सरकार क्यों विरोध की परवाह करे?
देश भर के युवा आंदोलित हैं और उपद्रव कर रहे हैं। दूसरी ओर इन आंदोलनों के बीच सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना की अधिसूचना जारी होने लगी है। सरकार व सेना ने इस योजना की बारीकियों को और स्पष्ट कर दिया है। सरकार ने साफ कर दिया है कि यह योजना आ गई है तो रहेगी और अब सेना की सारी भर्ती इस योजना के तहत ही होगी। यानी 17 साल तक की भर्ती की नियमित योजना को लोग भूल जाएं। तीनों सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि अब नियमित भर्ती नहीं होगी। तीनों सैन्य अधिकारियों ने यह भी कहा कि अग्निपथ योजना के विरोध में हिंसक आंदोलन करने वालों को सेना में जगह नहीं मिलेगी। उन्हें शपथपत्र देना होगा कि वे आंदोलन में शामिल नहीं थे। पुलिस रिपोर्ट से इसको वेरिफाई किया जाएगा। यह भी कहा गया है कि कोरोना से पहले जिन लोगों ने भर्ती रैली में हिस्सा लिया था, उसमें चुने गए थे और जिनका मेडिकल टेस्ट हो गया था उन्हें भी कोई राहत नहीं मिलेगी। उनको भी फिर से अग्निवीर बनने के लिए प्रतियोगिता में शामिल होना होगा।
सबसे बड़ी बात पूर्व सेना प्रमुख और केंद्र सरकार के मंत्री जनरल वीके सिंह ने कही। उन्होंने आंदोलन कर रहे युवाओं के प्रति हिकारत का भाव दिखाते हुए कहा कि ‘यह स्वैच्छिक योजना है, जिसे आना है आए। आपको कौन बुला रहा है’। उनके कहने का मतलब था कि, जिसको यह योजना पसंद नहीं आ रही है वह दूसरा काम करे, उसके ऊपर कोई जबरदस्ती नहीं है कि वह सेना में भर्ती हो। इस बयान में दो बड़े विरोधाभास हैं, जिनमें से एक की ओर तो सभी लोग इशारा कर रहे हैं। वह ये है कि खुद जनरल वीके सिंह 62 साल तक नौकरी करने और फोर स्टार जनरल रह चुकने के बावजूद एक साल नौकरी बढ़वाने के लिए सेना और सरकार को अदालत तक ले गए थे और अब भी सेना की पेंशन व सांसद का वेतन ले रहे हैं। वे कैसे बिना पेंशन वाली चार साल की नौकरी की तरफदारी कर सकते हैं? दूसरा बड़ा विरोधाभास यह है कि अग्निपथ योजना का बचाव कर रहे कई जानकार इसे अनिवार्य सैन्य सेवा या अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण की दिशा में उठाया गया कदम बता रहे हैं, जबकि जनरल वीके सिंह की बात से लग रहा है कि ऐसी बात नहीं है।
बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि इस योजना के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों और हिंसा को सरकार गंभीरता से क्यों नहीं ले रही है या इसकी परवाह क्यों नहीं कर रही है? क्यों इतने जबरदस्त विरोध के बावजूद सरकार ने दो टूक अंदाज में कहा कि योजना जारी रहेगी और उलटे प्रदर्शनकारियों को धमकाया कि उन्हें सेना में नौकरी नहीं मिलेगी? क्या सरकार यह मान रही है कि इस तरह के हिंसक आंदोलन ज्यादा लंबे समय तक नहीं चलते हैं और उनका असर भी ज्यादा नहीं होता है? या सरकार इस भरोसे में है कि चाहे कितना भी आंदोलन हो उसका राजनीतिक नुकसान नहीं होना है इसलिए उसकी परवाह करने की जरूरत नहीं है?
इस मामले में सरकार का आकलन सही है। किसी भी हिंसक आंदोलन को लंबे समय तक चलाए रखना और दिशाहीन होने से बचाना मुश्किल होता है। याद करें इससे पहले के सबसे बड़े और हिंसक आंदोलन को। वह आंदोलन मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के विरोध में हुआ था। तब पूरा देश जल रहा था। राजधानी दिल्ली की सडक़ों पर युवा आत्मदाह कर रहे थे। लेकिन अंत नतीजा क्या निकला? मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई। अलग झारखंड और उत्तराखंड राज्य के लिए भी हिंसक आंदोलन हुए थे लेकिन नया राज्य तभी बना, जब हिंसा समाप्त हो गई और राजनीतिक पहल हुई। सो, हिंसक प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे युवाओं को भी समझना होगा कि हिंसा की बजाय अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता ज्यादा उपयुक्त है।
अग्निपथ योजना के विरोध में चल रहे आंदोलन से उत्साहित कुछ विपक्षी नेताओं और सोशल मीडिया के योद्धाओं को लग रहा है कि जिस तरह से किसान आंदोलन की वजह से सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लिया उसी तरह अग्निपथ योजना भी वापस होगी। हो सकता है कि वापस हो भी जाए लेकिन उससे युवाओं को क्या फायदा होगा और दूसरे उससे सरकार की सेहत पर क्या फर्क पड़ेगा? कृषि कानून वापस हो गए लेकिन उससे किसानों को क्या फायदा हुआ है? क्या सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी दी है? आंदोलन खत्म हुए सात महीने से ज्यादा हो गए और अभी तक इस पर विचार के लिए कमेटी भी नहीं बनी है।
यानी सरकार ने अपना वादा नहीं निभाया है, तो किसानों ने सरकार का क्या कर लिया? सरकार की राजनीतिक पूंजी को क्या नुकसान हुआ है? क्या किसानों ने एकजुट होकर और समाज ने उनके साथ खड़े होकर चुनावों में भाजपा को हरा दिया? किसान आंदोलन के तुरंत बाद पांच राज्यों में चुनाव हुए, जिनमें से चार राज्यों में भाजपा बड़े शान से जीती। एक राज्य, जहां हारी वहां पहले भी भाजपा के पास कुछ नहीं था।
सोचें, उतने बड़े आंदोलन के बावजूद अगर भाजपा को राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ तो फिर वह किसी भी आंदोलन की परवाह क्यों करेगी? उसे पता है कि उसने देश के नागरिकों को जिस राजनीतिक विमर्श के दुष्चक्र में डाल दिया है वहां से वे नहीं निकल सकते हैं। एक बड़े तबके के लिए अपने निजी हित से ज्यादा अहम हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा है, मंदिर-मस्जिद का मुद्दा है, हिजाब और हलाल मीट का मुद्दा है, अली और बजरंग बली का मुद्दा है, श्मशान और कब्रिस्तान का मुद्दा है! असल में देश के हर नागरिक की कई कई अस्मिताएं होती हैं। जब किसान आंदोलन कर रहे थे तब वे किसान थे, लेकिन जैसे ही आंदोलन खत्म करके घर लौटे वैसे ही वे जातियों और समुदायों में बंट गए। उसी तरह अग्निपथ योजना का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारी युवाओं का समूह हैं लेकिन आंदोलन के बाद उनकी अस्मिताएं बदल जाएंगी। वे जाति और धर्म में बंट जाएंगे। फिर उनका एजेंडा दूसरा होगा। भाजपा को पता है कि वक्ती तौर पर युवा या किसान चाहे कुछ भी कहें अंत में वे हिंदू अस्मिता से ही निर्देशित होंगे।
इसलिए इस योजना या उस योजना के विरोध से थोड़े समय की सुर्खियों के अलावा कुछ खास हासिल नहीं होगा। निर्णायक विजय के लिए धार्मिक अस्मिता के गढ़े गए प्रतिमानों को ध्वस्त करना होगा। ट्रेन का इंजन और बोगियां जलाने से कुछ नहीं होगा, दिल और दिमाग में सांप्रदायिक नफरत का जो राक्षस पैदा किया गया है उसे जलाना होगा। अग्निपथ योजना का विरोध कर रहे युवा अगर सोच रहे हैं कि ट्रेन जलाने से सरकार घबरा जाएगी तो वे गलतफहमी में हैं क्योंकि सरकार तो चाहती है उनको हिंसक बनाना। आज वे ट्रेन जलाएंगे तभी तो कल किसी का घर, दुकान जला पाएंगे! इसलिए किसान हों या युवा हों उनको विभाजन बढ़ाने वाले धार्मिक विमर्श को समाप्त करना होगा तभी देश की राजनीति सामान्य हो पाएगी और तभी किसी भी मसले पर तार्किक व वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार हो पाएगा।