November 13, 2024

दीपावली में बेटियों महिलाओं में ऐपण बनाने को रहता था उत्साह


हल्द्वानी ।  त्यौहार मांगलिक अनुष्ठानों में कभी कमेट व बिस्वार से बने ऐपण हर घर की शोभा बढ़ाते थे, जो बदलते समय के साथ गायब हो गए हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में आसानी से मिलने वाले कमेट (एक तरह की खड़िया) या चावल को पीसकर तैयार लेप (बिस्वार) से बने ऐंपण व रंगोली दीपावली पर्व की विशेष पहचान होती थी। इस संस्कृति पर भी आधुनिकता हावी हो गई है। अब कमेट व बिस्वार के ऐपणों की जगह प्लास्टिक के स्टीकरों ने ले ली है। पर्वतीय क्षेत्रों में कोई भी त्योहार हो या मांगलिक अनुष्ठान, लाल मिट्टी या गेरू से घर की देहरी पूजन के बाद उसमें कमेट या बिस्वार के ऐपण बनाने की परंपरा पुरानी है। दीपावली पर्व पर बेटियों व महिलाओं में पारंपरिक ऐपण बनाने को खासा उत्साह रहता था। कमेट का प्रबंध दीपावली से पहले ही हो जाता था तो महिलाएं चावल भिगाकर बिस्वार तैयार करने में जुट जाती थीं।
मीलों दूर से लाना होता था कमेट
भवाली। भवाली की निर्मला जोशी बताती है कि दीपावली पर्व पर घरों में साफ सफाई के बाद कमेट से सफेदी करने की परंपरा पुरानी है। पूर्व में पुराने घरों में कमेट से ही सफेदी होती थी। मीलों दूर पैदलकर चलकर खदानों से कमेट लाना होता था, जिसके लिए हर महिला व पुरुष उत्साहित रहता था। लेकिन अब पुराने पारंपरिक शैली के घरों की जगह पक्के मकानों ने ले ली है और मशीनी रंगों के आगे कमेट जैसे प्राकृतिक रंग फीके पड़ने लगे हैं।
कमेट व बिस्वार से बनते थे देहरी में लक्ष्मी के पैर
भवाली। रामगढ़ निवासी 80 वर्षीय बुजुर्ग महिला जानकी देवी बताती है। कि एक समय था जब कमेट व बिस्वार से ही दीपावली पर्व पर देहरी में लक्ष्मी के पैर बनाए जाते थे। बेटियां हाथ की बंद मुठ्ठी की मदद से कमेट व बिस्वार से भीतर जाते हुए लक्ष्मी के पैरों की आकृति देहरी पर उकेरती थीं। अपनी अंगुलियों से पैरों की आकृति के ऊपर अंगूठा व अंगुलियां बनाती थीं। इसके अलावा इन्हीं प्राकृतिक रंगों में संस्कृति का रंग घोलकर विभिन्न तरह की रंगोली तैयार होती थी। लेकिन बदलते वक्त के साथ यह संस्कृति इतिहास के पन्नों में खोने लगी है।