चाय और कीवी की खेती ही काफी है तस्वीर बदलने को उत्तराखंड की
यदि सचमुच में आम लोगों का और सरकार का सम्मिलित प्रयास परवान चढ़ जाए तो उत्तराखंड का संपूर्ण पर्वत प्रदेश चाय और कीवी उत्पादन से एक बड़ा आर्थिक आधार तैयार कर सकता है पूरे उत्तराखंड की तस्वीर बदलने के लिए। बशर्ते इनकी खेती पर ध्यान दिया जाए और इनके उत्पादन को बाजार मुहैया कराया जाए। साथ ही प्रसंस्करण,भंडारण एवं विपणन की सम्यक व्यवस्था की जाए। हमारे पहाड़ी संपूर्ण क्षेत्र की मिट्टी चाय की खेती के लिए बहुत उपयोगी है
हमारे यहां की चाय की विदेशों में बड़ी डिमांड है। इसी प्रकार कीवी की खेती के लिए भी यहां की अधिकांश जगहों की मिट्टी बहुत मुफीद है। जिस प्रकार यहां की चाय को स्वास्थ्यवर्धक बताया गया है। उसी प्रकार कीवी का फल भी स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी है। शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए यह बहुत कारगर एवं रामबाण औषधि है। कीवी से कई तरह के उत्पाद बना कर इसे लंबे समय तक के लिए संरक्षित किया जा सकता है। वर्तमान में संपूर्ण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों का पुश्तैनी एवं पारंपरिक व्यवसाय खेती-बाड़ी, पशुपालन एवं बागवानी समाप्ति की कगार पर पहुंच चुका है। खेती को वन्य-जीवों से पहुंचाए जा रहे नुकसान और मौसम की मार झेलनी पड़ रही है। इसलिए यहां के कि वह किसान खेती से मुख मोड़ रहे हैं। खेती की उपजाऊ जमीन निरंतर बंजर होते जा रही है। पशुपालन भी दमतोड़ रहा है। चूंकि खेती और पशुपालन का बड़ा गहरा अंतर्संबंध है। एक कड़ी के टूटने से दूसरी कड़ी की शक्ति का क्षीण हो जाना स्वाभाविक है । इन्हीं से जुड़ी होती है बागवानी। बागवानी को भी वन्य-जीवों के द्वारा पहुंचाए जा रहे नुकसान की मार झेलनी पड़ रही है। इन तमाम तरह की परेशानियों के कारण यहां के काश्तकारों का ध्यान और रुझान इस ओर से धीरे धीरे हट रहा है।खेत निरंतर बंजर होते जा रहे हैं। पशुपालन में भी कमी दिखाई दे रही है। बागवानी भी समाप्तप्राय है । परंतु अभी तक का अनुभव बताता है कि चाय और कीवी की खेती को वन्य-जीवों द्वारा नुकसान नहीं पहुंचाया जा रहा है। वन्य-जीवों से खेती और बागवानी की सुरक्षा करने में सभी लाचार नजर आ रहे हैं। हमारे पुरखों के पास इनसे निजात पाने के पारंपरिक कारगर उपाय रहे थे। वे उनका भरपूर उपयोग अपनी खेती और बागवानी को बचाने के लिए किया करते थे। इन सभी हालात के मद्देनजर यहां बंजर होते खेतों एवं अन्य बंजर भूमि में चाय और कीवी की खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है। चाय और कीवी की खेती को वन्य-जीव फिलवक्त कोई नुकसान पहुंचाते नजर नहीं आ रहे हैं। हां इनके लिए भी समय-समय पर जैविक खाद और भीषण गर्मी में सिंचाई की जरूरत पड़ती है
चाय उत्पादन का जिम्मा इस समय यहां उत्तराखंड टी बोर्ड के पास है। परंतु देखने में आ रहा है कि चाय उत्पादन में कोई अपेक्षित सुधार एवं वृद्धि नजर नहीं आ रही है।कारण स्पष्ट है कि उत्तराखंड टी बोर्ड कारगर तरीके से काम नहीं कर पा रहा है। चाय श्रमिकों को समुचित सुविधाएं भी नहीं दी जा रही है और न सही तरीके से काम ही लिया जा रहा है। उनका न्यूनतम मानदेय बढ़ाकर एवं अन्य सुविधाएं देकर चाय बागानों में सही तरीके से काम करवाए जाने से ही चाय उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। यहां की चाय पहले ही काफी ख्याति अर्जित कर चुकी है। दो दशक से अधिक समय से यहां कई स्थानों पर चाय की खेती की जा रही है। इस ओर सरकारों का ध्यान और रुझान न होने एवं उत्तराखंड टी बोर्ड की लापरवाही के चलते यहां का चाय उद्योग दम तोड़ता नजर आ रहा है। अन्यथा अकेले चाय की खेती ही यहां बहुत अच्छा रोजगार मुहैया करा सकती है। इस ओर सक्रियता से ध्यान दिए जाने की अधिक जरूरत है। पिछले एक दशक से देखा जा रहा है कि उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में जगह-जगह लोग अपने निजी प्रयासों से कीवी की खेती कर रहे हैं। और बेहतर उत्पादन दे रहे हैं। प्रायः देखा गया है कि यहां की मिट्टी भी कीवी की खेती के लिए बहुत उपयोगी है। बागेश्वर जिले के शामा क्षेत्र में कीवी की बहुत अच्छी खेती की जा रही है। अन्य क्षेत्रों में भी काश्तकार छिटपुट कीवी की खेती कर अच्छी आय अर्जित कर रहे हैं। यदि कीवी की खेती को बढ़ावा दिया जाए। उद्यान विभाग का सम्यक तकनीकी मार्गदर्शन मिल जाए एवं मार्केटिंग की समुचित व्यवस्था हो जाए तो चाय के बाद कीवी की खेती भी यहां की आर्थिकी को चार चांद लगाने में सक्षम सिद्ध हो सकती है। महती जरूरत है सरकारी ध्यान और रुझान की और काश्तकारों को उचित तकनीकी मार्गदर्शन दिए जाने की। कीवी के उत्पादों को तैयार करने के लिए प्रोसेसिंग यूनिटों की स्थापना एवं उनकी मार्केटिंग की कारगर व्यवस्था करने की आवश्यकता है।
रतनसिंह किरमोलिया
(लेखक कुमाउनी कवि , साहित्यकार एवम सामाजिक कार्यकर्ता हैं )
