जब बात बिगड़ती है
स्वतंत्रता दिवस पवित्र मौका है। लेकिन इस दिन राजनीतिक विमर्श के गिरते स्तर की मिसालें खूब देखने को मिलीं। लाल किले से प्रधानमंत्री ने राष्ट्र नेता के बजाय अपनी पार्टी के नेता के रूप में देश को संबोधित किया, तो विपक्ष ने उन पर बदनीयती का आरोप मढ़ दिया।
राजनीतिक संवाद अगर देश के प्रति एक दूसरे की निष्ठा पर संदेह जताने और बदजुबानी तक पहुंच जाए, तो उसे लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी माना जाना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत में अब बात इसी मुकाम पर पहुंचती नजर आ रही है। एक समय था, जब प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र की तरफ से बोलते थे और विपक्ष प्रधानमंत्री की आलोचना करने का अपना कर्त्तव्य जरूर निभाता था, लेकिन सार्वजनिक विमर्श में उनके प्रति आदर का भाव का बना रहता था। लेकिन हाल के वर्षों में ये परंपरा टूटने का ऐसा सिलसिला चला कि अब राजनीतिक संवाद में खुल कर अपशब्दों का भी इस्तेमाल होने लगा है। स्वतंत्रता दिवस एक पवित्र मौका है। लेकिन इस दिन विमर्श के गिरते स्तर की मिसालें खूब देखने को मिलीं। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राष्ट्र नेता के बजाय अपनी पार्टी के नेता और उसकी विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में देश को संबोधित किया। विपक्षी दलों पर उन्होंने भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टीकरण की नीति पर चलने का इल्जाम मढ़ा।
तो उसका जवाब उन्हें कांग्रेस के एक सख्त बयान से मिला। कांग्रेस ने मोदी पर दुर्नीति और अन्याय के रास्ते पर चलने का आरोप तो लगाया ही, साथ ही उन पर बदनीयती के करने का आरोप भी मढ़ दिया। मतलब कांग्रेस मानती है कि प्रधानमंत्री की नीयत ही ठीक नहीं है। इसके ठीक पहले तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ’ब्रायन का एक वीडियो मैसेज वायरल हो चुका था, जिसमें उन्होंने सीधे मोदी को संबोधित करते हुए उन्हें फ्रॉड (दग़ाबाज) कहा है। सोशल मीडिया पर तो ऐसी भाषा का इस्तेमाल काफी पहले आम हो चुका है। लेकिन अब यह मुख्यधारा की राजनीति के संवाद की भाषा भी बनती जा रही है। तो इस तरह विपक्षी नेताओं को ‘पप्पू’, ‘बाबा’, भ्रष्ट आदि कह कर उनकी जन-वैधता खत्म करने की जो कोशिश शुरू हुई थी, वह अब अपने जवाबी मुकाम पर पहुंचती दिख रही है। अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज बीच का ऐसा कोई सेतु दिखाई नहीं देता, जिसके जरिए संवाद को सुधारते हुए दोनों पक्षों के बीच स्वस्थ संवाद बनने की उम्मीद पैदा होती हो।