जीत के हजार बाप,और हार अनाथ!!!!!
22 जनवरी 2024 को राम मंदिर अयोध्या में, राम लला की प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठा के बाद, प्रधानमंत्री जी खासे उत्साहित नजर आ रहे हैं। वैसे यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि इस विशाल और व्यापक आयोजन से उनका जनाधार बढ़ा है तथा वे हिंदू मानस के सर्वप्रिय नेता बन गए हैं। यहां तक की हिंदू धर्म गुरु, शंकराचार्य और हिंदू राष्ट्र के निर्माण के थोक बंद ठेकेदार डॉक्टर मोहन भागवत जी, श्री नरेंद्र मोदी जी की आभा के समक्ष पीछे नजर आ रहे हैं।
4 फरवरी 2024 को प्रधानमंत्री जी गुवाहाटी के दौरे पर थे। और वहां उन्होंने जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि ’आजादी के बाद सत्ता में रहे लोग पूजा स्थलों के महत्व को नहीं समझ सके। उन्होंने राजनीतिक कारणों से अपनी ही संस्कृति पर शर्मिंदा होने का चलन स्थापित किया। जबकि विकास और विरासत हमारी नीति है कामाख्या दिव्य लोक परियोजना का शिलान्यास करते हुए उन्होंने कहा तीर्थ मंदिर सभ्यता की यात्रा की निशानियां है। हमारे तीर्थ मंदिर सिर्फ दर्शन करने की स्थली नहीं है यह हमारी सभ्यता की अमिट निशानियां है। भारत ने हर संकट का सामना करते हुए कैसे उसको अटल रखा है यह उसकी साक्षी है। कोई भी देश अपने अतीत को भुलाकर या मिटाकर विकसित नहीं हो सकता। मुझे संतोष है कि पिछले 10 वर्षों में हालात बदल गये है ’। उनकी आखिरी पंक्ति पर तो कुछ कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि देश में जो कुछ अच्छा हुआ है वह उनके 10 वर्षों के कार्यकाल में हुआ है और जो कुछ खराब हुआ है वह उनके आने के पूर्व का है,यह कहना उनके प्रारंभिक व स्थाई शगल है। एक प्रकार से वे अपने आपको श्श्न भूतों न भविष्यती सिद्ध करते रहते हैं। उनकी आत्म प्रशंसा करने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि यह व्यक्ति का स्वभाव होता है। विशेषता जिन सज्जनों में योग्यता कम होती है वे दिखावे ज्यादा करते हैं। हमारी पुरानी कहावत है ’अध जल भरी’ गगरिया छलकत जाए्य। पर मूल प्रश्न जिस पर विचार जरूरी है कि संस्कृति पर शर्मिंदगी का चलन देश में कब था। जहां तक मंदिरों का प्रश्न है, तो जो प्राण प्रतिष्ठा को देवरूप मानने वाले थे, वे मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करते थे, पर देश में एक ऐसा भी हिंदू समाज या कहें तो हिंदू मानस के विचारकों व
धर्म गुरुओं का हिमायती रहा है, जिसने मंदिर व पूजा की परंपरा को स्वीकार नहीं किया। चावार्क ने पाषाण पूजा को स्वीकार नहीं किया तो क्या चावार्क हिंदू नहीं थे? स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा कि, पत्थर की प्रतिमा में शिव नहीं है तो क्या वे हिंदू नहीं थे? मंदिरों की पुर्नस्थापना तो पहले भी हुई है। क्या स्वर्गीय वल्लभभाई पटेल प्रथम गृहमंत्री भारत सरकार ने सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण नहीं कराया था? हां उसमें स्वर्ण छड़ी से प्राण प्रतिष्ठा कराई गई थी कि नही यह में पक्के तौर पर नहीं कह सकता। जहां तक मुझे स्मरण है कि, मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद प्रतिमा स्थापना तो हुई थी परंतु प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई। स्वर्गीय वल्लभभाई पटेल ने तो यह कार्य 1950 के दशक में कराया था तो क्या यह संस्कृति पर शर्मिंदगी का चलना माना जाएगा।
स्वर्गीय वल्लभभाई पटेल ने, यह पुनर्निमाण, सार्वजनिक रूप से तथा उसके लिए जन सहयोग से कराया था। उसमें, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सलाह पर सरकारी खजाने के धन का इस्तेमाल नहीं किया गया था। क्योंकि, एक धर्मनिरपेक्ष देश में मंदिरों, मस्जिदों, गिरजागरों का निर्माण कराना सरकार का कर्तव्य नहीं है। इनका निर्माण तो उनके मानने वालों के द्वारा ही होना चाहिए। हालांकि श्री नरेंद्र मोदी जी की सरकार तो सब जगह मंदिरों के पुनर्निमाण या विकास के नाम पर या लोक के निर्माण के नाम पर शासन का पैसा लगा रही हैं।
क्या किसी मस्जिद, गुरुद्वारे या गिरजाघर के पुनर्निर्माण का काम सरकारी खजाने से हो सका है या होना चाहिए। फिर संस्कृति क्या है? यह भी एक विचार का बिंदु है? संस्कृति का मतलब क्या केवल मंदिर या धार्मिक स्थलों,पूजा स्थलों तक ही सीमित है? आजकल लोग सनातन की बहुत चर्चा कर रहे हैं तो सनातन क्या है? क्या वैदिक काल को सनातन का हिस्सा नहीं माना जाएगा? पर वैदिक काल में यज्ञों व हवन का तो जिक्र मिलता है पर मंदिरों का नहीं मिलता। तो क्या यह माना जाए की वैदिक कालीन लोगों को भारतीय संस्कृति की जानकारी नहीं थी? या फिर उन्हें संस्कृति पर शर्मिंदिगी होती थी?
भारत की संरचना में छँटवी शताब्दी के पूर्व की व बाद की स्थिति में फर्क है। इस्लाम के उदय के पूर्व भारत आज के राजनीतिक भूभाग मात्र में सीमित नहीं था वरन कंधार तक फैला था। उस भारत में लगभग एक ही धर्म व परंपराएं प्रचलित थी, पर इस्लाम के उदय के बाद भारत की धार्मिक सीमाएं और फिर कालांतर में राजनीतिक सीमाएं सिकुडऩे लगी। लगभग सातवीं शताब्दी से ही मुगल आक्रमण भारतीय सीमाओं में शुरू हो गए, पहले सिंध व पंजाब में और फिर दिल्ली व समूचे भारत में। जिन लोगों ने इस्लाम कबूल किया और मुसलमान बने, वे उसके पूर्व क्या थे? क्या वे बुद्ध नहीं थे? तो बौद्ध मंदिर भी तो भारतीय संस्कृति की धार्मिक परंपराओं का हिस्सा हुआ। पर संघ के विचार में बौद्ध या सिख या जैन यह क्या भारतीय संस्कृति या धार्मिक इतिहास का हिस्सा माने जाते है। या क्या संघ एक योजना के तहत सभी गैर हिंदू धर्म परंपरा वालों को उनके धार्मिक स्थलों को, मिटाने की योजना रखता है। फिर एक प्रश्न यह भी है, कि संस्कृति क्या है? क्या संस्कृति केवल मंदिरों मठों या धार्मिक स्थलों में है। क्या संस्कृति व इतिहास एक है। इन प्रश्नों पर गहन विचार की आवश्यकता है। फिर संस्कृति व सभ्यता क्या एक है? इस पर भी विचार करना होगा।
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक सभी, देश के अन्य राजाओं व रजवाड़ों से अलग थी। उनके ईश्वर के रूप में वे बूढ़ा देव को मानते हैं और इस बूढ़ा देव के रूप में किसी वृक्ष या पत्थर को मानते हैं। बूढ़ा देव से तात्पर्य होता है सबसे प्राचीन यानी उनका सनातन बूढ़ा देव है, परंतु आर्य सभ्यता से प्रभावित या उसके मानने वालों की परंपराएं अलग रही हैं। आरंभिक काल में वे अग्नि को देवता मानते थे और पूजा करते थे? शायद इसका कारण यह रहा होगा कि जिस अंचल में उनका जन्म हुआ वह बर्फीला व सर्दी वाला क्षेत्र रहा होगा और इसलिए उन्हें अग्नि ही सर्वोपरीय थी। बाद के प्रस्फुटन का यह अनुकूल समय ना हो, परंतु व्यक्ति की मूल आस्थाओं को दुनिया में कभी भी स्थाई तौर पर समाप्त नहीं किया जा सकता है। बदलाव तो हो सकता है परंतु यह स्वैच्छिक होता है। सत्ता या विचार के मानसिक दबाव में कई बार कुछ विचार दब जाते है, परंतु समय पाकर वे पुनरू सामने आते हैं।
प्रधानमंत्री जी ने जो दूसरी बात कही कि हमारी नीति विकास व विरासत की है। विकास की बात तो समझ में आती है भले ही विकास की धारणा भिन्न-भिन्न प्रकार की हो। जैसे वह कहते हैं सबका विकास सबका साथ और इस शब्द में अदानी, अंबानी,टाटा सभी का विकास है, और खेत पर काम करनेवाले मजदूर का भी। यह एक सुनिश्चित बात है कि पूंजीवाद का विकास, मजदूर और श्रमिक के अर्थ उपार्जन के बड़े हिस्से को पूंजी के आधार पर अपने पास रख लेना होता है। इसे यह भी कहा जा सकता है कि श्रमिकों के शोषण से पूंजीवाद का विकास हुआ है। मतलब साफ है कि, पूंजीपति का विकास और सामान्य व्यक्ति का विकास एक साथ समान रूप से संभव नहीं है। विषम रूप से संभव है कि, उद्योगपति या पूंजीपति की संपत्ति लाखों करोड़ों की हो जाए और मजदूर की आय कुछ हजार या लाख तक पहुंच जाए यह सब का विकास नहीं कहा जा सकता। सबके विकास का तात्पर्य यह होना चाहिए कि सबका सम विकास। अगर एक व्यक्ति या देश के कुछ लाख लोग करोड़ों रुपया प्रति माह कमाते हैं तथा 80 -90 करोड लोग सरकारी भीख रूपी 5 किलो अनाज को लेकर जिंदा रहते हैं तो यह सब का विकास नहीं हो सकता और फिर विरासत भी सब की वाह्य प्रतीकों में एक नहीं हो सकती है। मूल्यों व सिद्धांतों की विरासत तो वैश्विक, सार्वदेशिक या संपूर्ण समाज के लिए हो सकती है। परंतु धार्मिक स्थलों की विरासत संपूर्ण समाज के लिए एक समान नहीं हो सकती। इसे एक करने का प्रयास ग्रह कलह जैसा होगा और इसलिए धार्मिक विरासत धर्मावलंबियों की अपनी-अपनी होती है। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में इसीलिए यह सिद्धांत तय किया जाता है कि, व्यक्ति को धर्म के मानने की आजादी और राज्यों को किसी एक धर्म की बजाय सभी को समान व्यवहार देना यही लोकतंत्र का मूल्य व आत्मा है।
प्रधानमंत्री जी क्या मैं उम्मीद करूं कि आप इन प्रश्नों पर कभी गहराई से विचार करेंगे और देश में एक वैचारिक चर्चा का वातावरण बनाएंगे या फिर अपने ही विचार, परंपरा और विरासत को संपूर्ण राष्ट्र पर सत्ता के सहारे लोगों को स्वीकार करने के लिए बाध्य करेंगे। मैं इतना ही कहूंगा कि आज आप विजयी हैं और यह कहावत है की जीत के हजार बाप होते हैं और हार अनाथ होती है।