देश मे बढ़ती जनसंख्या ,घटते स्कूल?
अस्पताल में अपने पुत्र के इलाज के लिए गए मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि बेटे के बेड के सामने ही दो बच्चे अपने पिताजी का भी इलाज आयुष्मान कार्ड से करा रहे थे और परेशान थे। इसी परेशानी में जब मित्र ने उनसे बातचीत शुरू की और पूछा कि बेटा कहां तक पढ़ाई की है?तो उन्होंने बताया कि वे पढ़ाई छोड़ चुके हैं ।मेरे मित्र ने आश्चर्य से पूछा कि क्यों ?तो उसने कहा कि उसके कई मित्र पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद भी 15 हजार की नौकरी कर रहे हैं, इतना पैसा तो मजदूरी करके भी कमाया जा सकता है फिर पढऩे की क्या जरूरत है ? यह धारणा कितने प्रतिशत बच्चों में घर कर चुकी है यह तो कहना मुश्किल है लेकिन सरकारी आंकड़ों में मध्य प्रदेश के कॉलेज में लाखों खाली पड़ी सीटें संकेत जरूर देती हैं कि यह सोच और यह धारणा धीरे-धीरे समाज में पैर पसार रही है। पैसा ही विकास का मापदंड बन गया है अगर आप पेट भर पा रहे हैं तो आप सफल हैं ।संतोष का यह स्तर किसी भी समाज को आगे बढ़ाने की बजाय किसी खाई खंदक की तरफ भी ले जा सकता है। शिक्षा समझ और रोजगार पैदा कर सकती है इन दोनों चीजों पर शासकीय नीतियों ने भरोसा कम कर दिया है अब उदर पोषण ही भरण पोषण बन रहा है।
देश की सल्तनत में भी यह विचार निरंतर घर करता जा रहा है कि भौतिक विकास ही दर्शनीय विकास है और विकास के नाम पर अगर हमें लोकप्रियता अर्जित करना है तो बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं, भवन और सडक़ों का विकास ही विकास के प्रयासों का वास्तविक प्रदर्शन हो सकता है।
यही कारण है कि अस्पतालों के नाम पर भवन बन रहे हैं लेकिन डाक्टर नहीं हैं।डेढ-दो हजार करोड़ के मेडीकल कालेज बन रहे हैं किंतु पढाने वाले दो दर्जन प्रोफेसर भी नहीं हैं।उपचार के लिये 1500 डाक्टरों की भी भर्ती नहीं हो पा रही है जबकि मध्य प्रदेश में प्रतिवर्ष लगभग 4 हजार डाक्टर तैयार होते हैं।
कालेज खोले जा रहे हैं किंतु अतिथियों के भरोसे पढाई चल रही है।इंजीनियरिंग कालेजों में हजारों सीट खाली हैं।मानव विकास को उपेक्षित करके भौतिक विकास केवल भ्रष्टाचार और पिलफिरेज का ही माडल बन सकता है,वह स्थाई और सर्वस्पर्शी विकास नहीं बन सकता न ही ऐसा विकास मानव जीवन में बदलाव ला सकता है।
सरकार के अंदर बैठे हुए योजनाकार भी लगभग इसी धारणा के बंधक प्रतीत होते हैं। देश में उच्च शिक्षा तक आने के लिए मजबूत प्राइमरी शिक्षा आवश्यक है वहां से निकलकर ही छात्र उच्च शिक्षा में हाथ आजमा सकता है लेकिन योजनाकारों के मन में यह सवाल ही नहीं उठता कि देश में 2014 में जो 12 लाख 4 हजार शालायें थीं वे घटकर 2022 में 11 लाख 28 हजार कैसे रह गई? जनसंख्या बढ़ रही है और स्कूलें कम हो रही हैं। क्या यह सुशासन और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य की पूर्ति करता है?देश भर में 2018-19 की रपट के मुताबिक बंद की गईं कुल 60371 स्कूलों में अकेले मध्य प्रदेश में ही बंद की गईं 29361 शालायें हैं। क्या इतने बंद स्कूलों की भरपाई 50-55 सीएम राईज स्कूल कर सकते हैं?शायद नहीं। किंतु एक भ्रम जरूर पैदा कर सकते हैं कि कुछ किया जा रहा है।
ऐसे अंधेरे भरे वातावरण में कुछ लोग सामुदायिक जिम्मवारी की रोशनी लेकर भी चलते हैं किंतु उनके प्रयास शासकीय तंत्र के पुरुस्कारों का साधन तो बन जाते हैं,किंतु मिशन नहीं बन पाते।मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले का एक गांव बघवार भी है जहां हर बच्चा शिक्षित है। सौ प्रतिशत साक्षरता।गांव के सभी लोग मिलकर सीवेज सिस्टम गांव में बनवा चुके हैं।मोदी जी के अभियान के कई साल पहले वे अपने गांव को ओडीएफ (खुले में शौच से मुक्त)कर चुके हैं।प्रदेश के सर्वाधिक वायो गैस प्लांट भी इसी गांव में हैं।जो गांव को कुकिंग गैस और बिजली की आपूर्ति करते हैं।डाक्टर डेफिशिएंट मेडिकल कालेज बनाने वाले फैसलाकार और पढ़ाई से क्या होता है सोचने वाले उन दोनों युवाओं को बघवार जैसे गांव रोशनी दिखाते हैं मगर अंधेरे में ही रहने का फैसला कर चुका समाज उसे पहचाने तो सही?