सामयिक : जांच एजेंसियों पर उठते सवाल
पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जांच एजेंसियां प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं।
इस विवाद में ताजा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाने की तैयारी में है।
हालांकि चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है, और उसे जांच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी यह ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आजम खां के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अति तत्परता से आजम खां की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फैसला लेना पड़ा और आजम खां को अपील करने का भी मौका नहीं मिला।
न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फैसले के खिलाफ अपील करने का हक है जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से एक विधायक की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? जहां तक जांच एजेंसियों की बात है तो दिसम्बर, 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फैसले के तहत इन जांच एजेंसियों को निष्पक्ष और स्वायत्त बनाने की मंशा से काफी बदलाव लाने वाले निर्देश दिए गए थे। इसी फैसले के तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जांच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिजबुल मुजाहिद्दीन की हवाला के जरिए हो रही दुबई और लंदन से फंडिंग की जांच को दो बरस से दबा कर बैठी थी।
उस पर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में कानून बने, परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जांच एजेंसियां सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई कर रही हैं। इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताजा कानून ने तो सर्वोच्च न्यायलय के फैसले की अनदेखी ही कर डाली। नये कानून से आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे।
केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रतिष्ठानों के खिलाफ इन एजेंसियों का लगातार दुरु पयोग कर रही है। पर यहां सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फैसला इन जांच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था जिससे कि वे बिना किसी दबाव या दखल के अपना काम कर सकें क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था।
इसी फैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियां अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जांच एजेंसियों की खामियों का उल्लेख करे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षो से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी दमखम के साथ कहते हैं, ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने वाली ये एजेंसियां सरकार के दखल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा।
हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षो में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई और सीवीसी में दर्ज कराई हैं पर उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्रवाई होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लंबी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता और पारदर्शिता का सम्मान करते हैं।
यही लोकतंत्र है। शिकायतकर्ता को शत्रु नहीं, बल्कि शुभचिंतक माना जाए। संत कह गए हैं, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ मामला संजय राउत का हो, आजम खां का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जांच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्त्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जांच एजेंसियां अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रही हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। कानून अपना काम कानून के दायरे में ही करेगा।