March 29, 2024

नया संसद भवन, नई उम्मीदें,नया लोकसभा उपाध्यक्ष!!!



संसद की नई इमारत के समर्थन और विरोध में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। जिस समय इस इमारत की नींव रखी गई थी उस समय इसकी जरूरत और औचित्य को लेकर सवाल उठे थे। विपक्षी पार्टियों ने कहा था कि कोरोना महामारी के समय इस तरह का निर्माण धन का दुरुपयोग है। जब इसके ऊपर विशाल अशोक स्तंभ स्थापित किया गया तो शेरों की भाव-मुद्रा को लेकर सवाल उठे। इसके बाद जब उद्घाटन का समय आया तो 28 मई की तारीख पर विवाद हुआ और फिर राष्ट्रपति से उद्घाटन नहीं कराने का मुद्दा बना। विपक्ष ने इसे देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति के मान-अपमान का मुद्दा बनाया। लोकसभा में स्पीकर के आसन के पास धार्मिक प्रतीक सेंगोल यानी राजदंड स्थापित करने का भी विवाद हुआ। दूसरी ओर सत्तारूढ़ गठबंधन और उसके समर्थकों का कहना है कि यह देश के लिए गौरव की बात है कि आजाद और आत्मनिर्भर भारत का अपना संसद भवन बना है। पुराना संसद भवन औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक था, जिसे अंग्रेजों ने बनवाया था।
उम्मीद करनी चाहिए कि उद्घाटन के बाद यह विवाद समाप्त हो जाएगा और संसदीय कामकाज पर पक्ष और विपक्ष दोनों का ध्यान केंद्रित होगा। दोनों यह समझेंगे कि संसद सिर्फ एक विशाल और भव्य इमारत का नाम नहीं है। अगर संसद में खुले दिल से विचार विमर्श नहीं होता है, जनता के मुद्दों पर सार्थक संवाद नहीं होता है और अधिकतम लोगों के हितों को ध्यान में रख कर कामकाज नहीं होते हैं तो फिर इमारत कितनी भी भव्य हो, संसदीय लोकतंत्र की नींव कमजोर होगी। दुर्भाग्य से पिछले कुछ बरसों से यह नींव लगातार कमजोर होती जा रही है। जो लोग पुरानी इमारत को औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक मानते हैं उनको पता नहीं यह जानकारी है या नहीं कि आजादी के बाद उसी संसद में साल के 365 दिनों में 138 दिन बैठक होती थी और अब 60 दिन भी नहीं होती है। उस समय शायद ही कभी कार्यवाही बाधित होती थी। सदन के हर सत्र में जनता से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चा होती थी। अब संसद का सत्र पक्ष और विपक्ष में जोर आजमाइश का मैदान बन गया है, जहां कार्यवाही कम चलती है और नारेबाजी, वाकआउट ज्यादा होते हैं।
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू उसी संसद में प्रश्न काल में भी बैठे रहते थे, जबकि मौजूदा प्रधानमंत्री गिने चुने मौकों पर ही सदन में आते हैं। वे आमतौर पर भाषण देने संसद में आते हैं, जहां उनका भाषण बुनियादी रूप से विपक्ष पर हमला करने वाला होता है। उम्मीद करनी चाहिए कि नए संसद भवन में यह परंपरा समाप्त होगी। संसद की ज्यादा बैठकें होंगी और हर बैठक में कार्यवाही सुचारू रूप से चलेगी। इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों को अपनी भूमिका का ध्यान रखना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था कि संसद विपक्ष का होता है। यह भी परंपरा से स्थापित है कि संसद के सुचारू संचालन की जिम्मेदारी सरकार की होती है। सो, सरकार इस जिम्मेदारी का निर्वहन करे और विपक्ष रचनात्मक भूमिका निभाए तभी नई इमारत की सार्थकता है। दुर्भाग्य से उद्घाटन समारोह को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपनी राजनीति नहीं छोड़ी। सरकार ने व्हाट्सऐप से निमंत्रण भेज कर औपचारिकता निभाई तो विपक्ष ने भी राष्ट्रपति के मान-अपमान का मुद्दा बना कर उद्घाटन का बहिष्कार कर दिया। कायदे से बड़े नेताओं को पहल करनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री बड़ दिल दिखाते और विपक्ष के बड़े नेताओं से बात करते तो वे निश्चित रूप से इसमें हिस्सा लेते और तब इस कार्यक्रम की गरिमा और बढ़ जाती। उम्मीद करनी चाहिए कि इस विवाद की छाया नए संसद की कार्यवाहियों पर नहीं दिखेगी।
नए संसद भवन में सरकार को कुछ काम तत्काल करने चाहिए, जिससे यह उम्मीद बंधे कि सिर्फ चोला नही बदला है, बल्कि संसद की आत्मा को भी पुनर्जीवित किया जा रहा है। इसमें सबसे पहला काम यह है कि सरकार को पहले सत्र में यानी मॉनसून सत्र में लोकसभा के उपाध्यक्ष की नियुक्ति करनी चाहिए। 17वीं लोकसभा के चार साल

बीत चुके हैं और अभी तक उपाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई है। यह महान संसद और उसकी परंपरा दोनों का अपमान है। संविधान सभा की बहसों में और बाद में भी डॉक्टर भीमराव अंबेडकर सहित कई महान नेताओं ने लोकसभा में उपाध्यक्ष की जरूरत को रेखांकित किया है। संविधान के अनुच्छेद 93 में लिखा गया है कि हर लोकसभा का गठन होने के साथ ही अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव होना चाहिए। सरकार ने चार साल तक उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं कराया। इसके पीछे कोई संवैधानिक या संसदीय मजबूरी नहीं है, बल्कि स्पष्ट रूप से राजनीतिक कारण हैं। सरकार को अब उससे आगे बढऩा चाहिए और जल्दी से जल्दी उपाध्यक्ष की नियुक्ति करानी चाहिए। यह उदाहरण “मदर ऑफ डेमोक्रेसी ” में एक अलग कहानी बयां करता हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण काम यह करना चाहिए कि संसद की स्थायी समितियों की गरिमा बहाल करनी चाहिए। उन समितियों के अध्यक्ष चाहे सत्तापक्ष के सांसद हों या विपक्ष के, उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने देना चाहिए। समितियों में बहुमत के दम पर सरकार को वर्चस्व दिखाना बंद करना चाहिए और संसदीय समितियों की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा होनी चाहिए खासतौर से लोक लेखा समिति की रिपोर्ट पर, जिसका अध्यक्ष पारंपरिक रूप से विपक्ष का नेता होता है। तीसरा महत्वपूर्ण काम यह है कि सरकार को ज्यादा से ज्यादा बिल पास कराने से पहले संसद की स्थायी समितियों को भेजना चाहिए। अभी इनकी संख्या बहुत कम हो गई है। बिना संसदीय समिति को भेजे विधयेक सीधे पेश किए जाते हैं और उन्हें बिना बहस के पास करा लिया जाता है। यहां तक कि बजट जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज पर सदन में चर्चा नहीं हो रही है। कई बार ऐसा हुआ है कि बिना बहस के बजट पास कराया गया है। पिछले कुछ समय से यह परंपरा भी बन गई है कि कर या वित्त से जुड़ा मामला नहीं होने पर भी विधेयक को धन विधेयक की तरह पेश किया जा रहा है और सिर्फ लोकसभा से पास करा कर उसे कानून बना दिया जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने अपने एक लेख में बताया है कि हर साल बजट सत्र में वित्त विधेयक में कुछ न कुछ बड़ा मुद्दा शामिल किया जाता है और उसे धन विधेयक की तरह लोकसभा से पास करा लिया जाता है। उसे राज्यसभा के पास भेजा ही नहीं जाता है। यह परंपरा भी तत्काल समाप्त होनी चाहिए।
इस बात की भी मिसाल बनी है कि संसद में विपक्षी सदस्यों की किसी विधेयक पर वोटिंग कराने की मांग ठुकरा दी गई। जिस समय केद्र सरकार तीन कृषि कानून लेकर आई थी उस समय इससे जुड़े विधेयकों को पास कराने से पहले राज्यसभा में सीपीएम के सांसद एलाराम करीम ने इस विधेयक पर मत विभाजन की मांग की थी। संसद का यह नियम है कि अगर एक भी सदस्य मत विभाजन की मांग करता है तो अनिवार्य रूप से वोटिंग करानी होगी। जिस समय यह मांग हुई उस समय सदन के तत्कालीन सभापति आसन पर नहीं थे। उप सभापति ने मत विभाजन की मांग ठुकर दी और बिना वोटिंग कराए ध्वनि मत से विधेयक को पास कराया। इससे पहले सांसदों को मार्शल के जरिए सदन से बाहर कराया गया। इसके विरोध में सांसदों ने संसद भवन परिसर में महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने धरना दिया और उपवास किया। उम्मीद करनी चाहिए कि नए संसद भवन में इस तरह की किसी दर्भाग्यपूर्ण घटना का दोहराव नहीं होगा।