तबाही से सबक लेकर तय हो सीमा
आखरीआंख
अभी केरल में अतिवृष्टि से तबाही की चर्चा खत्म भी नहीं हुई थी कि उत्तराखंड में जल प्रलय जैसी स्थितियों ने भय का वातावरण बना दिया है। भारी बारिश से बाढ़, भूस्खलन, नदी-नालों में उफान और उससे होने वाली मानवीय क्षति रोंगटे खड़े करने वाली है। कुदरत के कहर से मानवीय क्षति और अरबों की संपत्ति का नुकसान हमें सोचने को विवश कर रहा है कि कुदरत यदि नाराज है तो उसकी नाराजगी को कैसे दूर किया जाये। उत्तराखंड खासकर इसके कुमाऊं क्षेत्र में तबाही का भयावह मंजर उभरा। बताते हैं कि यहां 124 साल की बारिश का रिकॉर्ड टूटा है। यह बात चौंकाने वाली है कि चौमासे के बाद ऐसी बारिश का कहर क्यों बरपा। कई दशकों से जिस ग्लोबल वार्मिंग की बात हो रही थी और जिसकी मार फ्रांस व जर्मनी जैसे देशों ने इस बार झेली, वैसी ही दस्तक भारत में भी महसूस की जा रही है। मौसम विज्ञानी बता रहे हैं कि बंगाल की खाड़ी से उठने वाली नम हवाओं को पश्चिम विक्षोभ द्वारा पूर्व की ओर आकर रोक देने से अतिवृष्टि हुई, जिससे कुमाऊं मंडल में नैनीताल सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। यहां की चर्चित नैनी झील ओवरफ्लो हो गई, जिससे मल्लीताल में नैनादेवी मंदिर परिसर, मॉल रोड और तल्लीताल के बाजार में बाढ़ आ गई। घरों व व्यावसायिक संस्थानों में पानी भर गया। लगातार होती बारिश से लोग घरों में भी सहमे रहे। मौसम विभाग की चेतावनी के बाद उत्तराखंड में चारधाम यात्रा रोक दी गई थी और बचाव दलों को सतर्क कर दिया गया था। लेकिन बारिश इतनी भयावह होगी, इसकी कल्पना नहीं थी। दरअसल मौसम परिवर्तन के चलते बारिश के ट्रेंड में बदलाव ये आया है कि बारिश कम समय के लिये होती है मगर उसकी तीव्रता ज्यादा होती है जो कि उत्तराखंड हिमालय के कच्चे पहाड़ों के लिये बेहद खतरनाक है। इससे भूस्खलन का खतरा बढऩे से उसकी चपेट में घरों के आने से मानवीय क्षति बढ़ जाती है।
निस्संदेह, मौसम के मिजाज में तल्खी ने आपदाओं की तीव्रता बढ़ाई है। तभी हम मौसम की चेतावनी का संपूर्ण ज्ञान होने के बावजूद तबाही की तीव्रता को कम नहीं कर पाये हैं। हमें पिछली आपदाओं से सबक लेकर राहत व बचाव को चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा ताकि मानवीय क्षति कम हो सके। निस्संदेह जब मौसम चक्र में बदलाव से जलवायु संकट वैश्विक स्तर पर उभर रहा है तो हमें पर्यावरण संरक्षण के उपायों को लेकर ईमानदार प्रयास करने होंगे। हमने पाया है कि उत्तराखंड व हिमाचल के इलाकों में बादल फटने की घटनाओं की पुनरावृत्ति बढ़ी है। वहीं मैदानी इलाकों में आकाशीय बिजली गिरने से होने वाली मौतों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। इन कुदरती घटनाओं से सबक लेकर बचाव-राहत के उपायों को तलाशना होगा। साथ ही वृक्षारोपण को बढ़ावा देकर पर्यावरण की सेहत सुधारने के भी प्रयास करने होंगे। जिस तेजी से दुनिया में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, उससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और समुद्र तटीय इलाकों में भी बाढ़ का खतरा बढ़ जायेगा। प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता की एक वजह यह भी है कि मानवीय हस्तक्षेप ने संकट की उर्वरा भूमि तैयार कर दी है, जिसमें अदूरदर्शी निर्माण की भी बड़ी नकारात्मक भूमिका है। जल प्रवाह की राह में होने वाला निर्माण अतिवृष्टि पर निकासी की राह में बाधा बनता है, जिससे संपत्ति व मानवीय क्षति बढ़ जाती है। जिसमें पहाड़ों तथा नदियों में खनन व पेड़ों की कटाई की एक बड़ी भूमिका होती है। दरअसल, अतिवृष्टि पर पानी को निकासी का अपना मार्ग मिले तो वह मानवीय क्षेत्र में दखल नहीं देता, लेकिन अतिक्रमण ने स्थितियां जटिल बना दी हैं। निस्संदेह बचाव हेतु ठोस नीतियां बनाने की जरूरत है। संवेदनशील इलाकों में अविवेकपूर्ण निर्माण पर अंकुश लगाने की सख्त जरूरत है। यह प्रयास होने चाहिए कि कुदरत के बदलते मिजाज में केरल जैसे तटीय और उत्तराखंड जैसे संवेदनशील इलाकों में भवन-निर्माण संस्कृति कैसी हो। इसके लिये मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी जरूरत है। हमें सोचना होगा कि मानव अस्तित्व के लिये प्रकृति के दोहन की सीमा क्या हो।