बीच भंवर में कांग्रेस
( आखरीआंख )
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में खलबली है। हार के कारणों पर विचार के लिए शनिवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। कहा जा रहा है कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से जूझ रही है। उसके शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं और उसकी जमीन खिसकती नजर आई है। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साबित किया कि पार्टी में कोई बड़ा अंदरूनी संकट है, जिसे नजरअंदाज किया जा रहा है। आज के दौर में चुनाव लडऩे के लिए जिस कुशल प्रबंधन और प्रफेशनलिम की जरूरत है उसका कांग्रेस में अभाव दिखता है।
पिछले कुछ वर्षों में शायद ही कभी पार्टी ने व्यापक सदस्यता अभियान चलाया हो या कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए कोई कार्यशाला या शिविर आयोजित किए हों या उन्हें एकजुट करने के लिए किसी भी तरह की पहल की हो। आलाकमान ने नीचे तक अपना संगठनात्मक ढांचा खड़ा करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। पहले पार्टी में कई ऐसे जमीनी नेता हुआ करते थे, जिनकी क्षेत्र या राय से ऊपर पहचान हुआ करती थी। उनकी बातों का एक असर हुआ करता था और वे अपने दम पर अपनी पार्टी को वोट दिलाया करते थे। पर अब ऐसे नेताओं का अकाल हो गया है। कांग्रेस पार्टी के उमीदवार पूरी तरह गांधी परिवार पर आश्रित हो गए हैं। इस चुनाव में ही कई सीनियर नेताओं ने अपने क्षेत्र से भी दूरी बनाए रखी। दरअसल, सोनिया गांधी के कमान संभालने के बाद पार्टी का चरित्र बहुत बदला है। इस पर शहरी संभ्रांत वर्ग का वर्चस्व हो गया है जो इसे एक गैर सरकारी संगठन की तरह चला रहा है। वह सिद्धांतों में जीने वाला एक तबका है, जिसे अंदाजा ही नहीं कि देश का सामाजिक यथार्थ कितना बदल चुका है।
कांग्रेस अर्थशास्त्रियों के मशविरे से किसानों के लिए योजना तो बनाती है, लेकिन उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो किसानों के साथ रोज उठता-बैठता हो और उनका दुख-दर्द पूछता हो। कांग्रेस जनता से संवाद के नए तरीके नहीं ढूंढ पाई। आज सोशल मीडिया के इस दौर में जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नए सूत्रों, नए मुहावरों की जरूरत है, जिसे बीजेपी ने बेहतर समझा है। कांग्रेस ने मोदी को जुमलेबाज तो कहा पर उनके जुमलों की काट नहीं खोज पाई। सोशल मीडिया जैसे प्लैटफॉर्म पर कभी कांग्रेस की मुखर उपस्थिति नजर नहीं आई। कांग्रेस अपनी पहचान को लेकर भी दुविधा में है। उसे तय करना होगा कि वह अपना धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बरकरार रखे या उदार हिंदुत्व अपनाए। क्या इन मुद्दों पर पार्टी में खुलकर बातचीत होगी या 2014 की तरह उन पर लीपापोती कर दी जाएगी? अगर कांग्रेस को प्रासंगिक बने रहना है तो उसे आमूल-चूल बदलाव के लिए तैयार होना पड़ेगा।