राजा पर राजनीति के अनुत्तरित प्रश्न
निधन के चार दशक बाद राजा महेंद्र प्रताप सिंह चर्चा में हैं। मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों तक सवाल पूछा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश और केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को 1979 में दिवंगत राजा महेंद्र प्रताप की याद अचानक अभी क्यों आयी? इस सवाल के मूल में है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 14 सितंबर को अलीगढ़ जिले के लोधा गांव में राजा महेंद्र प्रताप सिंह की स्मृति में प्रदेश स्तरीय विश्वविद्यालय का शिलान्यास। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी, राजा महेंद्र प्रताप सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व का गुणगान करते हुए यह बताना नहीं भूले कि वह जाट राजा थे। महेंद्र प्रताप जाट थे, यह तो तथ्य है, पर राजनीति में अनायास कुछ नहीं होता, सब कुछ सायास होता है। इसीलिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री द्वारा राजा महेंद्र प्रताप के नाम के साथ जाट जोडऩे के राजनीतिक निहितार्थ ढ़ूंढे जा रहे हैं। पूछा जा रहा है कि क्या यह तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध जारी किसान आंदोलन के राजनीतिक प्रभाव को कम करने की कवायद है?
केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल बनाये गये तीन कृषि कानूनों को अपने विरुद्ध बताते हुए पिछले लगभग दस महीने से किसान देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर धरना दे रहे हैं। बेशक जयसिंहपुर खेड़ा बॉर्डर पर धरनारत किसानों में राजस्थान का प्रतिनिधित्व ज्यादा है, लेकिन टीकरी और सिंघु बॉर्डर पर पंजाब-हरियाणा के किसान मोर्चा संभाले हुए हैं तो गाजीपुर बॉर्डर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान। राजस्थान में विधानसभा चुनाव 2023 में होंगे और हरियाणा में उसके भी अगले साल, लेकिन पंजाब और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव बमुश्किल छह महीने दूर हैं। मान भी लें कि पंजाब चुनाव में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर नहीं होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश तो देश का सबसे बड़ा राज्य है। पिछले दोनों लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेलेदम बहुमत दिलवाने में भी उत्तर प्रदेश की ही निर्णायक भूमिका रही है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ है। यह सब कुछ किसानों के समर्थन के बिना तो संभव नहीं ही हुआ होगा। ऐसे में किसान आंदोलन के राजनीतिक प्रभाव-परिणामों को लेकर चिंता होना तो स्वाभाविक है। किसान आंदोलन में अभी तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान ज्यादा सक्रिय और मुखर नजर आ रहे हैं, जो 2014, 17 और 19 में समर्थन के बावजूद भाजपा के परंपरागत समर्थक नहीं माने जाते।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान समुदाय में जाट प्रभावी माने जाते हैं। संपन्नता के साथ-साथ राजनीति में भी उनका खासा प्रभाव रहा है। बेशक कांग्रेस को अलविदा कहने के बाद चौधरी चरण सिंह ‘अजगरÓ (अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) और ‘मजगरÓ (मुसलमान, जाट, गुर्जर, राजपूत) का सामाजिक समीकरण बनाकर ही लखनऊ और दिल्ली के सत्ता शीर्ष तक पहुंचे थे, लेकिन बदलते राजनीतिक परिदृश्य में मान लिया गया कि जाट उनके उत्तराधिकारी अजित सिंह, और अब जयंत चौधरी (राष्ट्रीय लोकदल), का परंपरागत समर्थक वर्ग है, जिसके साथ मुस्लिम वर्ग मिल जाने से विजयी समीकरण बन जाता है। मुलायम सिंह यादव के अलगाव के बाद यह समीकरण गड़बड़ाया तो पिछले सात साल में मोदी लहर में निष्प्रभावी ही हो गया, पर अब जबकि किसान आंदोलन कृषि कानूनों और केंद्र सरकार के साथ-साथ भाजपा के विरुद्ध भी मुखर हो रहा है, इसके राजनीतिक प्रभाव-परिणामों पर बहस शुरू हो गयी है।
पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 403 में से 313 सीटें जीती थीं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग 100 सीटें हैं, जिनमें से ज्यादातर भाजपा की झोली में गयी थीं। परंपरागत सामाजिक-राजनीतिक समीकरण किस हद तक धराशायी हो गये थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय लोकदल का मात्र एक विधायक चुना गया था। वह भी बाद में भाजपा में शामिल हो गया। दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में भी कुछ नहीं बदला। अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत, दोनों चुनाव हार गये। इन चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाने का दावा जो भारतीय किसान यूनियन करती थी, उसके नेता द्वय टिकैत बंधु अब प्रायश्चित करते हुए भूल सुधार की बात कह रहे हैं। संकेत साफ है: 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से जाटों और मुसलमानों में बढ़ा वैमनस्य अगर मिट रहा है तो असर चुनाव परिणामों पर भी पड़ेगा ही। इसीलिए प्रधानमंत्री द्वारा राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर प्रदेश स्तरीय विश्वविद्यालय के शिलान्यास को जाट समुदाय की नाराजगी दूर करने की भाजपाई कवायद के रूप में देखा-दिखाया जा रहा है।
भाजपा एक राजनीतिक दल है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसके शीर्षस्थ राजनेता। अब राजनीतिक दल और राजनेता तो राजनीति करेंगे ही। भाजपा याद दिला रही है कि पिछले साल के आखिर में शुरू हुए किसान आंदोलन से लगभग एक साल पहले ही वर्ष 2019 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर प्रदेश स्तरीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की थी, भूमि अधिग्रहण आदि औपचारिकताओं के चलते जिसका शिलान्यास अब हो पाया है। बेशक वह घोषणा एक तथ्य है, लेकिन थोड़ी देर के लिए उसे नजरअंदाज भी कर दें तो भाजपाई कवायद पर सवाल उठाने वाले राजनीतिक दलों-नेताओं को इस स्वाभाविक सवाल का जवाब तो देना ही चाहिए कि देश की आजादी के लिए विदेशों से समर्थन जुटाने की खातिर युवावस्था में राजसुख छोड़ कर 32 साल तक निर्वासित जीवन जीने और 1915 में भारत की पहली निर्वासित सरकार गठित करने वाले सर्व धर्म समभाव की भावना से अपना नाम ही ‘पीटर पीर प्रतापÓ रख कर प्रेम धर्म के पैरोकार रहे आर्यन पेशवा के संबोधन से लोकप्रिय ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति सम्मान स्वरूप अपने शासनकाल में उन्होंने कुछ क्यों नहीं किया? और जाने-अनजाने नजरअंदाज कर दिये जाने वाले ऐसे राष्ट्र नायकों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, जिनके योगदान से नयी पीढिय़ां अनभिज्ञ ही रह जाती हैं।
यह सवाल इसलिए भी ज्यादा प्रासंगिक है, क्योंकि शुरुआत में मार्क्सवादी रुझान वाले महेंद्र प्रताप 1946 में स्वदेश वापसी के बाद महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के नेताओं के निकट रहे और शिक्षा एवं समाज सुधार की दिशा में तन-मन-धन से अनुकरणीय योगदान दिया। स्वदेशी आंदोलन में भी उनकी अग्रणी भूमिका का उल्लेख मिलता है। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के सुनहरे दिनों में भी 1957 में मथुरा से निर्दलीय चुनाव लड़ कर वह सांसद चुने गये थे। तब कांग्रेस उम्मीदवार चौधरी दिगंबर सिंह दूसरे स्थान पर रहे थे, और आज जिस भाजपा पर जातिगत राजनीतिक कारणों से राजा को याद करने का आरोप लग रहा है, उसके उम्मीदवार अटलबिहारी वाजपेयी चौथे स्थान पर रहे थे। अटल जी की जमानत जब्त हो गयी थी। यह अलग बात है कि वह एक दूसरे संसदीय क्षेत्र बलरामपुर से भी चुनाव लड़ रहे थे, जहां से जीत कर पहली बार लोकसभा में पहुंचे और सभी को प्रभावित करने में भी सफल रहे।
ऐसा नहीं है कि सत्ता में रहते हुए अन्य दलों ने समाज के प्रतिष्ठित लोगों के नाम पर संस्थाएं-स्मारक नहीं बनाये, पर दुर्भाग्यवश नजरिया संकीर्ण ही रहा। कभी जाति-वर्ग के दायरे में सिमट गये तो कभी चुनावी गणित में उलझ गये। कटु सत्य तो यह है कि सामाजिक-राजनीतिक समीकरण बिठाने के लिए न तो नायक खोजने-गढऩे में संकोच किया गया और न ही राष्ट्र-समाज के नायकों को जाति-वर्ग के दायरे में कैद करने में। बताया जा रहा है कि 1929 में जिस अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए राजा महेंद्र प्रताप ने जमीन दान में दी थी, उसमें उनके नाम को सही मान-सम्मान नहीं मिला, इसलिए उनके नाम पर अलग से प्रदेश विश्वविद्यालय स्थापित किया जा रहा है, पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज खोलने के लिए राजा ने वृंदावन का अपना महल दान कर दिया था। आमतौर पर राजाओं की चर्चाएं उनकी शानो शौकत और विलासितापूर्ण जीवन के लिए होती हैं, पर हाथरस जिले की मुरसान रियासत के राजा महेंद्र प्रताप की गिनती हमेशा विद्वान लेखक, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक के रूप में की गयी। 1932 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था। ऐसी विभूति को देर से मान-सम्मान दे पाने के लिए अपराधबोध का अहसास करने के बजाय एक राष्ट्र नायक को ही जाति-वर्ग और चुनावी राजनीति के चश्मे से देखने-दिखाने की कोशिश दरअसल हमारे राजनेताओं के बौनेपन को ही बेनकाब करती है।