प्रतिभाओं की घर वापसी से भी समृद्ध देश
कुछ दशकों पहले, आईआईटी मद्रास के पूर्व निदेशक पीवी इंद्रेसन ने चुटकी लेते हुए कहा था, जैसे ही कोई छात्र आईआईटी में दाखिला लेता है, पहले उसकी आत्मा अमेरिका में बस जाती है और फिर स्नातक होने के बाद शरीर भी पहुंच जाता है! दरअसल वे अक्सर सुनाया जाने वाला चुटकला दोहरा रहे थे, जो 1970-80 के दशक में प्रचलित था, जब बड़ी संख्या में आईआईटी स्नातक पहले अमेरिका रुख उच्च शिक्षा पाने को करते थे और फिर वहीं किसी कॉर्पोरेट या शैक्षणिक संस्थान में नौकरी पाकर रह जाते थे। इस अवस्था को 1960 में ‘ब्रेन-ड्रेन’ कहा जाने लगा। हाल ही में ट्विटर नामक सोशल मीडिया प्लेटफार्म के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पद पर आईआईटी बॉम्बे के पूर्व छात्र पराग अग्रवाल की हुई नियुक्ति से पुन: ‘ब्रेन-ड्रेन’ पर बात चल निकली और यह भी कि भारत के चोटी के संस्थानों से प्रतिभा-निर्यात आज भी अमेरिका को जारी है। यह दलील भी दी गई कि प्रशंसा करनी है तो उनकी करें जिन्होंने भारत में रहना चुना, न कि पलायन करने वालों की। परंतु तथाकथित ब्रेन-ड्रेन पर इस तरह की बहसें बेमानी और सतही हैं, जो कि 21वीं सदी के वैश्विक ज्ञान अर्थव्यवस्था के गतिशील आयामों और ऐतिहासिक तथ्यों से अनभिज्ञ होकर की जाती हैं।
भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति अमेरिका की आसक्ति नई नहीं है। इसका इतिहास 19वीं सदी के आखिर से है, जब मैसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) स्थापित हुआ था। तब से ही इसने भारत के तत्कालीन राष्ट्रवादी नेताओं और उद्योगपतियों का ध्यान अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया था। हालांकि, भारतीयों में अधिसंख्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा एवं तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए ब्रिटेन का ही रुख करते थे, वहीं राष्ट्रवादी छात्रों ने उद्योग-नीत तकनीकी शिक्षा पाने में एमआईटी वाला विकल्प चुनना पसंद किया था। बाल गंगाधर तिलक द्वारा संपादित अखबारों में भारतीयों में तकनीकी शिक्षा और औद्योगिकीकरण का आह्वान करते लेखों में एमआईटी को बतौर आदर्श तकनीकी संस्थान पेश किया जाता था। जैसा कि तकनीकी इतिहासविद रॉस बास्सेट्ट ने अपने दस्तावेज में कहा है, ‘कोई हैरानी नहीं कि एमआईटी में पढऩे गए आरंभिक भारतीयों में ज्यादातर गिनती पूना, बॉम्बे, भावनगर और पश्चिम भारत के अन्य शहरों से थी। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में इंजीनियरिंग उद्योगों की नींव पड़ी।’ मार्च, 1946 में नलिनी रंजन सरकार समिति की रिपोर्ट में भी औपचारिक रूप से एमआईटी को उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्ति हेतु बतौर आदर्श संस्थान प्रस्तावित किया गया था।
हालांकि इस समिति का यह खाका आगे चलकर भारत में आईआईटी की स्थापना का आधार बना था, लेकिन 1950 के दशक में खडग़पुर, बॉम्बे और मद्रास की आईआईटी के बनने में एमआईटी का परोक्ष सहयोग अभी तक नहीं था। तथापि इन सभी संस्थानों के आरंभिक सालों में अन्य देशों से पढ़ाने आए अध्यापक थे। यह आईआईटी कानपुर थी, जिसकी स्थापना में सीधे तौर पर एमआईटी नीत अमेरिकी संस्थानों की मिलीजुली भागीदारी थी। कानपुर में दर्जनों अमेरिकी प्रोफेसर पढ़ाया करते थे, बड़े उपकरण जैसे कि मेनफ्रेम कम्प्यूटर और छोटे हवाई जहाज अमेरिका से लाए गए थे और छात्रों को 10 वर्षीय ‘कानपुर भारत-अमेरिका परियोजना’ के तहत पढऩे को अमेरिकी विज्ञान पत्रिकाएं मिलती थीं। क्योंकि उस वक्त आईआईटी में स्नातकोत्तर एवं डॉक्टरेट करने का इंतजाम नहीं था, इसलिए बड़ी संख्या में स्नातक आगे की शिक्षा के लिए उन अमेरिकी विश्वविद्यालयों में गए, जहां से आए प्रोफेसरों ने उन्हें भारत में पढ़ाया था। यह वह समय भी था, जब अमेरिका सरकार ने प्रवास संबंधी अपने नियमों में बदलाव किया था। भारत में बड़े घरानों द्वारा चालित तत्कालीन उद्योगों को आईआईटी से पढक़र निकले स्नातक या तो जरूरत से ज्यादा पढ़े लिखे या फिर अपने यहां रखने को अनुपयुक्त लगते थे। इन तमाम कारकों के परिणामस्वरूप अप्रवास और ब्रेन-ड्रेन की पहली लहर बनी थी।
भारतीय प्रतिभा का पलायन यूं पेश किया गया मानो यह एकतरफा मार्ग या किसी गली का अंत हो। भले ही भारतीय वैज्ञानिक प्रतिष्ठान और नीति-निर्माता ब्रेन-ड्रेन को लेकर चिंतित थे, लेकिन बहुत से मेधावी भारतीयों ने वतन वापसी कर स्वदेश में नए काम-धंधे स्थापित करने शुरू किए। यह एमआईटी से पढक़र लौटे ललित कनोडिया थे, जिन्होंने एमआईटी के अपने सहपाठियों नितिन पटेल और अशोक मल्होत्रा के साथ मिलकर टाटा के लिए 1996 में कम्प्यूटर सेंटर बनाने की प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिखी थी, जिसने आगे चलकर टाटा कंसल्टेंसी सर्विस का रूप लिया। आईआईटी के एक अन्य स्नातक और एमआईटी से इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन की डिग्री लेने वाले नरेंद्र पाटनी ने भारत में कृषि डाटा के क्षेत्र में अच्छा व्यावसायिक मौका भांपकर जो इकाई बनाई थी, उसने आउटसोर्सिंग के विचार को जन्म दिया था। इसी तरह आईआईटी कानपुर के स्नातक प्रभु पटेल ने 1980 के मध्य में नोएडा में चिप-डिज़ाइन कंपनी की शाखा खोली थी। जब अमेरिका में गोयल की कंपनी का अधिग्रहण हो गया तो नोएडा वाली यही इकाई काडेंस नामक कंपनी का अंग बनी। यह कंपनी स्वदेश में सिलिकॉन चिप डिज़ाइन का आगाज़ बनी। इसी तरह टेक्सास इंस्ट्रूमेंट कंपनी का भारत आने का निर्णय अमेरिकी कंपनियों में भारतीय की कड़ी मेहनत और प्रतिभा से प्रभावित होकर बना था। काडेंस और टीआई को जल्द मिली सफलता ने लगभग हर बड़े चिप निर्माता को भारत में इकाई स्थापित करने को प्रेरित किया।
वर्ष 1991 में जिस समय भारत में उदारीकरण आया, बहुत से वह तकनीकी माहिर जो 1970-80 के दशक में विदेशों में जा बसे थे और जिनमें अनेकानेक अमेरिकी तकनीक कंपनियों में उच्च पदों पर थे या खुद की कंपनी स्थापित कर वेंचर कैपिटलिस्ट बन चुके थे, वह उन कंपनियों की ओर से भारत में ब्रांड एम्बेसेडर बने या उन्होंने खुद निवेश किया। यह पहल न केवल इन्फॉर्मेशन तकनीक क्षेत्र में बल्कि बायो-टेक्नोलॉजी, हेल्थकेयर और अन्य क्षेत्रों में भी हुई। जीई ने वैश्विक अनुसंधान एवं विकास विस्तार में भारत में संभावना देखकर अपनी शाखा स्थापित की थी। तीन दशकों बाद, फॉर्च्यून-500 में शामिल लगभग हर बड़ी कंपनी का अनुसंधान एवं विकास विभाग भारत में है। सॉफ्टवेयर, आईटी और इंजीनियरिंग सर्विस उद्योग का कारोबार लगभग 200 बिलियन डॉलर का है।
यह चलन शैक्षणिक और वैज्ञानिक अनुसंधान समेत अन्य कई क्षेत्रों में भी जारी रहा। अब हम विदेशी विश्वविद्यालयों में काम करने वाले भारतीयों के बीच अधिक सम्मिलित अनुसंधान होता देख रहे हैं। वैश्विक स्तर के मैगा साइंस प्रोजेक्ट्स, जैसे कि लार्ज हैड्रोन कॉलाइडर (एलएचसी) में भारतीय वैज्ञानिक उच्च स्तर पर जुड़े हैं। इस परियोजना में भारतीय उच्च तकनीकी संस्थानों की भागीदारी भी काफी अधिक है। ऐसे तमाम संयुक्त उपक्रमों से ज्ञान का आदान-प्रदान, सामर्थ्य संवर्धन और नवीन व्यवसाय एवं औद्योगिक गतिविधियों का मौका बनता है। एयरोस्पेस क्षेत्र में नए स्टार्ट-अप इस अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी का मुख्य उदाहरण हैं।
जैसा कि प्रख्यात वैज्ञानिक आरए माशेलकर अक्सर कहा करते हैं, अब जो हम देख रहे हैं वह ‘ब्रेन-ड्रेन’ नहीं अपितु ‘ब्रेन-गेन’ और ‘ब्रेन-सर्कुलेशन’ है। वैश्विक स्तर की तकनीकी कंपनियों के शीर्षस्थ पद पर पहुंचने वाला हर भारतीय हमारे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था की सामर्थ्य का मुंह-बोलता उदाहरण है। यह उस व्यवस्था को भी परिलक्षित करता है, जिसमें जाति-पाति, संप्रदाय या मूल निवास से भेद-भाव किए बिना प्रतिभा और वरीयता को मान्यता दी जाती है। यदि हम इस तरह के मौके अपने विश्वविद्यालयों, व्यवसाय और नए-उद्यम स्थापना में कर पाते हैं, तो न केवल अपने सर्वोत्कृष्ट दिमाग स्वदेश में ही रोक पाएंगे, जैसा कि बहुत हद तक हो रहा है बल्कि विश्व के अन्य देशों की प्रतिभा को भी अपने देश में आकर्षित कर पाएंगे।
लेखक वैज्ञानिक मामलों के जानकार हैं।