November 22, 2024

केंद्र सरकार के हाथ से फिसलती अर्थब्यवस्था

आखरीआंख
केन्द्र सरकार की आर्थिक मुश्किलें कम होती नहीं दिख रहीं। चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर गिर कर महज 4.5 प्रतिशत रह जाना यही बताता है कि देश की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। यह भी कि सरकार द्वारा बैंकों के विलय, बैंकों की आर्थिक मजबूती के लिए दो लाख करोड़ रुपये देने, रियल एस्टेट फंड में निवेश, कारपोरेट टैक्स में कटौती तथा सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश जैसे बड़े कदम उठाये जाने के भी वांछित परिणाम नहीं निकले हैं। इस बीच प्रतिष्ठित उद्योगपति राहुल बजाज ने खासकर उद्योग जगत में व्याप्त जिस भय के माहौल का जिक्र किया है, वह एक और गंभीर संकट की ओर इशारा है। पिछले वित्तीय वर्ष की शुरुआती दो तिमाही में विकास दर 7.5 प्रतिशत थी, लेकिन चालू वित्त वर्ष की पहली दो तिमाही में वह फिसल कर 4.8 प्रतिशत पर आ गयी है। फिसलन की यह स्थिति तब है, जबकि नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद से कुछ आर्थिक जानकार, और विपक्षी राजनीतिक दल भी, सरकार को आर्थिक मंदी के प्रति आगाह करते रहे हैं। सरकार कभी आर्थिक मंदी की आशंका को ही निर्मूल करार दे देती है तो कभी उसके लिए वैश्विक कारकों को जिमेदार बताती है। बेशक खुली वैश्विक अर्थव्यवस्था में वैश्विक कारकों का असर भी पड़ता ही है, लेकिन उनकी आड़ लेने के बजाय अपने देश की परिस्थितियों और प्राथमिकताओं के अनुरूप कदम उठाये जाने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने कदम नहीं उठाये, लेकिन उसका फोकस वित्तीय घाटा कम करने तथा निवेश बढ़ाने पर यादा रहा है, जबकि मौजूदा आर्थिक संकट के मूल में मांग की कमी बतायी जा रही है। विभिन्न सेक्टरों को मदद और कारपोरेट टेक्स में कमी के जरिये भी सरकार ने निवेश बढऩे की ही आस लगायी थी, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। दरअसल हो उसका उलटा ही रहा है। उद्योग जगत उत्पादन घटाकर और कीमतें बढ़ाकर अपने मुनाफे में कमी को नियंत्रित कर रहा है, जिसका प्रतिकूल असर रोजगारों और मांग पर पड़ रहा है।
पिछले दिनों ऑटोमोबाइल सेक्टर में छंटनी पर काफी हल्ला मचा। कुछ और सेक्टरों से भी ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि इस आसन्न आर्थिक मंदी की शुरुआत कृषि और ग्रामीण सेक्टर से हुई, जिसे मजबूती और गति देना अभी तक भी सरकार की प्राथमिकताओं में नजर नहीं आता। यह सही है कि सरकार की प्राथमिकताओं में कृषि के पिछडऩे से देश के आर्थिक विकास में उसका योगदान भी लगातार कम होता गया है, लेकिन इसके बावजूद आज भी देश की एक-तिहाई से यादा आबादी जीवनयापन के लिए कृषि और उसकी सहयोगी ग्रामीण आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर है। ऐसे में जब तक ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों की आय नहीं बढ़ेगी, तब तक बाजार में खरीददारी के लिए मांग में भी अपेक्षित उछाल नहीं आयेगा। यही बात असंगठित क्षेत्र और छोटे उद्योगों के कामगारों के लिए कही जा सकती है, जो तेजी से अपनी नौकरियां गंवा रहे हैं या जिनकी नौकरियों पर तलवार लटकी है। ऐसे में वे भी खरीददारी के जरिये मांग बढ़ाने के बजाय भावी जीवनयापन के लिए बचत को लेकर यादा फिक्रमंद हैं। इसलिए सरकार को आम आदमी की आय बढ़ाने के हरसंभव उपाय करने चाहिए। साथ ही उद्योगपति राहुल बजाज की उद्योग जगत में भय का माहौल संबंधी आशंकाओं को भी गंभीरता से लेना चाहिए। अगर लोग सरकार की नीतियों की आलोचना से ही डरेंगे तो किसी भी भूल सुधार की गुंजाइश ही कहां रह जायेगी? पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा की मानें तो मांग की मौत से उपजी इस गंभीर आर्थिक मंदी से उबरने में कुछ वर्ष भी लग सकते हैं। इसलिए सभी संबंधित सेक्टरों के साथ विचार-विमर्श कर दीर्घकालीन उपाय और समन्वित प्रयास ही वक्त का तकाजा भी है।

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