड़े, जहां कोई परिजन इस स्थिति में हो कि उसे चौबीस घंटे देखभाल की जरूरत हो। अभी भी सबके मन में संयुक्त परिवार की अवधारणा बैठी हुई है, जहां किसी आपदा में देखभाल करने वालों या ह्यूमन रिसोर्स की कमी नहीं होती थी। लेकिन इन दिनों तो हालत यह है कि कोई एक हफ्ते के लिए भी अस्पताल में भर्ती हो जाए तो आफत आ जाती है। ऐसे में ऐसे व्यक्ति की देखभाल जो चौबीस घंटे बिस्तर पर हो, वाकई मुश्किल काम है। कारण है, परिवारों का छोटा होना। पति-पत्नी दोनों का नौकरी करना। नौकरी के निश्चित घंटों का न होना। और नौकरी चले जाने की तलवार का चौबीसौ घंटे सिर पर लटके रहना।
फिर यह भी एक कड़वा सच है कि कोई परिजन हमें तभी तक भाता है, जब तक वह हमारी मदद कर सके, उसे हमारी मदद की दरकार न हो। जैसे ही हम पर कोई आश्रित होता है, हम उससे दूर भागने लगते हैं। कोशिश करते हैं कि कैसे बीमार व्यक्ति से जल्दी से जल्दी छुटकारा मिले।
एक बार एक बहुत वरिष्ठ डाक्टर ने बताया था कि उनकी मां पांच साल बिस्तर पर रही थी। डाक्टर ने बड़े दुख से कहा था कि उनकी जिंदगी तो आफत में थी, हमारा जीवन भी मुश्किल हो गया था। सोचिए कि इस डाक्टर के परिवार में तीन डाक्टर थे, तब भी वह एक बीमार व्यक्ति से आजिज आ चुके थे। जब वे यह महसूस कर रहे थे, तो आम आदमी क्या करे। कैसे वह चौबीस घंटे एक बीमार की सेवा करे, नौकरी भी कर ले, परिवार भी पाल ले। भागदौड़ भी कर ले।
इसीलिए देश में ऐसे सर्विस सैक्टर की भारी जरूरत महसूस की जा रही है, जो किसी परिजन की बीमारी जैसी स्थिति में सहायता प्रदान कर सके। जो सहायता के लिए आएं, वे प्रोफेशनल हों। दवाएं समय पर दे सकें। किसी इमरजेंसी में घर वालों के न होने पर डाक्टर से सम्पर्क कर सकें, मरीज को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करा सकें और जरूरत पडऩे पर अस्पताल भी ले जा सकें। अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभा सकें। यह न हो कि परिजनों की अनुपस्थिति में बीमार को उसके भरोसे छोड़ दिया जाए। यही नहीं, मरीज के अंतिम समय में भी उसकी देखभाल की जा सके और उसकी विदाई भी सम्मानपूर्वक हो।
विदेशों में ऐसी सेवाएं बहुतायत में उपलब्ध हैं। अपने यहां भी इनकी जरूरत अरसे से महसूस की जा रही है। अस्पतालों, तमाम स्व-सहायता समूहों और सरकार की मदद से ऐसी सेवाएं देना कोई मुश्किल काम भी नहीं है। यह एक ऐसा क्षेत्र भी है, जिसमें रोजगार की अपार सम्भावनाएं हैं।
इस तरह का सेवा क्षेत्र एक तरफ उन बीमारों और परिजनों की समय पर मदद करेगा, जिन्हें इसकी सख्त जरूरत है, तो दूसरी तरफ बेरोजगारों को रोजगार देकर जीवनयापन की सुविधाएं प्रदान करेगा। इसलिए सरकारों से आग्रह है कि वे इस ओर जरूर ध्यान दें। इस तरह की सुविधाएं वक्त की जरूरत हैं।